कुछ और

मेरा कहना था कुछ और,
उसने समझा था कुछ और ।

धुँधला-सा है शाम का  सफ़र,
सुबह उजाला था कुछ और ।

गाँव जला तो बरगद रोया,
उसका दुखड़ा था कुछ और ।

अजीब नीयत धूप की हुई,
साथ न साया, था कुछ और ।

जीवन-पोथी में लिखने को,
शेष रह गया था कुछ और ।

 

-महेन्द्र वर्मा

बरगद माँगे छाँव




सूरज सोया रात भर, सुबह गया वह जाग,
बस्ती-बस्ती घूमकर, घर-घर बाँटे आग।

भरी दुपहरी सूर्य ने, खेला ऐसा दाँव,
पानी प्यासा हो गया, बरगद माँगे छाँव।
 

सूरज बोला  सुन जरा, धरती मेरी बात,
मैं ना उगलूँ आग तो, ना होगी बरसात।

सूरज है मुखिया भला, वही कमाता रोज,
जल-थल-नभचर पालता, देता उनको ओज।

पेड़ बाँटते छाँव हैं, सूरज बाँटे धूप,
धूप-छाँव का खेल ही, जीवन का है रूप।

धरती-सूरज-आसमाँ, सब करते उपकार,
मानव तू बतला भला, क्यों करता अपकार।

जल-जल कर देता सदा, सबके मुँह में कौर,
बिन मेरे जल भी नहीं, मत जल मुझसे और।

                                                                               

  -महेन्द्र वर्मा

भवानी प्रसाद मिश्र, अनुपम मिश्र और बेमेतरा



स्व. भवानी प्रसाद मिश्र
................एक छोटा-सा किस्सा सुनाता हूँ,  आज के माता-पिता के लिए वो ज़रा चौंकाने वाला होगा । आज हम यह देखते हैं कि बच्चे कैसे अच्छे-से पढ़ें और पढ़-लिख कर कैसे अच्छी नौकरियों में चले जाएँ , कितना बड़ा उनको पैकेज मिले । पिताजी का दौर उस समय के माता-पिता जैसा रहा होगा लेकिन उनका विचार कुछ और था ।
 
हम लोग बम्बई में शायद तीसरी कक्षा में पढ़ते थे, साधारण स्कूल था, ठीक-ठाक । एक दिन हम लोग आए तो अचानक उन्होंने कहा - कल हम लोग सब बेमेतरा चलेंगे । बेमेतरा कहाँ है ये हमें मालूम था क्योंकि पिताजी के बड़े भाई बेमेतरा में एस.डी.एम. थे । अच्छा ही लगा, स्कूल से छुट्टी मिलेगी। जो दो-चार कपड़े थे और थोड़ा-सा सामान  बाँध-बूँध कर, माता-पिता  का हाथ पकड़ कर हम लोग रेलगाड़ी से बेमेतरा चले गए ।
 
वहाँ दो-तीन दिन रहे । अचानक एक दिन पता चला, माँ और मन्ना बम्बई लौट रहे हैं । हम और जीजी (नंदिता मिश्र) वहीं रुकेंगे, बेमेतरा में । तब तक हमको पता नहीं था । उन्होंने कहा कि एक दिन बड़े भैया यानी हमारे ताऊ जी ने बम्बई में एक पोस्टकार्ड लिखा पिताजी को कि मेरे सब बच्चे बड़े होकर हास्टल में चले गए हैं। घर बिल्कुल सूना हो गया है । पिताजी ने कहा कि ये दोनों तुम्हारे हैं, इनको मैं बम्बई से आपके पास भेज देता हूँ ।
बेमेतरा उस समय दस-पंद्रह हज़ार की आबादी वाला एक छोटा-सा कस्बा था । एक ही स्कूल था, पूरे कस्बे में । उन्होंने कहा कि बड़े पिताजी का सूनापन दूर हो जाना चाहिए इसलिए तुम लोग किलकारी मारो उनके घर में । बम्बई के स्कूल से हटाकर हमें एक गाँव के स्कूल में डाल दिया ।
 
जिसको कहते हैं ना, भविष्य देखना, ये सवाँरना वो सवाँरना , ये सब नहीं, उन्होंने कहा - बड़े भाई का मन सवाँरना । 

स्व. अनुपम मिश्र
एकाध दिन रोए होंगे लेकिन उसके बाद हमको बेमेतरा बहुत पसंद आया । हम बम्बई में जूता पहन कर स्कूल जाते थे, अच्छी तरह से चमका कर,, यही हमें सिखाया गया था । वहाँ हमने देखा, हमारे क्लास में किसी भी बच्चे के पैर में जूता-चप्पल नहीं था । उसके बाद हमने भी दूसरे दिन से स्कूल में जूता पहनना छोड़ दिया ।
 
