शिवसिंह सरोज


‘शिवसिंह सरोज’, एक पुस्तक का नाम है, जिसकी रचना आज से 143 वर्ष पूर्व जिला उन्नाव, ग्राम कांथा निवासी शिवसिंह सेंगर नाम के एक साहित्यानुरागी ने की थी । इस ग्रंथ में पंद्रहवीं शताब्दी से लेकर सन् 1875 ई. तक के 1003 हिंदी कवियों का संक्षिप्त आलोचनात्मक विवरण और उनकी कुछ रचनाएं सम्मिलित हैं । यह पुस्तक  परवर्ती हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वालों के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्रोत रहा है । डॉ. जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपनी अंग्रेज़ी किताब ‘द माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’, मिश्र बंधुओं ने ‘मिश्र बंधु विनोद’ और आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखने में ‘शिवसिंह सरोज’ की सहायता ली थी ।

शिव सिंह सेंगर साहित्यकार तो नहीं थे, थोड़ी-बहुत काव्य-रचना कर लेते थे किंतु अध्ययनप्रेमी अवश्य थे । खा़स बात यह है कि वे पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर थे । यह जानना बहुत रोचक है कि ऐसा व्यक्ति हिंदी काव्य के 400 वर्षों का विवरण आखिर कैसे लिख सका !  हिंदी, उर्दू के अतिरिक्त अरबी, फ़ारसी और संस्कृत की सामान्य जानकारी शिवसिंह को थी । इन्हें पुस्तकें इकट्ठा करने और पढ़ने में बहुत रुचि थी । घर में एक लघु पुस्तकालय ही बन गया था जिसमें हस्तलिखित ग्रंथ अधिक थे । उनके पुस्तक प्रेमी होने का प्रमाण इस प्रसंग में  निहित है-

सन् 1858 ई. में ज़िला रायबरेली के किसुनदासपुर गांव के एक विद्याप्रेमी पं. ठाकुर प्रसाद त्रिपाठी का जब देहांत हुआ तब उनके चार महामूर्ख पुत्रों ने उनके द्वारा संग्रहित पुस्तकों के 18-18 बस्ते बांट लिए और कौड़ियों के भाव बेच डाले । शिवसिंह ने भी इनसे 200 ग्रंथ खरीद कर अपने पुस्तकालय को और समृद्ध किया । इन पुस्तकों के अध्ययन से शिवसिंह में काव्य और कवियों के प्रति रुचि में और वृद्धि हुई ।

‘शिवसिंह सरोज’ क्यों लिखा गया, इसका उत्तर उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका में दे दिया है-
 ‘‘मैंने सन् 1876 ई. में भाषा कवियों के जीवन चरित्र विषयक एक-दो ग्रंथ ऐसे देखे जिनमें ग्रंथकर्ता ने मतिराम इत्यादि ब्राह्मणों को लिखा था कि वे असनी के महापात्र भाट हैं । इसी तरह की बहुत सी बातें देख कर मुझसे चुप नहीं रहा गया । मैंने सोचा कि अब कोई ग्रंथ ऐसा बनाना चाहिए जिसमें प्राचीन और अर्वाचीन कवियों के जीवन चरित्र, सन्-संवत, जाति, निवास-स्थान आदि कविता के ग्रंथों समेत विस्तारपूर्वक लिखे हों । ’’

सन् 1877-78 में उन्होंने ग्रंथों का गहराई से अध्ययन प्रारंभ किया और एक वर्ष और 3 महीने में ‘शिवसिंह सरोज’ का लेखन पूर्ण कर लिया । मुंशी नवल किशोर प्रेस से 1878 में ही इस ग्रंथ का पहला संस्करण, 1887 में दूसरा संस्करण और 1926 में सातवां संस्करण प्रकाशित हुआ । आज से 143 वर्ष पहले शिव सिंह सेंगर ने ऐसे समय में यह महत्वपूर्ण कार्य संपन्न किया जब कोई बड़ी साहित्यिक संस्था नहीं थी जिसका सहयोग उन्हें मिल पाता, तत्कालीन ब्रिटिश शासन से अनुदान प्राप्त करना भी कठिन था ।

