शिवसिंह सरोज


‘शिवसिंह सरोज’, एक पुस्तक का नाम है, जिसकी रचना आज से 143 वर्ष पूर्व जिला उन्नाव, ग्राम कांथा निवासी शिवसिंह सेंगर नाम के एक साहित्यानुरागी ने की थी । इस ग्रंथ में पंद्रहवीं शताब्दी से लेकर सन् 1875 ई. तक के 1003 हिंदी कवियों का संक्षिप्त आलोचनात्मक विवरण और उनकी कुछ रचनाएं सम्मिलित हैं । यह पुस्तक  परवर्ती हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वालों के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्रोत रहा है । डॉ. जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपनी अंग्रेज़ी किताब ‘द माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’, मिश्र बंधुओं ने ‘मिश्र बंधु विनोद’ और आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखने में ‘शिवसिंह सरोज’ की सहायता ली थी ।

शिव सिंह सेंगर साहित्यकार तो नहीं थे, थोड़ी-बहुत काव्य-रचना कर लेते थे किंतु अध्ययनप्रेमी अवश्य थे । खा़स बात यह है कि वे पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर थे । यह जानना बहुत रोचक है कि ऐसा व्यक्ति हिंदी काव्य के 400 वर्षों का विवरण आखिर कैसे लिख सका !  हिंदी, उर्दू के अतिरिक्त अरबी, फ़ारसी और संस्कृत की सामान्य जानकारी शिवसिंह को थी । इन्हें पुस्तकें इकट्ठा करने और पढ़ने में बहुत रुचि थी । घर में एक लघु पुस्तकालय ही बन गया था जिसमें हस्तलिखित ग्रंथ अधिक थे । उनके पुस्तक प्रेमी होने का प्रमाण इस प्रसंग में  निहित है-

सन् 1858 ई. में ज़िला रायबरेली के किसुनदासपुर गांव के एक विद्याप्रेमी पं. ठाकुर प्रसाद त्रिपाठी का जब देहांत हुआ तब उनके चार महामूर्ख पुत्रों ने उनके द्वारा संग्रहित पुस्तकों के 18-18 बस्ते बांट लिए और कौड़ियों के भाव बेच डाले । शिवसिंह ने भी इनसे 200 ग्रंथ खरीद कर अपने पुस्तकालय को और समृद्ध किया । इन पुस्तकों के अध्ययन से शिवसिंह में काव्य और कवियों के प्रति रुचि में और वृद्धि हुई ।

‘शिवसिंह सरोज’ क्यों लिखा गया, इसका उत्तर उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका में दे दिया है-
 ‘‘मैंने सन् 1876 ई. में भाषा कवियों के जीवन चरित्र विषयक एक-दो ग्रंथ ऐसे देखे जिनमें ग्रंथकर्ता ने मतिराम इत्यादि ब्राह्मणों को लिखा था कि वे असनी के महापात्र भाट हैं । इसी तरह की बहुत सी बातें देख कर मुझसे चुप नहीं रहा गया । मैंने सोचा कि अब कोई ग्रंथ ऐसा बनाना चाहिए जिसमें प्राचीन और अर्वाचीन कवियों के जीवन चरित्र, सन्-संवत, जाति, निवास-स्थान आदि कविता के ग्रंथों समेत विस्तारपूर्वक लिखे हों । ’’

सन् 1877-78 में उन्होंने ग्रंथों का गहराई से अध्ययन प्रारंभ किया और एक वर्ष और 3 महीने में ‘शिवसिंह सरोज’ का लेखन पूर्ण कर लिया । मुंशी नवल किशोर प्रेस से 1878 में ही इस ग्रंथ का पहला संस्करण, 1887 में दूसरा संस्करण और 1926 में सातवां संस्करण प्रकाशित हुआ । आज से 143 वर्ष पहले शिव सिंह सेंगर ने ऐसे समय में यह महत्वपूर्ण कार्य संपन्न किया जब कोई बड़ी साहित्यिक संस्था नहीं थी जिसका सहयोग उन्हें मिल पाता, तत्कालीन ब्रिटिश शासन से अनुदान प्राप्त करना भी कठिन था ।

