दुख का हो संहार




उद्यम-साहस-धीरता, बुद्धि-शक्ति-पुरुषार्थ,
ये षट्गुण व्याख्या करें, मानव के निहितार्थ।

जब स्वभाव से भ्रष्ट हो, मनुज करे व्यवहार,
उसे अमंगल ही मिले, जीवन में सौ बार।

जो अपने को मान ले, ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ,
प्रायः कहलाता वही, मूर्खों में भी ज्येष्ठ।

विनम्रता के बीज से, नेहांकुर उत्पन्न,
सद्गुण शाखा फैलती, प्रेम-पुष्प संपन्न।

वाणी पर संयम सही, मन पर हो अधिकार,
जीवन में सुख-शांति हो, दुख का हो संहार।

                                                                            -महेन्द्र वर्मा

ज्ञान हो गया फकीर

नैतिकता कुंद हुई
न्याय हुए भोथरे,
घूम रहे जीवन के
पहिए रामासरे।

भ्रष्टों के हाथों में
राजयोग की लकीर,
बुद्धि भीख माँग रही
ज्ञान हो गया फकीर।

घूम रहे बंदर हैं
हाथ लिए उस्तरे।

धुँधला-सा दिखता है
आशा का नव विहान,
क्षितिज पार तकते हैं
पथराए-से किसान।

सोना उपजाते हैं
लूट रहे दूसरे।
                                                                -महेन्द्र वर्मा