कुछ लोगों को यह भ्रम हो सकता है कि ‘शिवसिंह सरोज’ में हिंदी साहित्य के इतिहास का विवरण है । किंतु ऐसा नहीं है । यह एक काव्य संग्रह है । इस में 500 से अधिक पृष्ठ हैं । ग्रंथ के प्रारंभ में 12 पृष्ठों की भूमिका है । इस भूमिका में ग्रंथ लिखने का कारण, आधार ग्रंथों की सूची, संस्कृत साहित्य-शास्त्र और हिंदी भाषा काव्य का संक्षिप्त विवरण दिया गया है । उसके पश्चात 376 पृष्ठों में 839 कवियों की रचनाओं का संग्रह है । अंत में 125 पृष्ठों में 1003 कवियों के संक्षिप्त जीवन परिचय दिए गए हैं ।

शिवसिंह सेंगर ने कुछ छंदों की रचना की थी । कवियों के परिचय में उन्होंने अपना नाम इस तरह उल्लिखित किया है-
‘‘21. शिवसिंह सेंगर, कांथा, जिला उन्नाव के निवासी, संवत् 1878 में उ.।’’

आगे उन्होंने लिखा है- ‘‘अपना नाम इस ग्रंथ में लिखना बड़े संकोच की बात है । कारण यह कि हमें कविता का कुछ भी ज्ञान नहीं । इस हमारी ढिठाई को विद्वज्जन क्षमा करें । काव्य करने की शक्ति हममें नहीं है । काव्य इत्यादि सब प्रकार के ग्रंथों को इकट्ठा करने का बड़ा शौक है । हमने अरबी, संस्कृत, फ़ारसी आदि के सैकड़ों अद्भुत ग्रंथ जमा किए हैं और करने जा रहे हैं। इन विद्याओं का हमें थोड़ा अभ्यास भी है ।’’

इस अनूठे साहित्यसेवी का जन्म सन् 1833 ई. उत्तर प्रदेश के कांथा गांव में हुआ था जो लखनऊ  से लगभग 40 कि.मी. दक्षिण में है। इन के पिता रणजीत सिंह कांथा के ताल्लुकेदार थे । शिवसिंह का देहावसान 1879 ई. में मात्र 45 वर्ष की आयु में हुआ ।

शिवसिंह सेंगर की इस कहानी से यह बात प्रमाणित होती है कि एक सामान्य व्यक्ति भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति होते हुए एक कालजयी कार्य सम्पन्न कर  सकता है ।





पुस्तक के प्रथम संस्करण के मुखपृष्ठ का चित्र । शीर्षक के नीचे उर्दू में भी ‘शिवसिंह सरोज’ लिखा है । यह चित्र उस समय के पुस्तकों के मुखपृष्ठ की डिज़ाइन, भाषा  और वर्तनी का रोचक नमूना प्रदर्शित करता है ।

-महेन्द्र वर्मा

एक बस्तरिहा गीत और झपताल



परंपरागत जनजातीय गीतों की कुछ अपनी विशिष्टताएं होती हैं । पहली, इनमें 3, 4 या कहीं-कहीं 5 स्वरों का ही उपयोग होता है । आधुनिक संगीत में कुल 12 स्वर होते हैं । कर्नाटक संगीत में 22 स्वर या श्रुतियां होती हैं । लेकिन जनजातीय गीत-संगीत में और कुछ मैदानी लोक गीतों में भी केवल 3 से 5 स्वर ही प्रयुक्त होते हैं ।

उदाहरण के लिए छत्तीसगढ के सुवा गीत के एक मौलिक रूप में 4 स्वरों का ही प्रयोग होता है । यहां उस सुवा गीत का जिक्र हो रहा है जिसे गांवों में महिलाएं ताली बजाती हुई गाती हैं, किसी वाद्य-यंत्र का सहारा नहीं लिया जाता । पंथी गीत और एक बिहाव गीत में 4 स्वरों का  तो जस गीत में 5 स्वरों का प्रयोग होता है । पंथी गीत के मुखड़े में केवल दो स्वरों की ही आवश्यकता होती है ।

दूसरी विशेषता, इन गीतों में अंतरा के लिए अलग धुन नहीं होती । स्थायी की धुन में ही सभी अंतरे गाए जाते हैं ।