कुछ लोगों को यह भ्रम हो सकता है कि ‘शिवसिंह सरोज’ में हिंदी साहित्य के इतिहास का विवरण है । किंतु ऐसा नहीं है । यह एक काव्य संग्रह है । इस में 500 से अधिक पृष्ठ हैं । ग्रंथ के प्रारंभ में 12 पृष्ठों की भूमिका है । इस भूमिका में ग्रंथ लिखने का कारण, आधार ग्रंथों की सूची, संस्कृत साहित्य-शास्त्र और हिंदी भाषा काव्य का संक्षिप्त विवरण दिया गया है । उसके पश्चात 376 पृष्ठों में 839 कवियों की रचनाओं का संग्रह है । अंत में 125 पृष्ठों में 1003 कवियों के संक्षिप्त जीवन परिचय दिए गए हैं ।

शिवसिंह सेंगर ने कुछ छंदों की रचना की थी । कवियों के परिचय में उन्होंने अपना नाम इस तरह उल्लिखित किया है-
‘‘21. शिवसिंह सेंगर, कांथा, जिला उन्नाव के निवासी, संवत् 1878 में उ.।’’

आगे उन्होंने लिखा है- ‘‘अपना नाम इस ग्रंथ में लिखना बड़े संकोच की बात है । कारण यह कि हमें कविता का कुछ भी ज्ञान नहीं । इस हमारी ढिठाई को विद्वज्जन क्षमा करें । काव्य करने की शक्ति हममें नहीं है । काव्य इत्यादि सब प्रकार के ग्रंथों को इकट्ठा करने का बड़ा शौक है । हमने अरबी, संस्कृत, फ़ारसी आदि के सैकड़ों अद्भुत ग्रंथ जमा किए हैं और करने जा रहे हैं। इन विद्याओं का हमें थोड़ा अभ्यास भी है ।’’

इस अनूठे साहित्यसेवी का जन्म सन् 1833 ई. उत्तर प्रदेश के कांथा गांव में हुआ था जो लखनऊ  से लगभग 40 कि.मी. दक्षिण में है। इन के पिता रणजीत सिंह कांथा के ताल्लुकेदार थे । शिवसिंह का देहावसान 1879 ई. में मात्र 45 वर्ष की आयु में हुआ ।

शिवसिंह सेंगर की इस कहानी से यह बात प्रमाणित होती है कि एक सामान्य व्यक्ति भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति होते हुए एक कालजयी कार्य सम्पन्न कर  सकता है ।





पुस्तक के प्रथम संस्करण के मुखपृष्ठ का चित्र । शीर्षक के नीचे उर्दू में भी ‘शिवसिंह सरोज’ लिखा है । यह चित्र उस समय के पुस्तकों के मुखपृष्ठ की डिज़ाइन, भाषा  और वर्तनी का रोचक नमूना प्रदर्शित करता है ।

-महेन्द्र वर्मा

एक बस्तरिहा गीत और झपताल



परंपरागत जनजातीय गीतों की कुछ अपनी विशिष्टताएं होती हैं । पहली, इनमें 3, 4 या कहीं-कहीं 5 स्वरों का ही उपयोग होता है । आधुनिक संगीत में कुल 12 स्वर होते हैं । कर्नाटक संगीत में 22 स्वर या श्रुतियां होती हैं । लेकिन जनजातीय गीत-संगीत में और कुछ मैदानी लोक गीतों में भी केवल 3 से 5 स्वर ही प्रयुक्त होते हैं ।

उदाहरण के लिए छत्तीसगढ के सुवा गीत के एक मौलिक रूप में 4 स्वरों का ही प्रयोग होता है । यहां उस सुवा गीत का जिक्र हो रहा है जिसे गांवों में महिलाएं ताली बजाती हुई गाती हैं, किसी वाद्य-यंत्र का सहारा नहीं लिया जाता । पंथी गीत और एक बिहाव गीत में 4 स्वरों का  तो जस गीत में 5 स्वरों का प्रयोग होता है । पंथी गीत के मुखड़े में केवल दो स्वरों की ही आवश्यकता होती है ।

दूसरी विशेषता, इन गीतों में अंतरा के लिए अलग धुन नहीं होती । स्थायी की धुन में ही सभी अंतरे गाए जाते हैं ।

तीसरी विशेषता, इन गीतों के कुछ बहुत पुराने और मौलिक रूपों में किसी वाद्य-यंत्र का उपयोग नहीं होता । जैसे, सुवा गीत और बिहाव गीत में । खेतों में काम करते हुए गाए जाने वाले ददरिया गीतों में भी वाद्य-यंत्र की आवश्यकता नहीं होती । लेकिन उनमें ताल स्वाभाविक रूप से मौजूद होता है ।

