कवि रहीम

रहिमन धागा प्रेम का

            भक्तिकालीन हिंदी साहित्य में रहीम का महत्वपूर्ण स्थान है। रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम ख़ानखाना था। ये अकबर के दरबार के नवरत्नों में से एक थे। रहीम, अकबर के अभिभावक बैरम ख़ां के बेटे थे। इनका जन्म 17 सितंबर 1556 ईस्वी को लाहौर में हुआ था। बैरम ख़ां की हत्या के बाद अकबर ने रहीम की मां सुल्ताना बेग़म से निकाह कर लिया था, इस प्रकार रहीम अकबर के सौतेले बेटे बन गए थे। रहीम अकबर के सेनापति भी थे। इन्हें हिन्दी, अरबी, तुर्की, संस्कृत, ब्रज, अवधी आदि कई भाषाओं का ज्ञान था। रहीम बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। ये कवियों के आश्रयदाता भी थे। केशव, आसकरन, मंडन, नरहरि और गंग जैसे कवियों ने इनकी प्रशंसा की है। रहीम की दानशीलता प्रसिद्ध है। अकबर के दरबारी कवि गंग के दो छंदों पर प्रसन्न होकर रहीम ने उन्हें 36 लाख रुपये दे दिए थे। 
            रहीम के काव्य में नीति, भक्ति, प्रेम, श्रृंगार आदि के छंदों का समावेश है। इनकी 11 रचनाएं प्राप्य हैं। दोहावली में रहीम के 300 दोहे संग्रहित हैं। 70 वर्ष की उम्र में सन् 1626 ईस्वी में इनका देहावसान हुआ। रहीम का मकबरा दिल्ली में हुमायुं के मकबरे के समीप है।
            प्रस्तुत है, रहीम के कुछ नीति विषयक दोहे-

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय,
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े तो गांठ परि जाय।


रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत,
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत।


रहिमन तब लगि ठहरिए, दान  मान   सनमान,
घटत मान देखिय जबहिं, तुरतहि करहिं पयान।


आब गई आदर  गया,  नैनन  गया सनेह,
ये तीनों तबही गए, जबहि कहा कछु देह।


रहिमन  विपदा  हू  भली,  जो  थोरे  दिन   होय,
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय।


रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय,
सुन   इठलैहैं  लोग  सब,  बांट  न  लइहैं  कोय।


रूठे  सुजन  मनाइये,  जो  रूठे  सौ   बार,
रहिमन फिर फिर पोहिये, टुटे मुक्ताहार।


चाह  गई  चिंता   मिटी,   मनुआ   बेपरवाह,
जिनको कछु नहिं चाहिये, वे साहन के साह। 
  


भक्तकवि सूरदास

सबसे ऊंची प्रेम सगाई



मध्यकालीन भक्त कवियों में सूरदास शीर्षस्थ हैं। इनका जन्म संवत 1540 में हुआ था। विवाह के कुछ समय उपरांत ये विरक्त हो गए और भगवद्भक्ति की इच्छा से यमुना के तटवर्ती गांव गउघाट के निवासी हो गए। वृंदावन तीर्थयात्रा के समय सूरदास जी की भेंट महाप्रभु वल्लभाचार्य से हुई। वल्लभाचार्य ने सूरदास को दीक्षा दी और तब से वे कृष्ण लीला का गायन करने लगे। सूरदास से एक बार मथुरा में तुलसीदास की भेंट हुई। सूर से प्रभावित होकर तुलसीदास ने श्रीकृष्ण गीतावली की रचना की। 
अपने पदों के द्वारा अपने आराध्य श्रीकृष्ण की माधुरी लीला को दृश्यमान बनाने में सूर की सफलता अनुपम है। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के शोध के अनुसार सूरदास रचित ग्रंथों की सुख्या 25 मानी जाती है, किंतु उनके तीन ही ग्रंथ उपलब्ध हो पाए हैं- सूरसागर, सूरसारावली और साहित्यलहरी। संतकवि शिरोमणि सूरदास जी के संबंध में यह दोहा प्रसिद्ध है-
सूर सूर तुलसी शशि, केशव उडुगनदास।
अबके कवि खद्योत सम, जंह तंह करत प्रकाश।
प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर ने सूरदास जी के जीवन-वृत्त पर आधारित ‘खंजन नयन‘ नामक एक बहुचर्चित उपन्यास लिखा है। सूरदास ने गोवर्धन के निकट परसौली ग्राम में संवत 1640 में अपना प्रणोत्सर्ग किया। प्रस्तुत है इनका एक प्रसिद्ध पद-
      
           सबसे ऊंची प्रेम सगाई।
        दुर्योधन को मेवा त्यागो,
        साग विदुर घर खाई।
        जूठे फल सबरी के खाए,
        बहु बिध प्रेम लगाई।
        प्रेम के बस अर्जुन रथ हांक्यो,
        भूल गए ठकुराई।
        ऐसी प्रीत बढ़ी बृंदाबन,
        गोपिन नाच नचाई।
        सूर क्रूर इस लायक नाहीं,
        कहं लग करै बड़ाई। 