तीसरी विशेषता, इन गीतों के कुछ बहुत पुराने और मौलिक रूपों में किसी वाद्य-यंत्र का उपयोग नहीं होता । जैसे, सुवा गीत और बिहाव गीत में । खेतों में काम करते हुए गाए जाने वाले ददरिया गीतों में भी वाद्य-यंत्र की आवश्यकता नहीं होती । लेकिन उनमें ताल स्वाभाविक रूप से मौजूद होता है ।

इन विशेषताओं से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । एक तो ये कि मनुष्य ने गीत-संगीत की शुरुआत इसके सरलतम रूप से की अर्थात 2-3 स्वर वाले गीतों से । दूसरा ये कि ताल वाद्यों और अन्य सहायक वाद्य-यंत्रों का प्रयोग संगीत के विकास क्रम में बहुत बाद में शुरू हुआ । आज भी चीन, जापान, तिब्बत और कुछ अफ्रीकी देशों में 5 स्वर वाले गीत-संगीत ही वहां के मुख्य संगीत-रूप हैं ।

बात शुरू हुई थी जनजातीय गीतों से । बस्तर के कांंडागांव जिले के बड़गैंया गांव के जनजातीय कलाकारों द्वारा गाया गया ये पारंपरिक गोंडी गीत पहले सुन लेते हैं -

अब इस गीत की विशेषताएं-

इस समूह गीत में केवल 3 स्वरों का प्रयोग हुआ है । आधार स्वर सा के अतिरिक्त शुद्ध गंधार और मंद्र सप्तक के पंचम का । गीत की पंक्ति ‘ग’ स्वर से आरंभ होती है लेकिन इस स्वर को केवल छूकर ‘सा’ तक मीड़ जैसे रूप में वापस आती है और फिर एक निश्चित लय में सा से ग तथा ग से सा के बीच मानो झूलती रहती है ।  मंद्र सप्तक के ‘प’ में पंक्ति के गायन का केवल अंतिम छोर ही पहुंचता है ।

प, सा और ग की यह स्वर-संगति बहुत ही कर्णप्रिय है । यह गीत मन में अनाम-सा कोमल भाव भी जगाता है। संगीत-शास्त्रों में कहा गया है कि 5 स्वर से कम का कोई राग संभव नहीं है। भले ही यह गीत इस परिभाषा के अनुसार राग के दायरे में न हो किंतु मन में ‘राग’ उत्पन्न करने में तो सक्षम है ही ।

गीत में ताल वाद्य का प्रयोग हुआ है । सुनने से प्रतीत होता है कि जो ताल प्रयुक्त हुआ है वह केवल 2 मात्रा का है । लेकिन लय के अनुसार पंक्ति की एक आवृत्ति में मात्राओं को गिनने से पता चलता है कि कुल 10 मात्राएं हैं ।इस गीत में झपताल नहीं बजा है, 2-2 मात्रा की 5 आवृत्ति से यह गीत के लय के अनुकूल हो जाता है । किंतु गीत का प्रवाह झपताल के अनुरूप है । क्योंकि एक आवृत्ति में पंक्ति में जो बलाघात हैं वे पहली, तीसरीं, छठवीं और आठवीं मात्राओं में हैं । स्पष्ट है, ये झपताल है- धी ना, धी धी ना, ती ना, धी धी ना ।

कहने की आवश्यकता नहीं कि संगीत के शास्त्र के अंकुर लोकराग के बीज से ही प्रस्फुटित हुए हैं ।

तो, यह तय है कि संगीत का उद्गम जानने के लिए हमें जनजातीय संगीत-सागर में डूबना-उतराना होगा ।



-महेन्द्र वर्मा

तीन मणिकाएं




1.

तुम्हारा झूठ
उसके लिए
सच है
मेरा सच
किसी और के लिए
झूठ है
ऐसा तो होना ही था
क्योंकि
सच और झूठ को
तौलने वाला तराजू
अलग-अलग है
हम सबका  !

2.

जो नासमझ है
उसे समझाने से
क्या फ़ायदा
और
जो समझदार है
उसे
समझाने की क्या ज़रूरत 

क्या इसका
ये अर्थ निकाला जाए
कि

जो समझदार
किसी नासमझ को

समझाने की कोशिश करते हैं
वे नासमझ हैं !!

3.

मैं
तुम्हारे लिए
कुछ और हूं
किसी और के लिए
कुछ और
यानी
दूसरों की
अलग-अलग  नज़रों में
मैं अलग-अलग ‘मैं’ हूं
बस
मैं सिर्फ़ वह नहीं हूं
‘जो मैं हूं’ !!!

