तीन मणिकाएं




1.

तुम्हारा झूठ
उसके लिए
सच है
मेरा सच
किसी और के लिए
झूठ है
ऐसा तो होना ही था
क्योंकि
सच और झूठ को
तौलने वाला तराजू
अलग-अलग है
हम सबका  !

2.

जो नासमझ है
उसे समझाने से
क्या फ़ायदा
और
जो समझदार है
उसे
समझाने की क्या ज़रूरत 

क्या इसका
ये अर्थ निकाला जाए
कि

जो समझदार
किसी नासमझ को

समझाने की कोशिश करते हैं
वे नासमझ हैं !!

3.

मैं
तुम्हारे लिए
कुछ और हूं
किसी और के लिए
कुछ और
यानी
दूसरों की
अलग-अलग  नज़रों में
मैं अलग-अलग ‘मैं’ हूं
बस
मैं सिर्फ़ वह नहीं हूं
‘जो मैं हूं’ !!!

                                                         

                                                                          -महेन्द्र वर्मा

विमोचन



छ.ग. प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, ज़िला इकाई, बेमेतरा के तत्वावधान में मेरा काव्य संग्रह ‘श्वासों का अनुप्रास’ का विमोचन देश के सुपरिचित व्यंग्यकार, कवि और पत्रकार श्री गिरीश पंकज और प्रसिद्ध भाषाविद्, गीतकार और संगीतज्ञ डॉ. चित्तरंजन कर के करकमलों से दिनांक 11 मार्च, 2018 को बेमेतरा में संपन्न हुआ । इस काव्य संग्रह में ‘‘शाश्वत शिल्प’’ में प्रकाशित पद्य रचनाएं सम्मिलित हैं जिसे अभिव्यक्ति प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है ।

कार्यक्रम में दुर्ग के छंदकार श्री अरुण निगम, छ.ग. राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के सचिव, साहित्यकार श्री बलदाउ राम साहू, खैरागढ़ के वरिष्ठ गीतकार डॉ. जीवन यदु ‘राही’, गंडई के साहित्यकार डॉ. पीसी लाल यादव, लोक कवि और गायक श्री सीताराम साहू ‘श्याम’, रायपुर के श्री रामशरण सिंह, सेवानिवृत्त उपायुक्त, अ.जा. एवं अ.ज.जा. कल्याण विभाग, छ.ग. विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे । सभी अतिथियों ने विमोचित कृति पर अपने विचार व्यक्त किए ।

कार्यक्रम के द्वितीय सत्र में डॉ. चित्तरंजन कर ने ‘‘श्वासों का अनुप्रास’’ के कुछ गीतों और ग़ज़लों का सुमधुर गायन प्रस्तुत किया ।


आयोजन की कुछ छवियां प्रस्तुत हैं-













होली का दस्तूर




 देहरी पर आहट हुई, फागुन पूछे कौन
मैं बसंत तेरा सखा, तू क्यों अब तक मौन।

निरखत बासंती छटा, फागुन हुआ निहाल
इतराता सा वह चला, लेकर रंग गुलाल।

कलियों के संकोच से, फागुन हुआ अधीर
वन-उपवन के भाल पर, मलता गया अबीर।

फागुन आता देखकर, उपवन हुआ निहाल,
अपने तन पर लेपता, केसर और गुलाल।


तन हो गया पलाश-सा, मन महुए का फूल,
फिर फगवा की धूम है, फिर रंगों की धूल। 


ढोल मंजीरे बज रहे, उड़े अबीर गुलाल,
रंगों ने ऊधम किया, बहकी सबकी चाल।


कोयल कूके कान्हड़ा, भँवरे भैरव राग,
गली-गली में गूँजता, एक ताल में फाग।
 

रंगों की बारिश हुई, आँधी चली गुलाल,
मन भर होली खेलिए, मन न रहे मलाल।


उजली-उजली रात में, किसने गाया फाग,
चाँद छुपाता फिर रहा, अपने तन के दाग। 
 

टेसू पर उसने किया, बंकिम दृष्टि निपात
लाल लाज से हो गया, वसन हीन था गात।

अमराई की छांव में, फागुन छेड़े गीत
बेचारे बौरा गए, गात हो गए पीत।

फागुन और बसंत मिल, करे हास-परिहास
उनको हंसता देखकर, पतझर हुआ उदास।

पूनम फागुन से मिली, बोली नेह लुटाय
 और माह फीके लगे, तेरा रंग सुहाय।

नेह-आस-विश्वास से, हुए कलुष सब दूर,
भीगे तन-मन-आत्मा, होली का दस्तूर। 


आतंकी फागुन हुआ, मौसम था मुस्तैद
आनन-फानन दे दिया, एक वर्ष की क़ैद।

शुभकामनाएं
 

- महेन्द्र वर्मा