महाकवि तुलसीदास

जगत जननि दामिनि दुति माता




गोस्वामी तुलसीदास जी विश्ववंद्य संत कवि हैं। इन्हें महाकवि बाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। इनका जन्म संवत 1532 में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजापुर गांव में हुआ था। पत्नी रत्नावली के द्वारा उलाहना दिए जाने पर इन्होंने गृह त्याग दिया। 14 वर्षों तक ये भारत के विभिन्न तीर्थ स्थलों का भ्रमण करते रहे। हनुमान जी की कृपा से उन्हें भगवान श्रीराम के दर्शन हुए और उसके बाद तो उन्होंने सारा जीवन श्रीराम की भक्ति में बिताया। तुलसीदास जी ने 12 पुस्तकें लिखी जिनमें श्री राम चरित मानस संसार भर में प्रसिद्ध है। दूसरी प्रसिद्ध रचना है-विनय पत्रिका। तुलसीदास जी कुछ समय अयोध्या में रहने के बाद वाराणसी आ गए थे। उुन्होंने वाराणसी के असीघाट पर संवत 1623 में अपने प्राण का विसर्जन किया।
नवरात्रि के पावन अवसर पर प्रस्तुत है गोस्वामी तुलसी दास जी विरचित श्री रामचरित मानस से उद्धरित मां दुर्गा की पावन स्तुति-

जय जय गिरिबरराज किसोरी,
जय महेस मुख चंद चकोरी।
जय गजवदन षडानन माता,
जगत जननि दामिनि दुति माता।
नहि तव आदि मध्य अवसाना,
अमित प्रभाउ बेदु नहीं जाना।
भव भव विभव पराभव कारिनि,
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।
पतिदेवता  सुतीय  महुं ,  मातु  प्रथम  तव  रेख।
महिमा अमित न सकहि कहि, सहस सारदा सेष।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी,
बरदायनी पुरारि पिआरी।
देवि पूजि पद कमल तुम्हारे,
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।


भक्त कवि रसखान

मानुष हौं तो वही रसखानि

कृष्ण भक्त कवि रसखान का जन्म लगभग 1590 विक्रमी में हुआ था। वे दिल्ली में रहते थे। संवत 1613 में उन्हें दिल्ली छोड़नी पड़ी। वे कई वर्ष तक ब्रज और उसके आस-पास के स्थानों में घूमते रहे। संवत 1634 से 1637 तक उन्होंने यमुना तट पर रामकथा सुनी। गोसाईं विट्ठलनाथ से कृष्णभ्क्ति की दीक्षा लेकर कृष्ण लीला गान करने लगे। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं पर आधारित अनेक कवित्त, दोहे आदि रचे। कृष्णभक्त कवियों में उनकी प्रसिद्धि फैल गई। संवत 1671 में रसखान ने ‘प्रेमवाटिका‘ की रचना की। उनका देहावसान संवत 1679 में हुआ। प्रस्तुत है उनका एक प्रसिद्ध छंद -

मानुष हौं तो वही रसखानि,
         बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जौ पशु हौं तो कहां बसु मेरो,
        चरौं नित नंद को धेनु मझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को,
        जो घर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेर करौं,
        मिलि कालिंदि कूल कदंब की डारन।
या लकुटी अरु कामरिया पर,
        राज तिहूं पुर को तजि डारौं।
आठहुं सिद्धि नवौ निधि कौ सुख,
        नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
आंखिन सौं रसखानि कबौं,
        ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हूं कलधौत के धाम,
        करील की कुंजन उपर वारौं।

मीराबाई

मीरा के प्रभु गिरधर नागर


भक्त कवयित्रियों में मीराबाई का नाम अग्रगण्य है। इनका जन्म विक्रम संवत 1561 में मारवाड़ के मेड़ता गांव में हुआ था । इनके पिता का नाम रतनसिंह राठौर था। मीराबाई के शैशवकाल में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था। मीराबाई का लालन-पालन कुड़की गांव में रहने वाली उनकी मौसी ने किया। ये अपने माता-पिता की इकलौती संतान थीं। सम्वत 1573 में इनका विवाह राणा सांगा के पुत्र भोजराज से हुआ था। विवाह के 7-8 वर्ष पश्चात भोजराज की मृत्यु हो गई थी।
मीराबाई के निर्माण में उनकी जीवन परिस्थितियों ने मनोवैज्ञानिक योगदान किया। माता, भाई, बहन और पति के प्यार से वंचिता मीराबाई ने गिरधर गोपाल को ही अपना सर्वस्व मान लिया। एक जन श्रुति है कि एक बारात के दूल्हे को देखकर अबोध बच्ची मीरा माता से पूछ बैठी-‘मेरा वर कौन है ?‘ माता ने उसका कौतूहल शांत करने के लिए गिरधर की मूर्ति की ओर संकेत कर दिया। बस तभी से मीरा ने अपने मन-प्राणों में गिरधर को बसा लिया। भक्त मीराबाई का देहावसान अनुमानतः संवत 1630 के लगभग हुआ था। 
मीराबाई के लगभग 500 भक्तिपद प्राप्य हैं। मीराबाई की विशिष्टता इस बात में है कि उन्होंने कृष्ण भक्ति को ही अपना साधन और साध्य बनाया, किसी दार्शनिक या साम्प्रदायिक मतवाद का अनुसरण उन्होंने नहीं किया। प्रस्तुत है, मीराबाई के दो पद-