                                                         

                                                                          -महेन्द्र वर्मा

विमोचन



छ.ग. प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, ज़िला इकाई, बेमेतरा के तत्वावधान में मेरा काव्य संग्रह ‘श्वासों का अनुप्रास’ का विमोचन देश के सुपरिचित व्यंग्यकार, कवि और पत्रकार श्री गिरीश पंकज और प्रसिद्ध भाषाविद्, गीतकार और संगीतज्ञ डॉ. चित्तरंजन कर के करकमलों से दिनांक 11 मार्च, 2018 को बेमेतरा में संपन्न हुआ । इस काव्य संग्रह में ‘‘शाश्वत शिल्प’’ में प्रकाशित पद्य रचनाएं सम्मिलित हैं जिसे अभिव्यक्ति प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है ।

कार्यक्रम में दुर्ग के छंदकार श्री अरुण निगम, छ.ग. राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के सचिव, साहित्यकार श्री बलदाउ राम साहू, खैरागढ़ के वरिष्ठ गीतकार डॉ. जीवन यदु ‘राही’, गंडई के साहित्यकार डॉ. पीसी लाल यादव, लोक कवि और गायक श्री सीताराम साहू ‘श्याम’, रायपुर के श्री रामशरण सिंह, सेवानिवृत्त उपायुक्त, अ.जा. एवं अ.ज.जा. कल्याण विभाग, छ.ग. विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे । सभी अतिथियों ने विमोचित कृति पर अपने विचार व्यक्त किए ।

कार्यक्रम के द्वितीय सत्र में डॉ. चित्तरंजन कर ने ‘‘श्वासों का अनुप्रास’’ के कुछ गीतों और ग़ज़लों का सुमधुर गायन प्रस्तुत किया ।