कोई डेढ़ वर्ष वहाँ रहे । अब बड़े पिताजी को लगा होगा कि खूब किलकारी हो गई । तब तक पिताजी बम्बई से दिल्ली आ गए थे। फिर वैसे ही पीले पोस्टकार्ड का आदान-प्रदान हुआ होगा । तब बड़े पिताजी ने हम लोगों को कहा, चलो, तुम लोग अपना सामान बाँधो । कल तुम लोगों को दिल्ली  जाना है । तब हमने पहली बार रेल में फर्स्ट क्लास देखा। बड़े पिताजी के कोई मित्र एम.पी. थे, उनके साथ हम लोगों को रवाना कर दिया ।
ये घटना आप लोगों को इसलिए बताई कि पिता कैसा होता है और उसका व्यापक परिवार क्या होता है और उसको कितना भरोसा होता है कि केवल स्कूल की शिक्षा बच्चे के भविष्य को नहीं बनाती या बिगाड़ती उसके अलावा पचासों और चीज़ें होती हैं । तो, हम लोग जो बने हैं वो आप सब के कारण बने हैं, किसी स्कूल और शिक्षा के कारण नहीं............... ।
 

 -स्व. अनुपम मिश्र
  प्रसिद्ध गाँधीवादी विचारक और पर्यावरणविद्
 (‘सूत्रधार’ संस्था द् वारा  21 सितम्बर, 2013 को   इंदौर में  आयोजित  भवानी प्रसाद मिश्र जी  की    जन्मशती समारोह में संस्मरण सुनाते हुए )

  29 मार्च को स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती है, उन्हें सादर नमन ।









अपने हिस्से की बूँदें

तूफ़ाँ बनकर वक़्त उमड़ उठता है अक्सर,
खोना ही है जो कुछ भी मिलता है अक्सर ।

उसके माथे पर कुछ शिकनें-सी दिखती हैं,
मेरी  साँसों  का  हिसाब रखता है अक्सर ।

वक़्त ने गहरे हर्फ़ उकेरे जिस किताब पर,
उस के सफ़्हे वो छू कर पढ़ता है अक्सर ।

सहरा  हो  या  शहर  तपन  है  राहों में,
जख़्मी पाँवों से चलना पड़ता है अक्सर ।

अपने  हिस्से  की  बूँदों  को  ढूँढ  रहा  हूँ,
दरिया का ही नाम लिखा दिखता है अक्सर ।

 


-महेन्द्र वर्मा

गीत बसंत का




सुरभित मंद समीर ले                                                 
आया है मधुमास।

पुष्प रँगीले हो गए
किसलय करें किलोल,
माघ करे जादूगरी
अपनी गठरी खोल।

गंध पचीसों तिर रहे
पवन हुए उनचास ।

अमराई में कूकती
कोयल मीठे बैन,
बासंती-से हो गए
क्यों संध्या के नैन।

टेसू के संग झूमता
सरसों का उल्लास ।


पुलकित पुष्पित शोभिता
धरती गाती गीत,
पात पीत क्यों हो गए
है कैसी ये रीत।

नृत्य तितलियाँ कर रहीं
भौंरे करते रास ।

                                              -महेन्द्र वर्मा

नवगीत



कुछ दाने, कुछ मिट्टी किंचित
सावन शेष रहे ।

सूरज अवसादित हो बैठा
ऋतुओं में अनबन,
नदिया पर्वत सागर रूठे
पवनों में जकड़न,

जो हो, बस आशा.ऊर्जा का
दामन शेष रहे ।

मौन हुए सब पंख पखेरू
झरनों का कलकल,
नीरवता को भंग कर रहा
कोई कोलाहल,

जो हो, संवादी सुर में अब
गायन शेष रहे । 

-
महेन्द्र वर्मा

दीये का संकल्प





तिमिर तिरोहित होगा निश्चित
दीये का संकल्प अटल है।

सत् के सम्मुख कब टिक पाया
घोर तमस की कुत्सित चाल,
ज्ञान रश्मियों से बिंध कर ही
हत होता अज्ञान कराल,

झंझावातों के झोंकों से
लौ का ऊर्ध्वगतित्व अचल है।

कितनी विपदाओं से निखरा
दीपक बन मिट्टी का कण.कण,
महत् सृष्टि का उत्स यही है
संदर्शित करता यह क्षण-क्षण,

साँझ समर्पित कर से द्योतित
सूरज का प्रतिरूप अनल है ।



शुभकामनाएँ

-महेन्द्र वर्मा