इन विशेषताओं से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । एक तो ये कि मनुष्य ने गीत-संगीत की शुरुआत इसके सरलतम रूप से की अर्थात 2-3 स्वर वाले गीतों से । दूसरा ये कि ताल वाद्यों और अन्य सहायक वाद्य-यंत्रों का प्रयोग संगीत के विकास क्रम में बहुत बाद में शुरू हुआ । आज भी चीन, जापान, तिब्बत और कुछ अफ्रीकी देशों में 5 स्वर वाले गीत-संगीत ही वहां के मुख्य संगीत-रूप हैं ।

बात शुरू हुई थी जनजातीय गीतों से । बस्तर के कांंडागांव जिले के बड़गैंया गांव के जनजातीय कलाकारों द्वारा गाया गया ये पारंपरिक गोंडी गीत पहले सुन लेते हैं -

अब इस गीत की विशेषताएं-

इस समूह गीत में केवल 3 स्वरों का प्रयोग हुआ है । आधार स्वर सा के अतिरिक्त शुद्ध गंधार और मंद्र सप्तक के पंचम का । गीत की पंक्ति ‘ग’ स्वर से आरंभ होती है लेकिन इस स्वर को केवल छूकर ‘सा’ तक मीड़ जैसे रूप में वापस आती है और फिर एक निश्चित लय में सा से ग तथा ग से सा के बीच मानो झूलती रहती है ।  मंद्र सप्तक के ‘प’ में पंक्ति के गायन का केवल अंतिम छोर ही पहुंचता है ।

प, सा और ग की यह स्वर-संगति बहुत ही कर्णप्रिय है । यह गीत मन में अनाम-सा कोमल भाव भी जगाता है। संगीत-शास्त्रों में कहा गया है कि 5 स्वर से कम का कोई राग संभव नहीं है। भले ही यह गीत इस परिभाषा के अनुसार राग के दायरे में न हो किंतु मन में ‘राग’ उत्पन्न करने में तो सक्षम है ही ।

गीत में ताल वाद्य का प्रयोग हुआ है । सुनने से प्रतीत होता है कि जो ताल प्रयुक्त हुआ है वह केवल 2 मात्रा का है । लेकिन लय के अनुसार पंक्ति की एक आवृत्ति में मात्राओं को गिनने से पता चलता है कि कुल 10 मात्राएं हैं ।इस गीत में झपताल नहीं बजा है, 2-2 मात्रा की 5 आवृत्ति से यह गीत के लय के अनुकूल हो जाता है । किंतु गीत का प्रवाह झपताल के अनुरूप है । क्योंकि एक आवृत्ति में पंक्ति में जो बलाघात हैं वे पहली, तीसरीं, छठवीं और आठवीं मात्राओं में हैं । स्पष्ट है, ये झपताल है- धी ना, धी धी ना, ती ना, धी धी ना ।

कहने की आवश्यकता नहीं कि संगीत के शास्त्र के अंकुर लोकराग के बीज से ही प्रस्फुटित हुए हैं ।

तो, यह तय है कि संगीत का उद्गम जानने के लिए हमें जनजातीय संगीत-सागर में डूबना-उतराना होगा ।



-महेन्द्र वर्मा

तीन मणिकाएं




1.

तुम्हारा झूठ
उसके लिए
सच है
मेरा सच
किसी और के लिए
झूठ है
ऐसा तो होना ही था
क्योंकि
सच और झूठ को
तौलने वाला तराजू
अलग-अलग है
हम सबका  !

2.

जो नासमझ है
उसे समझाने से
क्या फ़ायदा
और
जो समझदार है
उसे
समझाने की क्या ज़रूरत 

क्या इसका
ये अर्थ निकाला जाए
कि

जो समझदार
किसी नासमझ को

समझाने की कोशिश करते हैं
वे नासमझ हैं !!

3.

मैं
तुम्हारे लिए
कुछ और हूं
किसी और के लिए
कुछ और
यानी
दूसरों की
अलग-अलग  नज़रों में
मैं अलग-अलग ‘मैं’ हूं
बस
मैं सिर्फ़ वह नहीं हूं
‘जो मैं हूं’ !!!

                                                         

                                                                          -महेन्द्र वर्मा