अनुभव का उपहार


समर भूमि संसार है, विजयी होते वीर,
मारे जाते हैं सदा, निर्बल-कायर-भीर।


मुँह पर ढकना दीजिए, वक्ता होए शांत,
मन के मुँह को ढाँकना, कारज कठिन नितांत।


दुख के भीतर ही छुपा, सुख का सुमधुर स्वाद,
लगता है फल, फूल के, मुरझाने के बाद।


भाँति-भाँति के सर्प हैं, मन जाता है काँप,
सबसे जहरीला मगर, आस्तीन का साँप।


हो अतीत चाहे विकट, दुखदायी संजाल,
पर उसकी यादें बहुत, होतीं मधुर रसाल।


विपदा को मत कोसिए, करती यह उपकार,
बिन खरचे मिलता विपुल, अनुभव का उपहार।


प्राकृत चीजों का सदा, कर सम्मान सुमीत,
ईश्वर पूजा की यही, सबसे उत्तम रीत।

                       
                                                                             -महेन्द्र वर्मा





कुछ और

मेरा कहना था कुछ और,
उसने समझा था कुछ और ।

धुँधला-सा है शाम का  सफ़र,
सुबह उजाला था कुछ और ।

गाँव जला तो बरगद रोया,
उसका दुखड़ा था कुछ और ।

अजीब नीयत धूप की हुई,
साथ न साया, था कुछ और ।

जीवन-पोथी में लिखने को,
शेष रह गया था कुछ और ।

 

-महेन्द्र वर्मा

बरगद माँगे छाँव




सूरज सोया रात भर, सुबह गया वह जाग,
बस्ती-बस्ती घूमकर, घर-घर बाँटे आग।

भरी दुपहरी सूर्य ने, खेला ऐसा दाँव,
पानी प्यासा हो गया, बरगद माँगे छाँव।
 

सूरज बोला  सुन जरा, धरती मेरी बात,
मैं ना उगलूँ आग तो, ना होगी बरसात।

सूरज है मुखिया भला, वही कमाता रोज,
जल-थल-नभचर पालता, देता उनको ओज।

पेड़ बाँटते छाँव हैं, सूरज बाँटे धूप,
धूप-छाँव का खेल ही, जीवन का है रूप।

धरती-सूरज-आसमाँ, सब करते उपकार,
मानव तू बतला भला, क्यों करता अपकार।

जल-जल कर देता सदा, सबके मुँह में कौर,
बिन मेरे जल भी नहीं, मत जल मुझसे और।

                                                                               

  -महेन्द्र वर्मा