खामोशी भी कह देती हैं सारी बातें




तनहाई में जिनको सुकून सा मिलता है,
आईना भी उनको दुश्मन सा लगता है।


किसको आखि़र हम अपनी फरियाद सुनाएं,
हर चेहरा फरियादी जैसा ही दिखता है।


दिल में उसके चाहे जो हो, तुझको क्या,
होठों से तो तेरा नाम जपा करता है।


तेरी जिन आंखों में फागुन का डेरा था,
बात हुई क्या, उनमें अब सावन बसता है।


किसी परिंदे के पर चाहे, काटो फिर भी,
दूर उफ़क तक उसका मन उड़ता फिरता है।


ख़ामोशी भी कह देती हैं सारी बातें,
दिल की बातें कोई कब मुंह से कहता हैं।


वो तो दीवाना है, उसकी बातें छोड़ों,
अपने ग़म को ही अपनी ग़ज़लें कहता है।

                                                                         -महेन्द्र वर्मा

संत ज्ञानेश्वर






मराठी भाषा की गीता माने जानी वाली ‘ज्ञानेश्वरी‘ के रचयिता संत ज्ञानेश्वर महान संत गोरखनाथ की परम्परा में हुए। इनका जन्म सन 1275 ई. माना जाता है। जन्मस्थान आलंदी ग्राम है जो महाराष्ट्र् के पैठण के निकट है। इनके तिा का नाम विट्ठल पंत था। अपने बड़े भाई ग्यारह वर्षीय निवृत्तिनाथ से आठ वर्षीय ज्ञानेश्वर ने दीक्षा ली और संत बन गए। नाथपंथी, हठयोगी होते हुए, वेदांत के प्रखर विद्वान होने के बावजूद भक्ति के शिखर को छूने वाले संत ज्ञानेश्वर ने चार पुरुषार्थों के अतिरिक्त भक्ति को पांचवे पुरुषार्थ के रूप में स्थापित किया।
संत ज्ञानेश्वर, जो ज्ञानदेव के नाम से भी विख्यात हैं, वारकरी संप्रदाय के प्रवर्तक थे। वारकरी का अर्थ है- यात्रा करने वाला। संत ज्ञानेश्वर सदा ही यात्रारत रहे। इन्होंने उज्जयिनी, काशी, गया, अयोध्या, वृंदावन, द्वारिका,पंढरपुर आदि तीर्थों की यात्राएं कीं। ज्ञानेश्वरी के पश्चात अपने गुरु की प्रेरणा से अपने आध्यात्मिक विचारों को आकार देते हुए एक स्वतंत्र ग्रंथ ‘अमृतानुभव‘ की रचना की। इस ग्रंथ में 806 छंद हैं। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित अन्य ग्रंथ चांगदेवपासष्टी, हरिपाठ तथा योगवशिष्ठ टीका है।
तीर्थयात्रा से लौटकर संत ज्ञानेश्वर ने अपनी समाधि की तिथि निश्चित की। शक संवत 1218 कृष्णपक्ष त्रयोदशी, गुरुवार तदनुसार 25 अक्ठूबर 1296 को मात्र 22 वर्ष की अल्पायु में संत ज्ञानेश्वर ने आलंदी में समाधि ली।
प्रस्तुत है नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित उनका एक पद-


सोई कच्चा वे नहिं गुरु का बच्चा।
दुनिया तजकर खाक रमाई, जाकर बैठा बन मा।
खेचरी मुद्रा बज्रासन मा, ध्यान धरत है मन मा।
तीरथ करके उम्मर खोई, जागे जुगति मो सारी।
हुकुम निवृति का ज्ञानेश्वर को, तिनके उपर जाना।
सद्गुरु की जब कृपा भई तब, आपहिं आप पिछाना।


भावार्थ-
बाह्याचरण, सन्यास लेकर, शरीर पर राख मलकर, वन में वास करके और विभिन्न मुद्राओं में आसन लगाने से सच्चा वैराग्य उत्पन्न नही होता। ऐसे ही तीर्थों में जाकर स्नान पूजा करना भी व्यर्थ है। इस संसार में गुरु के आदेशों पर चलने से अध्यात्म सधता है और आत्म तत्व की पहचान होती है।

