गीतिका



रात ने जब-जब किया श्रृंगार है,
चांद माथे पर सजा हर बार है।


ओस, जैसे अश्रु की बूंदें झरीं,
चांदनी रोती रही सौ बार है।


नीलिमा लिपटी सुबह आकाश से,
क्षितिज का मुंह लाज से रतनार है।


खिलखिलाकर खिल उठी है कुमुदिनी,
किरण ने उस पर लुटाया प्यार है।


ढीठ बादल देख इतराता हुआ,
सूर्य का चेहरा हुआ अंगार है।


दिवस के मन में उदासी छा गई,
सांझ उसका छूटता घर-बार है।


हैं यही सब रंग जीवन में मनुज के,
लोग कहते हैं यही संसार है।

                                                       -महेन्द्र वर्मा