आयोजन की कुछ छवियां प्रस्तुत हैं-













होली का दस्तूर




 देहरी पर आहट हुई, फागुन पूछे कौन
मैं बसंत तेरा सखा, तू क्यों अब तक मौन।

निरखत बासंती छटा, फागुन हुआ निहाल
इतराता सा वह चला, लेकर रंग गुलाल।

कलियों के संकोच से, फागुन हुआ अधीर
वन-उपवन के भाल पर, मलता गया अबीर।

फागुन आता देखकर, उपवन हुआ निहाल,
अपने तन पर लेपता, केसर और गुलाल।


तन हो गया पलाश-सा, मन महुए का फूल,
फिर फगवा की धूम है, फिर रंगों की धूल। 


ढोल मंजीरे बज रहे, उड़े अबीर गुलाल,
रंगों ने ऊधम किया, बहकी सबकी चाल।


कोयल कूके कान्हड़ा, भँवरे भैरव राग,
गली-गली में गूँजता, एक ताल में फाग।
 

रंगों की बारिश हुई, आँधी चली गुलाल,
मन भर होली खेलिए, मन न रहे मलाल।


उजली-उजली रात में, किसने गाया फाग,
चाँद छुपाता फिर रहा, अपने तन के दाग। 
 

टेसू पर उसने किया, बंकिम दृष्टि निपात
लाल लाज से हो गया, वसन हीन था गात।

अमराई की छांव में, फागुन छेड़े गीत
बेचारे बौरा गए, गात हो गए पीत।

फागुन और बसंत मिल, करे हास-परिहास
उनको हंसता देखकर, पतझर हुआ उदास।

पूनम फागुन से मिली, बोली नेह लुटाय
 और माह फीके लगे, तेरा रंग सुहाय।

नेह-आस-विश्वास से, हुए कलुष सब दूर,
भीगे तन-मन-आत्मा, होली का दस्तूर। 


आतंकी फागुन हुआ, मौसम था मुस्तैद
आनन-फानन दे दिया, एक वर्ष की क़ैद।

शुभकामनाएं
 

- महेन्द्र वर्मा




फूल हों ख़ुशबू रहे












दर रहे या ना रहे छाजन रहे,
फूल हों ख़ुशबू रहे आँगन रहे ।

फ़िक्र ग़म की क्यों, ख़ुशी से यूँ अगर,
आँसुओं से भीगता दामन रहे ।

झाँक लो भीतर कहीं ऐसा न हो,
आप ही ख़ुद आप का दुश्मन रहे ।

ज़िंदगी में लुत्फ़ आता है तभी,
जब ज़रा-सी बेवजह उलझन रहे ।

कल सुबह सूरज उगे तो ये दिखे,।
बीज मिट्टी और कुछ सावन रहे ।

                                                      -महेन्द्र वर्मा

ग्रेगोरियन कैलेण्डर

                                                                                                                              
 तिथि, माह और वर्ष की गणना के लिए ईस्वी सन् वाले कैलेण्डर का प्रयोग आज पूरे विश्व में हो रहा है। यह कैलेण्डर आज से 2700 वर्श पूर्व प्रचलित रोमन कैलेण्डर का ही क्रमषः संषोधित रूप है। 46 ई. पूर्व में इसका नाम जूलियन कैलेण्डर हुआ और 1752 ई. से इसे ग्रेगोरियन कैलेण्डर कहा जाने लगा। आज यह कैलेण्डर इसी नाम से प्रसिद्ध है । रोमन कैलेण्डर का ग्रेगोरियन कैलेण्डर में परिवर्तित होने तक की कहानी बहुत रोचक है ।
रोमन कैलेण्डर की शुरुआत रोम नगर की स्थापना करने वाले पौराणिक राजा रोम्युलस के पंचांग से होती है। वर्ष की गणना रोम नगर की स्थापना वर्ष 753 ई. पूर्व से की जाती थी। इसे संक्षेप में ए.यू.सी. अर्थात एन्नो अरबिस कांडिटाइ कहा जाता था, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘शहर की स्थापना के वर्ष से‘ हैं।

रोम्युलस के इस कैलेण्डर में वर्ष में दस महीने होते थे। इन महीनों में प्रथम चार का नाम रोमन देवताओं पर आधारित था, शेष छह महीनों के नाम क्रम संख्यांक पर आधारित थे। दस महीनों के नाम क्रमशः इस प्रकार थे- मार्टियुस, एप्रिलिस, मेयुस, जूनियुस, क्विंटिलिस, सेक्स्टिलिस, सेप्टेम्बर, आक्टोबर, नोवेम्बर और डिसेम्बर। मार्टियुस जिसे अब मार्च कहा जाता है, वर्ष का पहला महीना था। शेष छह महीनों के नामों का अर्थ क्रमशः पांचवां, छठवां, सातवां, आठवां, नवां और दसवां था । नए वर्ष का आरंभ मार्टियुस अर्थात मार्च की 25 तारीख को होता था क्योंकि इसी दिन रोम के न्यायाधीश शपथ ग्रहण करते थे। इस कैलेण्डर में तब जनवरी और फरवरी माह नहीं थे।

लगभग 700 ई. पूर्व (रोमन संवत् के अनुसार 53 ए.यू.सी.) रोम के द्वितीय नरेश न्यूमा पाम्पलियस ने 10 महीने वाले कैलेण्डर को 12 महीने वाले कैलेण्डर में परिवर्तित कर दिया । कैलेण्डर में दो नए महीने - जेन्युअरी और फेब्रुअरी - क्रमशः ग्यारहवें और बारहवें महीने के रूप में जोड गए। रोमन देवता जेनुअस के नाम पर जेन्युअरी महीने का नाम रखा गया । फेब्रुअरी  लेटिन शब्द फेब्रुअम से बना है जिसका अर्थ है-शुद्धिकरण । प्राचीन रोम में ‘शुद्धिकरण’ एक त्योहार था जिसे वर्ष की अंतिम पूर्णिमा को मनाया जाता था । यह कैलेण्डर 355 दिनों के चांद्र वर्ष अर्थात 12 पूर्णिमाओं पर आधारित था इसलिए इसमें दो नए महीने जोड़े गए। इसमें 7 महीने 29 दिनों के, 4 महीने 31 दिनों के और फेब्रुअरी महीना 28 दिनों का होता था।  इस कैलेण्डर का उपयोग रोमवासी 45 ई. पूर्व तक करते रहे।