दो बाल गीत

बाल दिवस विशेष 


1.
गुड्डा बहुत सयाना जी,
सीखा हुकुम चलाना जी।


पापा से बातें है करनी,
ऑफिस फोन लगाना जी।


टामी क्यों भौं-भौं करता है,
उसको दूर भगाना जी।


आंसू क्यों टप-टप टपकाते, 
छोड़ो रोना-धोना जी।


अच्छे गाते हो तुम चिंटू,
एक सुना दो गाना जी।


अब सोने दो रात हो गई,
ऊधम नहीं मचाना जी।


जाना है स्कूल सबेरे,
जल्दी मुझे जगाना जी।


2.
गोल  है चंदा सूरज गोल,
दीदी, क्या तारे भी गोल।


चूहा चूं-चूं चिड़िया चीं,
चींटी की क्या बोली बोल।


कोयल इतनी काली पर क्यों, 
कानों में रस देती घोल।


सात समंदर भरे पड़े पर,
पानी क्यों इतना अनमोल।


मां से भी पूछा था मैंने,
पर वे करतीं टालमटोल।


-महेन्द्र वर्मा

क्या आप बोलने की कला जानते हैं ?

प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक सुकरात के पास एक युवक भाषण कला सीखने के उद्देश्य से आया। सुकरात ने स्वीकृति तो दी किंतु दुगुने शुल्क की मांग की। युवक आश्चर्य से बोला-‘मैं तो पहले से ही बोलने का अभ्यस्त हूं, फिर भी आप मुझसे दूने शुल्क की मांग क्यों कर रहे हैं ?‘ तब सुकरात ने कहा-‘तुम्हें बोलना नहीं बल्कि चुप रहना सिखाने में मुझे दुगुना श्रम करना पड़ेगा।‘

युवक आया था बोलना सीखने लेकिन सुकरात ने उसे पहले चुप रहना सिखाना चाहा । वास्तव में वही अच्छा बोल सकता है जिसे चुप रहना भी आता हो । बोलने और चुप रहने के ताने-बाने में मनुष्य सदैव ही उलझता आया है। मनुष्य के जीवन में सुख और दुख के जो प्रमुख कारण हैं, उनमें वाणी भी एक है। वाणी अर्थात शब्दों के समूह के रूप में जो भी बोला जाता है वही सुख का भी कारण है और वही दुख का भी । संत कबीर कहते हैं-
 
एक शब्द सुखरास है, एक शब्द दुखरास।
 एक शब्द बंधन करै, एक शब्द गलफांस।।


वाणी के प्रभाव पर संतों ने गहनता से विचार किया था । उनके पदों में ऐसे विचारों का वर्णन हमें बहुत कुछ सिखाते हैं । संत दादूदयाल के शिष्य संत सुंदरदास ने भी वाणी के हितकर और अहितकर प्रभावों का निम्न पद में यथार्थ चित्रण किया है-

बचन ते दूर मिले, बचन ते बिरोध होइ,
बचन ते राग बढ़े, बचन ते द्वेष जू ।
बचन ते ज्वाल उठे, बचन ते शीतल होइ,
बचन ते मुदित होत, बचन ते रोष जू ।
बचन ते प्यारे लगे, बचन ते दूर भौ
बचन ते मुरझाए, बचन ते पोष जू ।
सुंदर कहत यह बचन को भेद ऐसो,
बचन ते बंध होत, बचन ते मोच्छ जू ।


उक्त पद में वाणी के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभावों का उल्लेख है ।अंतिम पंक्ति में तो वाणी को बंधन आर मोक्ष का कारण भी कहा गया है ।

चाणक्य ने भी जीभ अर्थात वाणी को उन्नति और विनाश का कारण मानते हुए लिखा है-
 
जिह्वा यतौ वृद्धि विनाशौ ।

वाणी की इस द्वैधी प्रकृति को संतों ने बड़ी गहनता से अनुभूत किया था इसलिए उन्होंने वाणी के संयमित उपयोग के प्रति लोगों को सदैव सचेत किया। नीति के अनुसार वही ग्राह्य और मान्य होता है जो कल्याणकारी होता है । हम क्या बोलें, किस से बोलें, कब बोलें, कैसे बोलें, इन समस्याओं का समाधान करते हुए संत कबीर ने एक पद में यह संदेश दिया है-
 
बोलन कासों बोलिए रे भाई, बोलत ही सब तत्व नसाई,
बोलत बोलत बाढ़ विकारा, सो बोलिए जो पड़े विचारा।
मिलहिं संत वचन दुइ कहिए, मिलहिं असंत मौन होय रहिए।
पंडित सों बोलिए हितकारी, मूरख सों रहिए झखमारी।
कहहिं कबीर अर्ध घट डोले, पूरा होय बिचार लै बोले ।