1
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा करि अपनायो।
जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सबै खोवायो।
खरचै न कोई चोर न लेवे, दिन दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तरि आयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख हरख जस गायो।


2
आली रे मेरे नैनन बान पड़ी।
चित्त चढ़े मेरे माधुरि मूरत, उर बिच आन पड़ी।
कब की ठाड़ी पंथ निहारूं, अपने भवन खड़ी।
कैसे प्राण पिया बिन राखूं, जीवन मूर जड़ी ।
मीरा गिरधर हाथ बिकानी, लोग कहै बिगड़ी।

संत रविदास



संत रविदास या रैदास मध्ययुग के महान संतकवि थे। इनका जन्म काशी के निकट मंडूर नामक स्थान में विक्रम संवत 1456 को हुआ था। उन्होंने विधिवत कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की किंतु अपने अनुभव, भ्रमण और सत्संग से ही सब कुछ सीखा। संत रविदास ने अपने जीवन काल में ही सिद्धि प्राप्त कर धर्मोपदेशक के रूप में यश अर्जित कर लिया था। गुरुग्रंथ साहिब में उनके 40 पद उसी मौलिक स्वरूप में संग्रहित हैं। इनका देहावसान विक्रम संवत 1584 को हुआ। प्रस्तुत है इनका एक प्रसिद्ध पद -

प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी,
जाकी अंग अंग बास समानी।


प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, 
जैसे चितवत चंद चकोरा ।


प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती,
जा की जोत बरै दिन राती।


प्रभु जी, तुम मोती हम धागा,
जैसे सोनहि मिलत सोहागा।


प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा,
ऐसी   भक्ति    करै    रैदासा।

नज़ीर अकबराबादी


 जब आशिक मस्त फकीर हुए

सूफीमत के शायरों में नज़ीर अकबराबादी का नाम प्रसिद्ध है। ये ग़ालिब और मीर के समकालीन थे। इनका जन्म सन् 1735 में दिल्ली में हुआ था। बाद में ये आगरे में बस गए थे। नवाब वाजिद अली शाह इन्हें दरबारी कवि बनाना चाहते थे लेकिन नज़ीर ने इंकार कर दिया। इन्हें अवधी, ब्रज, मारवाड़ी, पंजाबी और संस्कृत भाषाओं का ज्ञान था। कृष्ण की लीलाओं पर आधारित इनकी रचनाएं बहुत प्रसिद्ध हैं। इनका देहावसान सन् 1830 में हुआ।
मानवता को एकमात्र धर्म मानने वाले सूफीमत के कवि परमात्मा और स्वयं के रिश्ते को आशिक और माशूक का रिश्ता मानते हैं। प्रस्तुत है महान सूफी शायर नज़ीर अकबराबादी की एक महान रचना-

है आशिक और माशूक जहां, वां शाह वज़ीरी है बाबा,
नै रोना है नै धोना है, नै दर्द असीरी है बाबा ।


दिन रात बहारें चुहले हैं, औ ऐश सफीरी है बाबा,
जो आशिक हुए सो जाने है, यह भेद फ़कीरी है बाबा।


हर आन हंसी हर आन खुशी, हर वक्त अमीरी है बाबा,
जब आशिक मस्त फ़कीर हुए, फिर क्या दिलगीरी है बाबा।


कुछ ज़ुल्म नहीं कुछ ज़ोर नहीं, कुछ दाद नहीं फरियाद नहीं,
कुछ क़ैद नहीं कुछ बंद नहीं, कुछ जब्र नहीं आज़ाद नहीं।


शागिर्द नहीं उस्ताद नहीं, वीरान नहीं आबाद नहीं,
है जितनी बातें दुनिया की, सब भूल गए कुछ याद नहीं।


जिस सिम्त नज़र कर देखे हैं, उस दिलवर की फुलवारी है,
कहीं सब्ज़ी की हरियाली है, कहीं फूलों की गुलक्यारी है।


दिन रात मगन ख़ुश बैठे हैं, और आस उसी की भारी है,
बस आप ही वो दातारी हैं, और आप ही वो भंडारी हैं।


हम चाकर जिसके हुस्न के हैं, वह दिलबर सबसे आला है,
उसने ही हमको जी बख़्शा, उसने ही हमको पाला है ।


दिल अपना भोला भाला है, और इश्क बड़ा मतवाला है,
क्या कहिए और नज़ीर आगे, अब कौन समझने वाला है।


हर आन हंसी हर आन ख़ुशी, हर वक़्त अमीरी है बाबा,
जब आशिक मस्त फकीर हुए , फिर क्या दिलगीरी है बाबा।