सन् 46 ई. पूर्व में रोमन सम्राट जूलियस सीज़र ने अनुभव किया कि त्योहार और मौसम में अंतर आने लगा है। इसका कारण यह था कि प्रचलित कैलेण्डर चांद्रवर्ष पर आधारित था जबकि ऋतुएं सौर वर्ष पर आधारित होती हैं। जूलियस सीज़र ने अपने ज्योतिषी सोसिजेनस की सलाह पर 355 दिन के वर्ष में 10 दिन और जोड़कर वर्ष की अवधि 365 दिन 6 घंटे निर्धारित किया। वर्ष की अवधि में जो छह घंटे अतिरिक्त थे वे चार वर्षों में कुल 24 घंटे अर्थात एक दिन के बराबर हो जाते थे। अतः सीज़र ने प्रत्येक चौथे वर्ष का मान 366 दिन रखे जाने का नियम बनाया और इसे लीप ईयर का नाम दिया। लीप ईयर के इस एक अतिरिक्त दिन को अंतिम महीने अर्थात फेब्रुअरी में जोड़ दिया जाता था। जूलियस सीज़र ने क्विंटिलिस नामक पांचवे माह का नाम बदलकर जुलाई कर दिया क्योंकि उसका जन्म इसी माह में हुआ था।

जूलियस सीज़र द्वारा संशोधित रोमन कैलेण्डर का नाम 46 ई. पूर्व से जूलियन कैलेण्डर हो गया। इसके 2 वर्ष पश्चात सीज़र की हत्या कर दी गई। आगस्टस रोम का नया सम्राट बना। आगस्टस ने सेक्स्टिलिस महीने में ही युद्धों में सबसे अधिक विजय प्राप्त की थी इसलिए उसने इस महीने का नाम बदलकर अपने नाम पर आगस्ट कर दिया।

जूलियन कैलेण्डर अब प्रचलन में आ चुका था। किंतु कैलेण्डर बनाने वाले पुरोहित लीप ईयर संबंधी व्यवस्था को ठीक से समझ नहीं सके । चौथा वर्ष गिनते समय वे दोनों लीप ईयर को शामिल कर लेते थे। फलस्वरूप प्रत्येक तीन वर्ष में फेब्रुअरी माह में एक अतिरिक्त दिन जोड़ा जाने लगा। इस गड़बड़ी का पता 50 साल बाद लगा और तब कैलेण्डर को पुनः संशोधित किया गया। तब तक ईसा मसीह का जन्म हो चुका था किंतु ईस्वी सन् की शुरुआत नहीं हुई थी। जूलियन कैलेण्डर के साथ रोमन संवत ए.यू.सी. का ही प्रयोग होता था। ईस्वी सन् की शुरुआत ईसा के जन्म के 532 वर्ष बाद सीथिया के शासक डाइनीसियस एक्लिगुस ने की थी। ईसाई समुदाय में ईस्वी सन् के साथ जूलियन कैलेण्डर का प्रयोग रोमन शासक शार्लोमान की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात सन् 816 ईस्वी से ही हो सका।

जूलियन कैलेण्डर रोमन साम्राज्य में 1500 वर्षों तक अच्छे ढंग से चलता रहा। अपने पूर्ववर्ती कैलेण्डरों से यह अधिक सही था फिर भी पूरी तरह से शुद्ध नहीं था । गणितज्ञ जब सूक्ष्म गणना करने लगे तो उन्होंने पाया कि जूलियन कैलेण्डर का वर्षमान सौर वर्ष से 0.0078 दिन या लगभग 11 मिनट अधिक था। बाद के 1500 वर्षों में यह अधिकता बढ़कर पूरे 10 दिनों की हो चुकी थी।

1582 ई. में रोम के पोप ग्रेगोरी तेरहवें ने कैलेण्डर के इस अंतर को पहचाना और इसे सुधारने का निश्चय किया। उसने 4 अक्टूबर 1582 ई. को यह व्यवस्था की कि दस अतिरिक्त दिनों को छोड़कर अगले दिन 5 अक्टूबर की बजाय 15 अक्टूबर की तारीख होगी, अर्थात 5 अक्टूबर से 14 अक्टूबर तक की तिथि कैलेण्डर से विलोपित कर दी गई। भविष्य में कैलेण्डर वर्ष और सौर वर्ष में अंतर न हो, इसके लिए ग्रेगोरी ने यह नियम बनाया कि प्रत्येक 400 वर्षों में एक बार लीप वर्ष में एक अतिरिक्त दिन न जोड़ा जाए। सुविधा के लिए यह निर्धारित किया गया कि शताब्दी वर्ष यदि 400 से विभाज्य है तभी वह लीप ईयर माना जाएगा। इसीलिए सन् 1600 और 2000 लीप ईयर थे किंतु सन् 1700, 1800 और 1900 लीप ईयर नहीं थे, भले ही ये 4 से विभाज्य हैं।

