समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की दुर्दशा






आम तौर पर यह समझा जाता है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध केवल वैज्ञानिकों से है,  ऐसा बिल्कुल नहीं है । वास्तव में वैज्ञानिक दृष्टिकोण जीवन जीने का एक तरीका है ( सोचने की एक व्यक्तिगत और सामाजिक प्रक्रिया ) जो वैज्ञानिक विधि का उपयोग करता है और जिसके परिणामस्वरूप, प्रश्न पूछना, वास्तविकता का अवलोकन, परीक्षण, विश्लेषण, परिकल्पना, समीक्षा और निष्कर्ष तय करना शामिल होता है । “वैज्ञानिक दृष्टिकोण“ एक ऐसे दृष्टिकोण का वर्णन करता है जिसमें तर्क का उपयोग शामिल है। चर्चा, तर्क और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्वपूर्ण भाग हैं। निष्पक्षता, समानता और लोकतंत्र के तत्व इसमें समाहित हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सत्य और नए ज्ञान की खोज करने, परीक्षण करने, परीक्षण के बिना कुछ भी स्वीकार करने से इनकार करने, नए साक्ष्य के सामने पिछले निष्कर्षों को बदलने,  पूर्व-अनुमानित सिद्धांत को नहीं बल्कि तार्किक तथ्य को स्वीकार करने और मष्तिष्क को अनुशासित करने के लिए आवश्यक है । यह केवल विज्ञान के लिए ही नहीं बल्कि जीवन के लिए और इसकी कई समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक है ।

इसीलिए हमारे संविधान में भी ( भाग 4क, मूल कर्तव्य, 51क ) उल्लेखित है - ‘‘भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे ।’’ यह संविधान के उसी अनुच्छेद में उल्लेखित है जिसमें संविधान का पालन करने, उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करने की बात कही गई है ।

अब प्रश्न यह है कि क्या हम ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ संदर्भ में संविधान का पालन कर रहे हैं ?

इस प्रश्न का उत्तर जानने का प्रयास करें कि इस संबंध मे हम आज क्या कर रहे हैं-
   

जब विज्ञान की प्रगति होने लगी, दुनिया भर के वैज्ञानिक नए-नए आविष्कार और खोज करने लगे तो हमारे देश में कुछ लोगों ने यह कहना शुरू किया कि अमुक खोज या आविष्कार का वर्णन तो हमारे प्राचीन ग्रंथों में पहले से ही है । कुछ ने कहा कि हमारे प्राचीन ग्रंथों को पढ़कर ही वैज्ञानिक खोज करते हैं और अपना नाम दे देते हैं । आजकल यह प्रवृत्ति कुछ अधिक दिखाई दे रही है । मीडिया के सभी साधनों में इस तरह की चर्चाएं आम बात हो गई है।

अभी हाल ही में सोशल मीडिया में एक लेखक-पत्रकार ने एक पोस्ट में लिखा - ‘‘काश, स्कूली पाठ्यक्रम में वेद-शिक्षा पर ज़ोर दिया जाता तो समझ में आता कि दुनिया की प्रगति का आधार वेद है ।’’आगे उन्होंने फिर लिखा - ‘‘आज दुनिया जितनी विकसित नज़र आ रही है उसका आधार वेद है ।’’

एक प्रसिद्ध वक्ता ( इनका निधन हो चुका है, इनके भाषणों के वीडियो इंटरनेट पर मौज़ूद हैं ) ने कहा है- ‘‘सम्राट हर्षवर्धन पहले वैज्ञानिक था, बाद में राजा हुआ । इस वैज्ञानिक राजा ने कृत्रिम बर्फ़ बनाने की तकनीक का आविष्कार किया ।’’ वक्ता के अनुसार, ‘‘संस्कृत कवि बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ में कृत्रिम बर्फ़ बनाने की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन है ।’’
उक्त वक्ता का यह कथन नितांत असत्य है। हर्षचरित में इस तरह का कोई उल्लेख नहीं है । हर्ष वैज्ञानिक नहीं थे और न ही उसने कृत्रिम बर्फ बनाई ।