उक्त रमैनी में वाणी का दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक और नैतिक विश्लेषण जिस संपूर्णता से संत कबीर ने किया है वह अन्यत्र अलभ्य है । ‘सो बोलिए जो पड़े विचारा’ कहकर उन्होंने परावाणी की ओर संकेत किया है । परावाणी क्या है ? वाणी के चार प्रकारों में बैखरी वाणी का उद्गम कंठ से , मध्यमा का मन से, परावाणी का हृदय से और पश्यंती का आत्मा से होता है । पश्यंती का प्रयोग केवल योगी कर सकते हैं । शेष तीनो में हृदय की गहराइयों से उत्पन्न परावाणी ही श्रेष्ठ है । वाणी विचारों की अभिव्यक्ति है और विचार मन से उत्पन्न होते हैं । इन विचारों को हृदय की विवेक-तुला से तौल कर मुंह से बोलें तो यही परावाणी होगी। कबीर ने कहा है-

बोली तो अनमोल है, जो कोई बोले जान।
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आन।।

कन्फ्यूशियस ने भी कहा है-‘शब्दों को नाप तौल कर बोलो, जिससे तुम्हारी सज्जनता टपके।‘ परंतु विचारों को हृदय से तौलना कैसे संभव है ? इसका समाधान रमैनी की अंतिम पंक्ति में है- ‘कहहिं कबीर अर्ध घट डोले, पूरा होय बिचार ले बोले ।’ जिसका ज्ञानघट जितना ही अधिक भरा होगा उसका विचार उतनाही अधिक संतुलित और गहन होगा । अर्धघट से तो सदा विचारों का उथलापन ही छलकेगा ।

वाणी का अत्यधिक उपयोग प्रायः विकार उत्पन्न करता है, ‘बोलत बोलत बाढ़ विकारा’। इसलिए संयमित वाणी को विद्वानों ने अधिक महत्व दिया है। ऋषि नैषध कहते हैं-
‘मितं च सार वचो हि वाग्मिता‘

अर्थात, थोड़ा और सारयुक्त बोलना ही पाण्डित्य है। जैन और बौद्ध धर्मों में वाक्संयम का महत्वपूर्ण स्थान है।
कहावत भी है, ‘बात बात में बात बढ़ै‘, इसी संदर्भ में तुलसीदास जी की यह व्यंग्योक्ति बहुत बड़ी सीख देती है-
 
पेट न फूलत बिनु कहे, कहत न लागत देर।
सुमति विचारे बोलिए, समझि कुफेर सुफेर।। 


भारतीय दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति ने कहा है-‘कम बोलो, तब बोलो जब यह विश्वास हो जाए कि जो बोलने जा रहे हो उससे सत्य, न्याय और नम्रता  का व्यतिक्रम न होगा।‘ क्योंकि धनुष से छूटा तीर और मुंह से निकली बात कभी वापस नहीं हो सकते इसलिए बोलते समय सतर्क रहना चाहिए। कोई बात जब तक  मुंह से नहीं निकली है तब तक वह हमारे वश में है किंतु जैसे ही वह हमारे मुंह से निकली हम उसके वश में हो जाते हैं । कबीर साहब के अनुसार-

शब्द संभारे बोलिए, शब्द के हाथ न पांव,
एक शब्द औषध करे, एक शब्द करे घाव।



वाणी प्रसूत दुखों के निराकरण के लिए संतों ने ‘तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुं ओर’’ के अनुसार मधुर वाणी का समर्थन किया है किंतु अनेक महापुरुषों ने ‘मिलहिं असंत मौन होय रहिए’ कहकर मौन को महत्व दिया है ।फ्रांसीसी लेखक कार्लाइल ने कहा है कि मौन में शब्दों की अपेक्षा अधिक वाक्शक्ति है। गांधीजी ने भी मौन को सर्वोत्तम भाषण कहा है। सुकरात कहा करते थे-‘ईश्वर ने हमें दो कान दिए हैं और मुंह एक, इसलिए कि हम सुनें अधिक और बोलें कम।‘

किंतु व्यावहारिक जीवन में सदा मौन रहना संभव नहीं है इसलिए संत कबीर ने बोलते समय मध्यम मार्ग अपनाने का सुझाव दिया है-
 
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।


-महेन्द्र वर्मा

क्या जीवन भी है सतरंगी



झरने की बूंदों पर घुलती, किरणें देखा करते हैं,
क्या जीवन भी है सतरंगी, अक्सर सोचा करते हैं।


कभी कभी ग़म अनुवादित हो ढल जाते हैं आंसू में,
मोती बनकर जो पलकों से, टप टप टपका करते हैं।