ग्रेगोरी ने जूलियन कैलेण्डर में एक और महत्वपूर्ण संशोधन यह किया कि नए वर्ष का आरंभ 25 मार्च की बजाय 1 जनवरी से कर दिया। इस तरह जनवरी माह जो जूलियन कैलेण्डर में 11वां महीना था, पहला महीना और फरवरी दूसरा महीना बन गया। शेष महीनों का क्रम वही रहा किंतु क्रमांक बदल गए । संख्यासूचक महीने सेप्टेम्बर, अक्टोबर, नोवेम्बर और डिसेम्बर क्रमशः सातवें, आठवें, नवें और दसवें के स्थान पर अब क्रमशः नवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें महीने बन गए । ग्रेगोरी ने महीनों के दिनों की संख्या को भी नए रूप में निर्धारित किया ।

ग्रेगोरी के द्वारा किए गए इन संशोधनों के पश्चात जूलियन कैलेण्डर को ग्रेगोरियन कैलेण्डर कहा जाने लगा । उक्त व्यापक परिवर्तनों के कारण 16 वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में तिथि को लेकर प्रायः भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी । इस भ्रम को दूर करने के लिए 4 अक्टूबर, 1582  की किसी तारीख को लिखने के लिए ओ.एस. यानी ओल्ड स्टाइल और उसके बाद की तारीख के साथ एन.एस. यानी न्यू स्टाइल लिखा जाता था । आज भी किताबों में 4 अक्टूबर, 1582 के पहले की तिथियां जूलियन कैलेण्डर के अनुसार और उसके बाद की तिथियां ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार लिखी होती हैं ।

सन् 1582 में पोप ग्रेगरी द्वारा संशोधित कैलेण्डर को रोमन कैथोलिक देशों ने तुरंत अपना लिया था किंतु प्रोटेस्टेंट, ग्रीक कैथोलिक, सात्यवादी तथा पूर्वी देशों ने इसे तुरंत लागू नहीं किया। इटली, डेनमार्क और हालैंड ने ग्रेगोरियन कैलेण्डर को उसी वर्ष अपना लिया। लेकिन शेष देशों ने बहुत बाद में, अलग-अलग वर्षों में स्वीकार किया ।

ग्रेट ब्रिटेन ने ग्रेगोरियन कैण्डर को उसके प्रवर्तन के 170 वर्षों के पश्चात अर्थात सन् 1752 में अपनाया । लेकिन तब तक ब्रिटेन में प्रचलित जूलियन कैलेण्डर 10 की बजाय 11 दिन आगे बढ़ चुका था । इसलिए जब ग्रेट ब्रिटेन ने 2 सितंबर, 1752 को इसे अपनाया तो कैलेण्डर में पूरे 11 दिन कम करने पड़े । जूलियन कैलेण्डर के अनुसार 2 सितंबर 1752 की तिथि के पश्चात अगले दिन की तारीख ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार 14 सितंबर घोषित की गई । इस के लिए ब्रिटेन को संसद में बाकायदा ‘न्यू स्टाइल कैलेण्डर एक्ट’ नामक विधेयक पारित करना पड़ा । जनता पर इस का व्यापक असा पड़ा । ब्रिटेन के इस कदम पर उस समय दंगे भी हुए । लोगों के मन में इस बात को लेकर विरोध और आक्रोश था कि सरकार ने उनके जीवन के 11 दिन छीन लिए । वे सड़कों पर नारे लगाते थे- ‘‘हमारे 11 दिन हमें वापस करो ।’’ बहरहाल ब्रिटेन के सभी उपनिवेशों में भी नया कैलेण्डर 1752 में लागू हो गया था ।