इस वर्ष दो भाद्रपद क्यों ? --- तेरह महीने का वर्ष



                   अभी भादों का महीना चल रहा है। इसके समाप्त होने के बाद इस वर्ष कुंवार का महीना नहीं आएगा बल्कि भादों का महीना दुहराया जाएगा। दो भादों होने के कारण वर्तमान वर्ष अर्थात विक्रम संवत् 2069 तेरह महीनों का है। इस अतिरिक्त तेरहवें मास को अधिक मास, अधिमास, लौंद मास, मलमास या पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं।
                   अधिमास होने की घटना दुर्लभ नहीं है, प्रत्येक 32-33 महीनों के पश्चात एक अधिमास का होना अनिवार्य है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विश्व की किसी अन्य कैलेण्डर पद्धति में 13 महीने का वर्ष नहीं होता। हिन्दू कैलेण्डर में किसी वर्ष 13 महीने निर्धारित किए जाने की परंपरा खगोलीय घटनाओं के प्रति विज्ञानसम्मत दृष्टिकोण तथा गणितीय गणना पर आधारित है।
                     अधिमास का सबसे प्राचीन उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है, जिसका रचनाकाल 2500 ई. पूर्व माना जाता है। ऋग्वेद (1.25.8) में तेरहवें मास का वर्णन इस प्रकार आया है-‘‘जो व्रतालंबन कर अपने-अपने फलोत्पादक बारह महीनों को जानते हैं और उत्पन्न होने वाले तेरहवें मास को भी जानते हैं...।‘‘ वाजसनेयी संहिता (22.30) में इसे मलिम्लुच्च तथा संसर्प कहा गया है किंतु (22.31) में इसके लिए अंहसस्पति शब्द का प्रयोग हुआ है।
                      तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.1) में तेरहवें महीने का नाम महस्वान दिया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण (3.1) में अधिमास का वर्णन इस प्रकार है - ‘‘...उन्होंने उस सोम को तेरहवें मास से मोल लिया था इसलिए निंद्य है...।‘‘ नारद संहिता में अधिमास को संसर्प कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि किसी वर्ष में तेरहवें मास को सम्मिलित किए जाने की परंपरा वैदिक युग या उसके पूर्व से ही चली आ रही है।
                       अधिक मास होने का सारा रहस्य चांद्रमास और सौरमास  के कालमान में तालमेल स्थापित किए जाने में निहित है। पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा या अमावस्या से अगली अमावस्या तक के समय को चांद्रमास कहते हैं। सूर्य एक राशि (रविमार्ग का बारहवां भाग यानी 30 अंश की परिधि) पर जितने समय तक रहता है वह सौरमास कहलाता है। 12 चांद्रमासों के वर्ष को चांद्रवर्ष और 12 सौर मासों के वर्ष को सौरवर्ष कहते हैं। इन दोनों वर्षमानों की अवधि समान नहीं है। एक सौरवर्ष की अवधि लगभग 365 दिन 6 घंटे होती है जबकि एक चांद्रवर्ष की अवधि लगभग 354 दिन 9 घंटे होती है। अर्थात चांद्रवर्ष सौरवर्ष से लगभग 11 दिन छोटा होता है। यह अंतर 32-33 महीनों में एक चांद्रमास के बराबर हो जाता है। इस अतिरिक्त तेरहवें चांद्रमास को ही अधिमास के रूप में जोड़कर चांद्रवर्ष और सौरवर्ष में तालमेल स्थापित किया जाता है ताकि दोनों लगभग साथ-साथ चलें।
                       अब यह स्पष्ट करना है कि किसी चांद्रवर्ष के किस मास को अधिमास निश्चित किया जाए। इसके निर्धारण के लिए प्राचीन हिन्दू खगोल शास्त्रियों ने कुछ गणितीय और वैज्ञानिक आधार निश्चित किए हैं तथा चांद्रमास को सुपरिभाषित किया है। इसे समझने के लिए कुछ प्रारंभिक तथ्यों को ध्यान में रखना होगा -
1.    चांद्रमासों का नामकरण दो प्रकार से प्रचलित है। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक की अवधि पूर्णिमांत मास और अमावस्या से अमावस्या तक की अवधि को अमांत मास कहते हैं। अधिमास निर्धारित करने के लिए केवल अमांत मास पर ही विचार किया जाता है।
2.    सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण को संक्रांति कहते हैं।
3.    सभी 12 सौरमासों की अवधि बराबर नहीं होती। सौरमास का अधिकतम कालमान सौर आषाढ़ में 31 दिन, 10 घंटे, 53 मिनट और न्यूनतम मान पौष मास में 29 दिन, 10 घंटे, 40 मिनट का होता है। जबकि चांद्रमास का अधिकतम मान 29 दिन, 19 घंटे, 36 मिनट और न्यूनतम मान 29 दिन, 5 घंटे, 54 मिनट है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अधिमास को निम्न दो प्रकार से परिभाषित किया गया है -
क.    जब किसी चांद्रमास में सूर्य की संक्रांति नहीं होती तो वह मास अधिमास होता है।
ख.    जब किसी सौरमास में दो अमावस्याएं घटित हों तब दो अमावस्याओं से प्रारंभ होने वाले चांद्रमासों का एक ही नाम होगा। इनमें से पहले मास को अधिमास और दूसरे को निज या शुद्ध मास कहा जाता है।
                  इस वर्ष होने वाले दो भादों को उदाहरण के रूप में लें -
सूर्य की सिंह संक्रांति 16 अगस्त को और कन्या संक्रांति 16 सितम्बर को(शाम 5:52 बजे से) है। इन तारीखों के मध्य 18 अगस्त से 16 सितम्बर (प्रातः 7:40 बजे) तक की अवधि के चांद्रमास में सूर्य की कोई संक्रांति नहीं है। इसलिए यह चांद्रमास अधिमास होगा।
                    पुनः, सूर्य की सिंह राशि में रहने की अवधि ( 16 अगस्त से 16 सितम्बर, शाम 5:52 बजे तक) के मध्य दो अमावस्याएं, क्रमशः 17 अगस्त और 16 सितम्बर (प्रातः 7:40 बजे) को घटित हो रही हैं। अतः इन अमावस्याओं को समाप्त होने वाले दोनों चांद्रमासों का नाम भादों होगा। इनमें से एक को प्रथम भाद्रपद तथा दूसरे को द्वितीय भादपद्र कहा जाएगा।
                     हिन्दू काल गणना पद्धति में अधिमास की व्यवस्था प्राचीन हिन्दू खगोल शास्त्रियों के ज्ञान की श्रेष्ठता को सिद्ध करता है। इस संबंध में प्रसिद्ध गणितज्ञ डाॅ. गोरख प्रसाद ने लिखा है -‘‘ कई बातें, जो अन्य देशों में मनमानी रीति से तय कर ली गई थीं, भारत में वैज्ञानिक सिद्धांतों पर निर्धारित की गई थीं। पंचांग वैज्ञानिक ढंग से बनता था जिसकी तुलना में यूरोपीय पंचांग भी अशिष्ट जान पड़ता है।‘‘