तथाकथित लेखक और  पत्रकार ही नहीं, हमारे देश के कुछ नीति-नियामक भी इस संबंध में ऐसी बातें कहते रहे हैं, जो लोगों के बीच खूब चर्चित हुए । वैज्ञानिक खोजों के संदर्भ में इनके कुछ कथन देखिए-

"भारतीय ऋषि अपनी योगविद्या के द्वारा दिव्यदृष्टि प्राप्त कर लेते थे, इसमें कोई संदेह नहीं कि टेलीविज़न के आविष्कार का संबंध इससे है/डार्विन का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से गलत है । हमारे पूर्वजों सहित किसी ने भी मौखिक या लिखित रूप से यह नहीं कहा कि उन्होंने बंदर को आदमी के रूप में बदलते देखा है/गाय ऑक्सीजन छोड़ती है/महर्षि कणाद ने अपने समय में एक परमाणु परीक्षण किया था/ज्योतिष सबसे बड़ा विज्ञान है, हमें इसे विज्ञान से भी ज्यादा प्रोत्साहित करना चाहिए/महाभारत कहता है कि कर्ण अपनी माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुआ था, इसका अर्थ यह है कि उस समय जेनेटिक साइंस मौज़ूद था/सकारात्मक चिंतन के द्वारा बीजों की क्षमता को बढ़ाना- यौगिक खेती के पीछे यही अवधारणा है/गाय के गोबर और गोमूत्र से कैंसर की चिकित्सा की जा सकती है ।"

इन बातों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण और संविधान में प्रावधान के संदर्भ में विचार करें तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि इस तरह के विचार अवैज्ञानिक हैं, समाज हितकारी नहीं हैं और संविधान की भावना का उल्लंघन है ।
समाज का कोई जिम्मेदार व्यक्ति जब ऐसी सोच को प्रचारित करता है तो एक आम व्यक्ति तो उसका अनुकरण करेगा ही । इस तरह के विचारों के अलावा और भी बहुत से ऐसे अंधविश्वास हैं जिसे मीडिया प्रश्रय दे रहा है जो समाज को पांच हजार साल पीछे ले जाने की कोशिश कर रहा है । यह समाज के हर वर्ग के लिए धीमा जहर है जो घातक है ।

वास्तव में जिन भारतीय वैज्ञानिकों और गणितज्ञों ने अपनी खोजों से विश्व-समुदाय को महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जिन पर हम गर्व करना चाहिए,  उनकी चर्चा प्रायः नहीं होती कि वे कौन थे , उन्होंने कौन से आविष्कार किये, उनके आविष्कार का क्या महत्व है, उनका समाज के प्रति क्या दृष्टिकोण था आदि । यह एक अलग आलेख का विषय है ।

यदि हम एक स्वस्थ समाज चाहते हैं तो हमें अवैज्ञानिक प्रवृत्ति से छुटकारा पाना ही होगा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तथ्यों को समझना होगा क्योंकि यह हमारा संवैधानिक और लोकतांत्रिक  कर्तव्य है और इसलिए मानवीय भी।

-महेन्द्र वर्मा










अंधविश्वास का मनोविज्ञान






एक वाक्य में अंधविश्वास को परिभाषित करना मुश्किल है क्योंकि इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है । मोटे तौर पर कह सकते हैं कि ‘तर्कहीन विश्वास’ अंधविश्वास है । अपने विकास क्रम में जब मनुष्य थोड़ा सोचने-समझने लायक हुआ तब ज्ञान और तर्क का जन्म नहीं हुआ था । इन के अभाव में घटनाओं की मनमानी व्याख्या की जाती थी। आश्चर्य है कि आज पचास हज़ार साल बाद भी यह परंपरा जारी है।