जर्मनी और स्विटज़रलैंड ने 1759 ई. में, आयरलैंड ने 1839 ई. में और थाईलैंड ने सबसे बाद में, सन् 1941 में इस नए कैलेण्डर को अपने देश में लागू किया। तत्कालीन रूसी सरकार ने सन् 1917 में ग्रेगोरियन कैलेण्डर को जब अपने देश में लागू किया तो उसे 14 दिन कम करने पड़े । रूस की 1917 की बोल्शिविक क्रांति को महान अक्टूबर क्रांति कहा जाता है, वास्तव में यह क्रांति ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार 7 नवंबर को हुई थी ।
कैलेण्डर की यह रोचक कहानी अधूरी ही रहेगी यदि हम इस बात की चर्चा न करें कि टैक्स निर्धारण के लिए वर्ष की गणना 1 अप्रेल से क्यों की जाती है, 1 जनवरी से क्यों नहीं ।

मध्ययुग में यूरोप के अधिकांश  देशों में वर्ष का आरंभ 25 मार्च को होता था इसलिए अन्य देशों की तरह ब्रिटेन में भी टैक्स की गणना 25 मार्च से की जाती थी । एंग्लो सैक्सन इंग्लैंड में क्रिसमस के दिन को नए वर्ष का प्रारंभ माना जाता था । वहां के राजा विलियम प्रथम ने जूलियन कैलेण्डर का अनुसरण करते हुए वर्ष का प्रारंभ 1 जनवरी से कर दिया था लेकिन टैक्स की गणना 25 मार्च से होती रही । ग्रेगोरी के कैलेण्डर को सन्1752 में ब्रिटेन ने अपनाया तो 25 मार्च की तिथि को 11 दिन बढ़ा कर 5 अप्रेल करना पड़ा । तब से करों की गणना 5 अप्रेल से होने लगी ।

सन्1800 ई. में एक भूल यह हुई कि इस वर्ष को लीप ईयर मानकर फरवरी 29 दिन का कर दिया गया था । इस भूल को सुधारने के लिए 1 दिन कैलेण्डर में से फिर निकालना पड़ा । फलस्वरूप 5 अप्रेल की तिथि 6 अप्रेल हो गई । ब्रिटेन में अभी भी करों की गणना 6 अप्रेल से की जाती है किंतु अधिकांश देशों ने 6 अप्रेल के स्थान पर निकटतम और सुविधाजनक तिथि 1 अप्रेल को चुना । यही कारण है कि हमारे देश में भी करों की गणना 1 अप्रेल से की जाती है और इसीलिए वित्तीय वर्ष भी 1 अप्रेल से 31 मार्च तक माना जाता है ।

ग्रेगोरियन कैलेण्डर का उपयोग आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है किंतु यह अभी भी पूर्ण रूप से त्रुटिहीन नहीं है । गणितज्ञों के अनुसार ग्रेगोरियन कैलेण्डर के औसत वर्षमान और सौर वर्षमान में 27 सेकंड का अंतर है । यह अंतर 3236 वर्षों में 1 दिन का और 32360 वर्षों में 10 दिनों का हो जाएगा । इस प्रकार हज़ारों वर्षों बाद ऋतुओं और महीनों का क्रम असंगत होने लगेगा । कम्प्यूटर विशेषज्ञों ने ग्रेगोरियन कैलेण्डर सहित विश्व के किसी भी कैलेण्डर पद्धति को अनुपयुक्त माना है । उन्होंने काल गणना के लिए अपना एक अलग मानक ‘रेटा डाइ’ का प्रयोग प्रारंभ कर दिया है ।


   -महेन्द्र वर्मा

पूजा से पावन





                 जाने -पहचाने  बरसों के  फिर  भी   वे अनजान लगे,
                 महफ़िल सजी हुई है लेकिन सहरा सा सुनसान लगे ।

                इक दिन मैंने अपने ‘मैं’ को अलग कर दिया था ख़ुद से,
                अब जीवन  की  हर  कठिनाई  जाने क्यों आसान लगे ।

                 चेहरे  उनके  भावशून्य  हैं  आखों  में  भी  नमी  नहीं,
                 वे  मिट्टी  के  पुतले  निकले  पहले  जो  इन्सान  लगे ।

                 उजली-धुँधली यादों की जब चहल-पहल सी रहती है,
                 तब  मन  के  आँगन का कोई कोना क्यों वीरान लगे ।

                  होते  होंगे  और कि जिनको भाती है आरती अज़ान,
                  हमको  तो  पूजा  से  पावन बच्चों की मुस्कान लगे ।

                                                                                                                            -महेन्द्र वर्मा