सर्पिल नीहारिका

ठिठके-से तारों की ऊँघती लड़ी,
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।

                     होनी के हाथों में जकड़न-सी आई
                     सूरज की किरणों को ठंडक क्यों भाई,

झींगुर को फाँस रही नन्ही मकड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
                     

                     पश्चिम के माथे पर सुकवा की बिंदी,
                     आलिंगन को आतुर गंगा कालिंदी

संध्या नक्षत्रों की खोलती कड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
                     

                      वर्तुल में घूमता है सप्तर्षि मन,
                      चंदा की जुगनू से कैसी अनबन,

सर्पिल नीहारिका में दृष्टि जा गड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।

 


                                                                    -महेन्द्र वर्मा


13 comments:

अरुण चन्द्र रॉय said...

सुंदर गीत

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

वर्मा सा. आज आपकी सृष्टि की घड़ी ने बच्चन जी की सोन मछरी की याद दिला दी! आपकी कविताएँ, गीत या गज़ल अपनी अलग पहचान रखते हैं और यह गीत किसी भी संगीतकार के सुरों को छूकर कंचन बना सकने का सामर्थ्य रखता है! प्रणाम स्वीकारें!

ओंकारनाथ मिश्र said...

अति सुन्दर सृजन.

कालीपद "प्रसाद" said...

बहुत सुन्दर रचना !
: शम्भू -निशम्भु बध --भाग १

Dr. Rajeev K. Upadhyay said...

बहुत ही सुन्दर गीत्। स्वयं शून्य

Dr. Rajeev K. Upadhyay said...

वाह महेन्द्र जी आपने संपूर्ण जीवन को कुछ शब्दों में ही कह दिया। हर आयाम को छू लिया। हर बात कह दिया। शायद इसी को गागर में सागर कहते हैं। बहुत खुब। भाषा की शुद्धता भी प्रशंसनीय है। स्वयं शून्य

Asha Joglekar said...

पथराई लगती है सृष्टि की घडी.......

डॉ. मोनिका शर्मा said...

उम्दा पंक्तियाँ

दिगम्बर नासवा said...

बहुत सुन्दर गीत .... नव सृजन शब्दों का ...

Unknown said...

बहुत सुन्दर

संजय भास्‍कर said...

सर्पिल नीहारिका में दृष्टि जा गड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
......उम्दा पंक्तियाँ बहुत सुन्दर गीत...महेन्द्र वर्मा जी
मजा आ गया

कविता रावत said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें!

Bharat Bhushan said...

जिस अवस्था में आपने यह गीत लिखा है वहाँ समय ठहरा सा दिखता है. बहुत सुंदर गीत.