मित्र बहुत हैं अपनेपन से, गले लगाने वाले भी,
इनमें से कुछ लोग बगल में, छुरी छुपाया करते हैं।


बादल की करतूतें देखो, हद है दीवानेपन की,
जहां समंदर वहीं गरजकर, अक्सर बरसा करते हैं।


मंदिर मस्जिद बनवा देंगे इनकी कमी नहीं पर ये,
भूखे-बेबस-लाचारों को, देख किनारा करते हैं।


तेरा मालिक तुझ में ही है, दिल में झांक जरा देखो,
नादां हैं वो जो  ऊपर की, ओर निहारा करते हैं।


तरुवर नदिया पंछी तितली, धूप हवा की सीखों से,
लोग समझ जाएंगे इक दिन, ऐसी आशा करते हैं।

                    - महेन्द्र वर्मा

स्वामी रामानंद




रामभक्ति के आचार्य स्वामी रामानंद का जन्म विक्रम संवत 1356 में हुआ।
इनके पिता का नाम पुण्यसदन तथा माता का नाम सुशीला देवी था। रामानंद ने स्वामी राघवानंद से दीक्षा ली। गुरु से उन्हें विशिष्टाद्वैत के सिद्धांतों के साथ साथ समस्त शास्त्रों और तत्वज्ञान की भी शिक्षा मिली। रामानंद स्वामी का केन्द्रीय मठ वाराणसी में पंचगंगा घाट पर आज भी विद्यमान है। उन्होंने भारत के विभिन्न तीर्थों की यात्रा करके शास्त्रार्थ में विपक्षियों को परास्त किया और अपने मत का प्रचार किया। उनके प्रयत्न से ही देश भर में राम नाम की महिमा फैली। उन्होंने भक्ति आंदोलन में उत्तर और दक्षिण को जोड़ने के लिए एक पुल का काम किया। 
तीर्थयात्रा से लौटने के पश्चात गुरुभाइयों से मतभेद के कारण गुरु राघवानंद ने उन्हें नया सम्प्रदाय चलाने का परामर्श दिया। इस प्रकार रामानंद सम्प्रदाय का आरंभ हुआ। इस सम्प्रदाय का नाम श्री सम्प्रदाय या बैरागी सम्प्रदाय भी है। रामानंद ने उदार भक्ति का मार्ग दिखाया। उनके यहां भक्ति के द्वार सबके लिए खुले थे। कर्मकांड का महत्व इनके यहां बहुत कम था। स्वामी रामानंद के शिष्यों में अनंतानंद, सुखानंद, कबीर, रैदास तथा पीपा जैसे संत भी सम्मिलित हैं। 
उनकी रचनाओं में कुछ संस्कृत की भी बताई जाती है। केवल दो का अभी तक हिंदी पदो ंके रूप में होना स्वीकार किया जाता है। इनमें से गुरुग्रंथ साहिब में केवल एक ही संग्रहीत है। प्रस्तुत है स्वामी रामानंद का एक पद-

कत जाइयो रे घर लागो रंगु,
मेरा चित न चलै मन भयो पंगु।
एक दिवस मन भयो उमंग,
घसि चोवा चंदन बहु सुगंध।
पूजन चाली ब्रह्म की ठाईं,
ब्रह्म बताइ गुरु मन ही माहिं।
जहं जाइए तहं जल पषान,
तू पूरि रहो है सब समान।
बेद पुरान सब देखे जोई,
उहां जाइ तउ इहां न होई।
सतगुरु मैं बलिहारी तोर।
रामानंद र्साइं रमत ब्रह्म,
गुरु सबद काटे कोटि करम।

भावार्थ-
कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है, परमतत्व की वास्तविक स्थिति का आनंद घर में ही प्राप्त हो गया। किंतु मेरा चित्त और मन नहीं मानता। एक दिन उमंग में चंदन आदि लगाकर पूजा के लिए मैं ईश्वर के स्थान पर गया किंतु गुरु ने बताया कि वह ब्रह्म तो मन में ही है। जल, थल सभी जगह वह परमतत्व समान रूप से उपस्थित है। सभी शास्त्रों को विचारपूर्वक देखने से ज्ञात हुआ कि वह तो यहीं, मन में है। हे सतगुरु, आपने मेरी सारी विकलता और भ्रम को दूर किया। ब्रह्म में रमण करने वाले गुरु के उपदेश से सारे कर्मों का विनाश हो जाता है।

