बेवजह







मुश्किलों को क्यों हवा दी बेवजह,
इल्म की क्यों बंदगी की बेवजह ।

हाथ   में   गहरी  लकीरें  दर्ज  थीं,
छल किया तक़़दीर ने ही बेवजह ।

सुबह ही थी शाम कैसे यक.ब.यक,
वक़्त  ने   की  दुश्मनी.सी बेवजह ।

वो  नहीं  पीछे   कभी  भी  देखता,
आपने  आवाज़  क्यों  दी बेवजह ।

धूप  थी, मैं  था  मगर साया न था,
देखता  हूँ  राह  किस की बेवजह ।


-महेन्द्र वर्मा

बातों का फ़लसफ़ा



 

ज़रा-ज़रा इंसाँ  होने से मन को सुकून मिलना तय है]
  अगर देवता बन बैठे तो हरदम दोष निकलना तय है ।

सूरज गिरा क्षितिज के नीचे   सुबह सबेरे फिर चमकेगा]
चलने वालों का ही गिरना उठना फिर से चलना तय है ।

जब अतीत की गहराई से   यादों का लावा-सा निकले]
मन में जमी भावनाओं का गलना और पिघलना तय है ।

जहाँ-जहाँ  ढूँढ़ोगे   उसको   अपना   ही   साया   देखोगे]
ख़ुद से अलग समझते हो तो इस यक़ीन में छलना तय है ।

बातों का है  यही फ़़लसफ़ा  रपटीली  होती हैं   अक्सर]
समझ गए तो सँभल गए पर चूके अगर फिसलना तय है ।


                    -महेन्द्र वर्मा