  • (मेरे एक शोध-पत्र का सारांश)

                                                                                                                                     -महेन्द्र वर्मा


आत्मा का आहार


दुनिया कैसी हो गई, छोड़ें भी यह जाप,
सब अच्छा हो जायगा,खुद को बदलें आप।

दोष नहीं गुण भी जरा, औरों की पहचान,
अपनी गलती खोजिए, फिर पाएं सम्मान।

धन से यदि सम्पन्न हो, पर गुण से कंगाल,
इनका संग न कीजिए, त्याग करें तत्काल।

कवच नम्रता का पहन, को कर सके बिगार,
रुई कभी कटती नहीं, वार करे तलवार।

सद्ग्रंथों को जानिए, आत्मा का आहार,
मन के दोषों का करे, बिन औषध परिहार।

जो करता अन्याय है, वह करता अपराध,
पर सहना अन्याय का, वह अपराध अगाध।
                                                                        -महेन्द्र वर्मा

सोचिए ज़रा



कितनी लिखी गई किताब सोचिए ज़रा,
क्या मिल गए सभी जवाब सोचिए ज़रा।

काँटों बग़ैर ज़िंदगी कितनी अजीब हो,
अब खिलखिला रहे गुलाब सोचिए ज़रा।

ज़र्रा है तू अहम विराट कायनात का,
भीतर उबाल आफ़ताब सोचिए ज़रा।

चले उकेर के हथेलियों पे हम लकीर,
तकदीर माँगता हिसाब सोचिए ज़रा।
 

दरपन दिखा रहा तमाम शक्ल इसलिए,
उसने पहन रखा नक़ाब सोचिए ज़रा


                                                    -महेन्द्र वर्मा

आगत की चिंता नहीं



धनमद-कुलमद-ज्ञानमद, दुनिया में मद तीन,
अहंकारियों से मगर, मति लेते हैं छीन।

गुणी-विवेकी-शीलमय, पाते सबसे मान,
मूर्ख किंतु करते सदा, उनका ही अपमान।

जला हुआ जंगल पुनः, हरा-भरा हो जाय,
कटुक वचन का घाव पर, भरे न कोटि उपाय।

चिंतन और विमर्श में, गुणीजनों का नाम,
व्यर्थ कलह करना मगर, मूर्खों का है काम।

मूर्ख-अहंकारी-पतित, क्रोधी अरु मतिहीन,
इनका संग न कीजिए, कहते लोग कुलीन।

जो जैसा भोजन करे, वैसा ही मन जान,
गुण उसके अनुरूप हो, वैसी हो संतान।

आगत की चिंता नहीं, गत का करें न शोक,
वर्तमान सुध लीजिए, सुख पाएं इहलोक।


                                                                                        -महेन्द्र वर्मा

उम्र भर



जख़्म सीने में पलेगा उम्र भर,
गीत बन-बन कर झरेगा उम्र भर।

घर का हर कोना हुआ है अजनबी,
आदमी ख़ुद से डरेगा उम्र भर।

जो अंधेरे को लगा लेते गले,
नूर उनको क्या दिखेगा उम्रं भर।

दिल के किस कोने में जाने कब उगा,
ख़्वाब है मुझको छलेगा उम्र भर।

कर रहा कुछ और कहता और है,
वो मुखौटा ही रखेगा उम्र भर।

छल किया मैंने मगर नेकी समझ,
याद वो मुझको करेगा उम्र भर।

वक़्त की परवाह जिसने की नहीं,
हाथ वो मलता रहेगा उम्र भर।

                                                                     -महेन्द्र वर्मा

शुक्र का पारगमन- एक दुर्लभ घटना



                                   ‘भोर का तारा‘ या ‘सांध्य तारा‘ के रूप में सदियों से परिचित शुक्र ग्रह अर्थात ‘सुकवा‘ 6 जून, 2012 को एक विचित्र हरकत करने जा रहा है। आम तौर पर पूर्वी या पश्चिमी आकाश में दिखाई देने वाला यह ग्रह 6 जून को मध्य आकाश में दिखाई देगा, वह भी दिन में ! अन्य दिनों में हम शुक्र के सूर्य से प्रकाशित भाग को चमकता हुआ देखते हैं लेकिन उस दिन शुक्र का अंधेरा भाग हमारी ओर होगा, फिर भी उसे हम ‘देख‘ सकेंगे। जब सूर्य शुक्र के सामने से गुजरेगा तो शुक्र हमें सूर्य पर छोटे-से काले वृत्त के रूप में दिखाई देगा। एक अद्भुत दृश्य होगा वह-जैसे सूरज के चेहरे पर काजल का सरकता हुआ टीका।

