अब न कहना

सबने उतना पाया जिसका हिस्सा जितना, क्या मालूम,
मेरे भीतर
कुछ  मेरा है या  सब उसका, क्या मालूम ।

कि़स्मत का आईना बेशक होता है बेहद नाज़ुक,
शायद यूँ सब करते हैं पत्थर का सिजदा क्या मालूम ।

जीवन के उलझे-से ताने-बाने बिखरे इधर-उधर,

एक लबादा बुन पाता मैं काश खुरदरा क्या मालूम ।

झूठ हमेशा कहने वाला बोला - मैं तो झूठा हूँ,
उसके कहने में सच कितना झूठा कितना क्या मालूम ।

दानिशमंदी की परिभाषा जाने किसने यूँ लिख दी,
साजि़श कर के अपना उल्लू सीधा करना, क्या मालूम ।

फ़सल उगा सब को जीवन दूँ, मुझ भूखे को मौत मिली,
कब देंगे वे देशभक्त का मुझको तमग़ा क्या मालूम ।

मैंने तो इंसान बना कर भेजा सब को धरती पर,
जाति-धर्म में किसने बाँटा, अब न कहना क्या मालूम ।
 

                                                                                -महेन्द्र वर्मा

ले जा गठरी बाँध

वक़्त घूम कर चला गया है मेरे चारों ओर,
बस उन क़दमों का नक़्शा है मेरे चारों ओर ।

सदियों का कोलाहल मन में गूँज रहा लेकिन,
कितना सन्नाटा पसरा है मेरे चारों ओर ।

तेरे पास अभाव अगर है ले जा गठरी बाँध,
नभ जल पावक मरुत धरा है मेरे चारों ओर ।

मंदिर मस्जिद क्यूँ भटकूँ जब मेरा तीरथ नेक,
शब्दों का सुरसदन बना है मेरे चारों ओर ।

रहा भीड़ से दूर हमेशा बस धड़कन थी पास,
रुकी तो सारा गाँव खड़ा है मेरे चारों ओर ।

                                             
  -महेन्द्र वर्मा

शीत - सात छवियाँ



धूप गरीबी झेलती, बढ़ा ताप का भाव,
ठिठुर रहा आकाश है,ढूँढ़े सूर्य अलाव ।

रात रो रही रात भर, अपनी आंखें मूँद,
पीर सहेजा फूल ने, बूँद-बूँद फिर बूँद ।

सूरज हमने क्या किया, क्यों करता परिहास,
धुआँ-धुआँ सी जि़ंदगी, धुंध-धुंध विश्वास ।

मानसून की मृत्यु से, पर्वत है हैरान,
दुखी घाटियाँ ओढ़तीं, श्वेत वसन परिधान ।

कितनी निठुरा हो गई, आज पूस की रात,
नींद राह तकती रही, सपनों की बारात ।

उम्र नहीं अब देखती, छोटी चादर माप,
मन को ऊर्जा दे रहा, जीवन का संताप ।

बुझी अँगीठी देखती, मुखिया बेपरवाह,
परिजन हुए विमूढ़-से, वाह करें या आह ।
                                                                  -महेन्द्र वर्मा