जहाँ प्रेम सत्कार हो

युवा-शक्ति मिल कर करे, यदि कोई भी काम,
मिले सफलता हर कदम, निश्चित है परिणाम।

जिज्ञासा का उदय ही, ज्ञान प्राप्ति का स्रोत,
इसके बिन जो भी करे, ज्ञानार्जन न होत।

अहंकार जो पालता, पतन सुनिश्चित होय,
बीज प्रेम अरु नेह का, निरहंकारी बोय।

जिह्वा के आघात में, असि से अधिक प्रभाव,
रह-रह कर है टीसता, अंतर्मन का घाव।

जीवन-मरण अबूझ है, परम्परा चिरकाल,
पुनर्जन्म पुनिमृत्यु की, कहे कहानी काल।

जैसे दीमक ग्रंथ को, कुतर-कुतर खा जाय,
तैसे चिंता मनुज को, धीरे-धीरे खाय।

जहाँ प्रेम सत्कार हो, वही सही घर-द्वार,
जहाँ द्वेष-अभिमान हो, वह कैसा परिवार।

                                                                                            
                                                                                -महेन्द्र वर्मा



मौन का सहरा हुआ हूँ


आग से गुज़रा हुआ हूँ,
और भी निखरा हुआ हूँ।

उम्र भर के अनुभवों के,
बोझ से दुहरा हुआ हूँ।

देख लो तस्वीर मेरी,
वक़्त ज्यों ठहरा हुआ हूँ।

बेबसी बाहर न झाँके,
लाज का पहरा हुआ हूँ।

आज बचपन के अधूरे, 

ख़्वाब-सा बिखरा हुआ हूँ

घुल रहा हूँ मैं किसी की
आँख का कजरा हुआ हूँ।

रेत सी यादें बिछी हैं,
मौन का सहरा हुआ हूँ।
                                      -महेन्द्र वर्मा

दोहे



बाहर के सौंदर्य को , जानो बिल्कुल व्यर्थ,
जो अंतर्सौंदर्य है, उसका ही कुछ अर्थ।

समय नष्ट मत कीजिए, गुण शंसा निकृष्ट,
जीवन में अपनाइए, जो गुण सर्वोत्कृष्ट।

चक्की जैसी आदतें, अपनाते कुछ लोग,
हरदम पीसें और को, शोर करें खुद रोग।

इतना डरते मौत से, कुछ की ये तकदीर,
जीने की शुरुआत भी, कर ना पाते भीर।

कार्य सिद्ध हो कर्म से, है यह बात अनूप,
होनहार ही होत है, आलस का ही रूप।

क्रोध लोभ या मोह को, सदा मानिए रोग,
शत्रु भयानक तीन हैं, कभी न कीजे योग।

जुगनू जैसी ख्याति है, चमके केवल दूर,
जरा निकट से देखिए, गर्मी है ना नूर।

                                                                                 
                                                                 -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल: पलकों के लिए



आँख में तिरती रही उम्मीद सपनों के लिए,
गीत कोई गुनगुनाओ आज पलकों के लिए।

आसमाँ तू देख रिश्तों में फफूँदी लग गई,
धूप के टुकड़े कहीं से भेज अपनों के लिए।

है बहुत मुश्किल कि गिरकर गीत भी गाए कोई,
है मगर आसान कितना देख झरनों के लिए।

ना ज़मीं है ना हवा है और ना तितली कहीं,
आसमाँ भी गुम हुआ है आज शहरों के लिए।

बाँध कर रखिए सभी रिश्ते वगरना यूँ न हो,
छूट जाते साथ हैं कई बार बरसों के लिए।

आम की अमिया कुतरने शाम का सूरज रुका,
बँध गए कोयल युगल हैं सात जनमों के लिए।

है नहीं आसाँ गजल कहना कि मेरे यार सुन,
रूठ जाते हर्फ़ हैं कुछ  ख़ास मिसरों के लिए।

                                                                                     -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल



अंधकार को डरा रौशनी तलाश कर,
‘मावसों की रात में चांदनी तलाश कर।

बियाबान चीखती खामोशियों का ढेर है,
जल जहां-जहां मिले जि़ंदगी तलाश कर।

डगर-डगर घूमती सींगदार साजिशें,
जा अगर कहीं मिले आदमी तलाश कर।

जानते रहे जिसे साथ न दिया कोई,
दोस्ती के वास्ते अजनबी तलाश कर।

बाग है धुआं-धुआं खेत-खेत कालिखें
सुब्ह शबनमी फिजां में ताजगी तलाश कर।

वर्जना की बेडि़यां हत परों की ख्वाहिशें,
आंख में घुली हुई बेबसी तलाश कर।

हर तरफ उदास-से चेहरों की भीड़ है,
मन किवाड़ खोल दे हर खुशी तलाश कर।

                                                                        
                                                                        -महेन्द्र वर्मा

नवगीत



पल-पल छिन-छिन बीत रहा है,
जीवन से कुछ रीत रहा है।

                    सहमे-सहमे से सपने हैं,
                    आशा के अपरूप,
                    वक्र क्षितिज से सूरज झाँके,
                    धुँधली-धुँधली धूप।

तरस न खाओ मेरे हाल पर,
मेरा भव्य अतीत रहा है।
पल-पल छिन-छिन बीत रहा है,
जीवन से कुछ रीत रहा है।


                    छला गया मीठी बातों से,
                    नाजुक मन भयभीत।
                    मिले सभी को अंतरिक्ष से,
                    जीवन का संगीत।

अब तक कानों में जो गूँजा,
कोई काँपता गीत रहा है।
पल-पल छिन-छिन बीत रहा है,
जीवन से कुछ रीत रहा है।

                                                

                                                   -महेन्द्र वर्मा







फागुनी दोहे



फागुन आता देखकर, उपवन हुआ निहाल,
अपने तन पर लेपता, केसर और गुलाल।

तन हो गया पलाश-सा, मन महुए का फूल,
फिर फगवा की धूम है, फिर रंगों की धूल।

मादक महुआ मंजरी, महका मंद समीर,
भँवरे झूमे फूल पर, मन हो गया अधीर।

ढोल मंजीरे बज रहे, उड़े अबीर गुलाल,
रंगों ने ऊधम किया, बहकी सबकी चाल।

कोयल कूके कान्हड़ा, भँवरे भैरव राग,
गली-गली में गूँजता, एक ताल में फाग।

नैनों की पिचकारियाँ, भावों के हैं रंग,
नटखट फागुन कर रहा, अंतरमन को तंग।

रंगों की बारिश हुई, आँधी चली गुलाल,
मन भर होली खेलिए, मन न रहे मलाल।

उजली-उजली रात में, किसने गाया फाग,
चाँद छुपाता फिर रहा, अपने तन के दाग।

नेह-आस-विश्वास से, हुए कलुष सब दूर,
भीगे तन-मन-आत्मा, होली का दस्तूर।
                                                                      

सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनाएं ! 


                                                                   -महेन्द्र वर्मा