                                         खगोल शास्त्र की शब्दावली में इस घटना को ‘शुक्र का पारगमन‘ कहते हैं। दुर्लभ कही जाने वाली यह घटना सौरमंडल के करोड़ों वर्षों के इतिहास में लाखों बार घट चुकी है लेकिन मनुष्य जाति इसे केवल छह बार ही देख पाई है। हम सौभाग्यशाली हैं कि इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे और अंतिम शुक्र पारगमन को देख सकेंगे। बीसवीं सदी में ऐसा एक बार भी नहीं हुआ। दरअसल शुक्र पारगमन गण्तिीय गणना के अनुसार कभी 105 और कभी  121 वर्ष 6 माह बाद घटित होता है लेकिन आठ वर्षों के अंतराल में दो बार। पिछली बार इस घटना को 6 जून, 2004 को देखा गया ।

                                    शुक्र पारगमन के बारे में सबसे पहले जर्मन गणितज्ञ जोन्स केपलर ने बताया कि 1631 ई. में शुक्र ग्रह सूर्य के सामने से गुजरेगा और इसे पृथ्वी से देखा जा सकता है। किंतु इस घटना को न तो वह स्वयं देख सका न कोई और। पारगमन के एक वर्ष पूर्व 1630 ई. में केपलर का देहांत हो गया। इनकी गणितीय गणना में कुछ त्रुटि हो जाने के कारण वैज्ञानिक भी सही समय पर शुक्र-संक्रमण नहीं देख सके।
                                        
                                      आठ वर्ष बाद दुहराई जाने वाली इस घटना को लेकर अंग्रेज खगोल शास्त्री जेरेमिया होराक्स काफी उत्सुक था और पहले से सतर्क भी। उसने 4 दिसंबर 1639 को शुक्र पारगमन को लगभग 7 घंटे तक देखा। किसी मनुष्य द्वारा शुक्र पारगमन देखे जाने का यह पहला अवसर था। उसके बाद 6 जून 1761, 3 जून 1769, 9 दिसम्बर 1874, 6 दिसम्बर 1882 और 8 जून 2004 के शुक्र पारगमन को अनेक वैज्ञानिकों और खगोल प्रेमियों ने देखा।

                                       चूंकि शुक्र पारगमन एक दुर्लभ घटना है इसलिए दुनियादारी के सब काम छोड़कर खगोलशास्त्री किसी भी तरह उसे देखना चाहते हैं। इसी संदर्भ में एक रोचक और मार्मिक प्रसंग उल्लेखनीय है। सन् 1761 ई. का शुक्र पारगमन भारत में अच्छी तरह देखा जा सकता था। एक फ्रांसीसी खगोलशास्त्री जी. लेजेन्तिल इसे देखने के लिए पानी के जहाज से पांडिचेरी के लिए रवाना हुआ। जब वह पांडिचेरी पहुंचा तो ब्रिटिश सैनिकों ने उसे गिरफतार कर लिया क्योंकि उस समय ब्रिटेन और फ्रांस के बीच युद्ध जारी था। लेजेन्तिल शुक्र पारगमन नहीं देख सका। 1769 ई. के अगले पारगमन को देखने के लिए वह 8 वर्ष भारत में रहा। 3 जून 1769 ई. के दिन लेजेन्तिल को फिर निराश होना पड़ा। बादल छाए रहने के कारण उस दिन सूर्य दिखा ही नहीं। हताश लेजेन्तिल पेरिस के लिए रवाना हुआ। 1874 ई. का अगला पारगमन देखना अब उसके जीवन में संभव नहीं था। दुर्भाग्य ने अभी उसका पीछा नहीं छोड़ा था। रास्ते में दो बार उसका जहाज क्षतिग्रस्त हुआ। जब वह पेरिस पहुंचा तो उसके परिजन उसे मृत समझकर उसकी सम्पत्ति का बंटवारा करने में लगे थे।

