दोहे : गूँजे तार सितार


कभी सुनाती लोरियाँ, कभी मचातीं शोर,
जीवन सागर साधता, इन लहरों का जोर।


कटुक वचन अरु क्रोध में, चोली दामन संग,
एक बढ़े दूसर बढ़े, दोनों का इक रंग।


साथ न दे जो कष्ट में, दुश्मन उसकों जान,
दूरी उससे उचित है, मन में लो यह ठान।


 द्वेषी मानुष आपनो, कहे न मन की बात,
केवल पर के हृदय में, पहुँचाए आघात।


ज्यों मिजरब की चोट से, गूँजे तार सितार,
तैसे नेहाघात से, हृदय ध्वनित सुविचार।


जो मनुष्य कर ना सके, नारी का सम्मान,
दया क्षमा अरु नेह का, नहीं पात्र वह जान।


मान प्रतिष्ठा के लिए, धन आवश्यक नाहिं,
सद्गुण ही पर्याप्त है, गुनिजन कहि-कहि जाहिं।


                                                                            -महेंद्र वर्मा