उतना ही सबको मिलना है



ग़ज़ल

उतना ही सबको मिलना है,
जिसके हिस्से में जितना है।


क्यूं ईमान सजा कर रक्खा,
उसको तो यूं ही लुटना है।


ढोते रहें सलीबें अपनी, 
जिनको सूली पर चढ़ना है।


मुड़ कर नहीं देखता कोई, 
व्यर्थ किसी से कुछ कहना है।


जंग आज की जीत चुका हूं,
कल जीवन से फिर लड़ना है।


सूरज हूं जलता रहता हूं,
दुनिया को ज़िंदा रखना है।


बोल सभी लेते हैं लेकिन,
किसने सीखा चुप रहना है।

                                              -महेन्द्र वर्मा


गीतिका





एक दिया तो जल जाने दे,
सूरज को कुछ सुस्ताने दे।


पलट रहा क्यूं आईने को,
जो सच है वो दिखलाने दे।


एक सिरा तो थामो तुम भी,
उलझा है जो सुलझाने दे।


चिंगारी रख ऐसी दिल में,
अंगारों को शरमाने दे।


कैद न कर पंछी पिंजरे में,
उसे मुक्ति का सुर गाने दे।


यादें, इतनी जल्दी न जा,
आंखों को तो भर जाने दे।


बादल हूं बरसूंगा, पहले
परवत से तो टकराने दे।

                                           -महेन्द्र वर्मा


गीत मैं गाने लगा हूं




गीत मैं गाने लगा हूं,
स्वप्न फिर बुनने लगा हूं।


तमस से मैं जूझता था,
कुछ न मन को सूझता था,
हृदय के सूने गगन में,
सूर्य सा जलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।


आंसुओं के साथ जीते,
वर्ष कितने आज बीते,
भूल कर सारी व्यथाएं,
स्वयं को छलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।


भावनाओं ने उकेरे,
चित्र सुधियों के घनेरे,
कंटकों के बीच सुरभित-
सुमन सा खिलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।

                                              -महेन्द्र वर्मा