                                   1761 ई. के शुक्र पारगमन का अवलोकन रूसी वैज्ञानिक मिखाइल लोमोनोसोव ने सूक्ष्मता से किया और पहली बार दुनिया को बताया कि शुक्र ग्रह पर वायुमंडल भी है। इस पारगमन को दुनिया के हजारों वैज्ञानिकों ने देखा लेकिन शुक्र पर वायुमंडल होने की जानकारी किसी को नहीं हुई। आश्चर्य की बात यह थी कि लोमोनोसोव ने इस घटना का अवलोकन किसी वेधशाला से नहीं बल्कि अपने कमरे की खिड़की से अपनी ही बनाई दूरबीन से किया था।

                                       शुक्र पारगमन की घटना ने वैज्ञानिकों को सदैव नई खोजों के लिए प्रेरित किया है। 200 साल पहले पृथ्वी से सूर्य की दूरी जानना वैज्ञानिकों के लिए एक समस्या थी। जेम्स ग्रेगोरी ने सुझाव दिया कि शुक्र पारगमन की घटना से पृथ्वी से सूर्य की दूरी का परिकलन किया जा सकता है। एडमंड हेली ने 1874 और 1882 में शुक्र पारगमन के समय प्रेक्षित आकड़ों से सूर्य की दूरी का परिकलन करने का प्रयास किया था। प्राप्त परिणाम बहुत हद तक सही था।

                                        शुक्र पारगमन हमारे लिए भले ही अद्भुत घटना हो लेकिन अंतरिक्ष के संदर्भ में यह एक सामान्य घटना है। यह लगभग वेसी ही घटना है जैसे सूर्यग्रहण। सूर्यग्रहण के समय सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा एक सीध में होते हैं और चन्द्रमा बीच में होता है। चन्द्रमा की ओट में हो जाने के कारण सूर्य का आंशिक या कभी-कभी पूरा भाग ढंक जाता है। शुक्र पारगमन के समय सूर्य, शुक्र और पृथ्वी एक सीध में होते हैं, शुक्र बीच में होता है। इस स्थिति में शुक्र अपने दृश्य आकार के बराबर का सूर्य का भाग ढंक लेता है। यद्यपि सूर्य की तुलना में शुक्र का दृश्य आकार 1500 गुना छोटा है- एक बड़े तरबूज के सामने मटर के दाने जैसा।

                                    6 जून 2012 को होने वाला शुक्र पारगमन भारत में पूर्वाह्न लगभग 5 बजकर 20 मिनट पर प्ररंभ होगा और लगभग 10 बजकर 20 मिनट पर समाप्त होगा। सूर्य की चकती पर शुक्र ग्रह छोटी सी काली बिंदी के रूप में एक चापकर्ण बनाते हुए गुजरेगा। यह नजारा लगभग 5 घंटे तक देखा जा सकेगा।
   
                                        शुक्र पारगमन हमें हर वर्ष दिखाई देता यदि शुक्र और पृथ्वी के परिक्रमा पथ एक ही सममतल पर होते किंतु ऐसा नहीं है। शुक्र और पृथ्वी के परिक्रमा पथों के मध्य 3 अंश का झुकाव है। यह झुकाव और शुक्र तथा पृथ्वी की गतियां शुक्र पारगमन को दुर्लभ बनाती हैं।
                                    
                                           6 जून को प्रकृति की इस अनोखी घटना को मानकीकृत फिल्टर से अवश्य देखें। शुक्र को जब आप सूर्य के सामने से गुजरता हुआ देखें तो शुक्र के साहस को सराहिए मत क्योंकि वह हमेशा की तरह सूर्य से लगभग 10 करोड़ कि.मी. दूर होगा। अंत में एक बात और, यदि 6 जून को दिन भर बादल छाए रहें तो इस  शताब्दी की तीन-चार पीढ़ी शुक्र पारगमन को नहीं देख पाएगी क्योंकि अगला शुक्र पारगमन सन् 2117 ई. में घटित होगा।

                                                                                                                                    -महेन्द्र वर्मा