ऊबते देखे गए



भीड़ में अस्तित्व अपना खोजते देखे गए,
मौन थे जो आज तक वे चीखते देखे गए।

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर ज़िंदगी से भागते देखे गए।

हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
सुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए।

रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।

लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।

बेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
काँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।

कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।

                                                                           
                                                                       



 -महेन्द्र वर्मा

11 comments:

Bharat Bhushan said...

बहुत ही बढ़िया. प्रत्येक पंक्ति संपूर्ण है. इसे फेसबुक पर शेयर करने की अनुमति दीजिए.

महेन्‍द्र वर्मा said...

धन्यवाद आ. भूषण जी ।
इसे फ़ेसबुक पर शेयर करेंगे तो मुझे ख़ुशी होगी ।

Jeevan Pushp said...

बहुत बेहतरीन प्रस्तुति !
बहुत बहुत धन्यवाद !

kuldeep thakur said...

दिनांक 03/10/2017 को...
आप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...

Madabhushi Rangraj Iyengar said...

फेसबुक पर शेयर किया.
अयंगर
7780116592

'एकलव्य' said...

आपकी रचना बहुत ही सराहनीय है ,शुभकामनायें ,आभार

Sudha Devrani said...

बहुत ही सुन्दर, सार्थक अभिव्यक्ति....

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही सराहनीय मन में गहराई तक उतरती भावप्रवण पंक्तियाँ !

दिगम्बर नासवा said...

सार्थक और बहुत सामयिक ग़ज़ल ... हर शेर अर्थपूर्ण है ....
मज़ा आ गया उस ग़ज़ल का ...

Amrita Tanmay said...

लाजबाव !