अब दीवाली आई






जगमग हर घर-द्वार  कि अब दीवाली आई,
पुलकित  है  संसार  कि  अब  दीवाली आई।


दुनिया के  कोने-कोने  में  दीप  जले हैं, 
डरता है अंधियार कि अब दीवाली आई।


गीत प्यार के गीत मिलन के गीत ख़ुशी के, 
गाओ  मेरे   यार   कि  अब   दीवाली  आई।


जी भर जी लो गले लगालो सबको हंसकर,
जीवन के  दिन  चार  कि अब दीवाली आई।


दुनिया से  अब  द्वेष  मिटाकर ही दम लेंगे,
दिल में रहे बस प्यार कि अब दीवाली आई।


सुख समृद्धि स्वास्थ्य संपदा मिले सभी को,
यही  कामना   चार  कि   अब दीवाली आई।


धरती  सागर  जंगल सरिता गगन पवन पर,
हो सबका  अधिकार कि  अब  दीवाली आई।


खुद  भी  जियो   और   दूसरों को जीने दो,
जीवन  का यह सार कि अब  दीवाली  आई।


मेहनत से धन खूब कमाओ भ्रष्ट बनो मत,
लक्ष्मी  कहे  पुकार   कि  अब  दीवाली आई।


जीवन के इस महा समर में दुआ करें हम,
हो न किसी की हार कि अब दीवाली आई।


अक्षत  रोली  और  मिठाई  ले  आया  हूं,
स्वीकारो  उपहार  कि अब दीवाली  आई।

दीपावली की अशेष शुभकामनाओं के साथ...

                                       -महेन्द्र वर्मा

संत सुंदरदास

सावधान क्यूं न होई



संत सुंदरदास, संत दादू दयाल के योग्यतम शिष्यों में से एक थे। इनका जन्म जयपुर राज्य की प्राचीन राजधानी दौसा नगर में विक्रम संवत 1653 की चैत्र सुदी 9 को हुआ था। इनके जन्म स्थान का खंडहर आज भी विद्यमान है। इनके पिता का नाम परमानंद तथा माता का नाम सती था। दादू जी की संवत 1658 में दौसा यात्रा के दौरान इनके पिता ने इन्हें दादू जी के चरणों में डाल दिया था। तभी से ये निरंतर दादू जी के सान्निध्य में रहते थे। दादू जी ने सुंदरदास को विद्योपार्जन के लिए काशी भेजा जहां 14 वर्षों तक इन्होंने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। अनेक वर्षों तक योगाभ्यास भी किया। आपने संपूर्ण भारत का भ्रमण करते हुए काव्य सृजन किया। 
संत सुंदरदास ने कुल 42 ग्रंथों की रचना की जिनका संग्रह सुंदर ग्रंथावली के नाम से प्रकाशित हो चुका है। इनके दो बड़े ग्रंथ ज्ञान समुद्र और सुंदर विलास हैं। जिनमें से प्रथम में मुख्यतया नवधाभक्ति, अष्टांग योग, सांख्य और अद्वैत मत का पांडित्यपूर्ण विवेचन है तथा द्वितीय में 563 छदों द्वारा अन्य विषयों का प्रतिपादन हुआ है। दार्शनिक विषयों का समावेश होते हुए भी इनके ग्रंथों में भाषा एकाधिकार एवं काव्य कौशल के कारण सहज रोचकता है। इनका देहावसान विक्रम संत 1746 में सांगानेर में हुआ।
प्रस्तुत है संत सुंदरदास जी की एक रचना-

बार बार कह्यो तोहि, सावधान क्यूं न होइ,
ममता की मोट काहे, सिर को धरतु है।
मेरो धन मेरो धाम, मेरो सुत मेरी बाम,
मेरे पसु मेरे गाम, भूल्यो ही फिरतु है।
तू तो भयो बावरो, बिकाइ गई बुद्धि तेरी,
ऐसो अंधकूप गेह, तामे तू परतु है।
सुंदर कहत तोहि, नेकहु न आवे लाज,
काज को बिगार कै, अकाज क्यों करतु है।

भावार्थ-तुझे बार-बार समझाया गया किंतु तू सावधान क्यों नहीं होता। मोह-माया का बोझ अपने सिर पर ढो रहा है। मेरा धन, मेरा महल, मेरा पुत्र, मेरी पत्नी, मेरे पशु, मेरा गांव कहते हुए भ्रम में पड़ा हुआ है। तू बावला हो गया है, तेरी बुद्धि नष्ट हो चुकी है जो इस प्रकार संसार रूपी अंधेरे कुंए में गिर गया है। मोह-माया के बंधन को त्याग, इस कार्य को बिगाड़ कर अकार्य क्यों कर रहा है ?