गत तीन-चार सदियों में ज्ञान के अप्रत्याशित विस्फोट के बावज़ूद घटनाओं की तर्कहीन व्याख्या के पीछे मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियां रही हैं। लोभ, स्वार्थ, सुख की चाह, दुख की चिंता, अस्तित्व की असुरक्षा का भय जैसी प्रवृत्तियां अंधविश्वास के जनक और पोषक हैं । इन प्रवृत्तियों से कुछ द्वितीयक प्रवृत्तियां विकसित होती हैं, जैसे -  परंपराओं से चिपके रहने का मोह, सदियों पुराने तथाकथित तर्कहीन ‘ज्ञान’ को ही अंतिम सत्य मानने की जड़ता, नए तार्किक ज्ञान की उपेक्षा, किसी अज्ञात शक्ति का भय आदि।

पिछले सौ वर्षों में मनोविज्ञान ने काफ़ी प्रगति की है । अंधविश्वास के कारणों पर बहुत सारी नई जानकारियां उद्घाटित हुई हैं । यह जानने की कोशिश की गई है कि कुछ लोग अंधविश्वासी क्यों होते हैं ? क्या कुछ अंधविश्वास लाभ भी पहुंचाते हैं ? कुछ पढे-लिखे लोग भी अंधविश्वासी क्यों होते हैं ?

मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोधों के कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष इस प्रकार हैं -

1.    मनुष्य अपने पूर्वज्ञान के आधार पर घटनाओं की व्याख्या करता है । यदि उसका पूर्वज्ञान सीमित होगा तो उसका निष्कर्ष भी त्रुटिपूर्ण होगा । व्यापक अध्ययन की कमी लोगों को अंधविश्वासी बनाती है ।
2.    कुछ लोग स्वभाव से अतार्किक होते हैं । किसी घटना के कारण को जानने के लिए  तर्क का प्रयोग नहीं करते । अपने संस्कारगत स्वाभाविक जानकारी के आधार पर निष्कर्ष तय कर लेते हैं । ये संस्कार पीढ़ियों पुराने होते हैं ।
3.    स्वयं के भविष्य के प्रति अनिश्चितता पर  नियंत्रण रखने की कोशिश, असहाय होने की भावना को, तनाव और चिंता को कम करने का प्रयास जैसे कारक भी अंधविश्वास के पोषक हैं ।
4.    यदि किसी व्यक्ति के मन को ‘वर्तमान में जितना है उससे अधिक पाने की लालसा’ उद्वेलित करती रहती है तो उसके अंधविश्वासी होने की संभावना अधिक होती है ।
5.    स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ जैसी धारणाएं भी मनुष्य को अंधविश्वासी बना सकती हैं ।
6.    कुछ व्यक्तियों के लिए किसी सर्वोच्च अदृश्य शक्ति पर सच्ची आस्था मनोवैज्ञानिक रूप से लाभदायक हो सकती है किंतु ऐसी अवस्था में भी यदि मन में अंधविश्वास प्रवेश करता है तो इसका कारण अज्ञानता और भय ही है । अंधविश्वासी व्यक्ति जिज्ञासु नहीं होता ।
7.    प्रत्येक ‘कार्य’ का ‘कारण’ अवश्य होता है, यदि कोई व्यक्ति कार्य के पीछे का कारण नहीं समझ पाता तो उस व्यक्ति में अंधविश्वास का प्रवेश हो सकता है ।

ज्ञान की निरंतर प्रगति के बावजू़द अंधविश्वास का कम न होना मानव सभ्यता के लिए चिंताजनक है । प्राचीन ज्ञान के वे अंश जो मानव मूल्यों को पोषित करते हैं निस्संदेह आज भी उपयोगी हैं, किंतु उन पर विश्वास और अमल  नहीं के बराबर हो रहा है । इसके विपरीत उन रूढिवादी और कट्टर मान्यताओं का प्रचार अधिक हो रहा है जो मानव मूल्यों के विपरीत हैं । अंधविश्वास की आड़ में व्यक्ति से लेकर देश और विश्व के स्तर तक बढ़े पैमाने पर ठगी का व्यापार फल-फूल रहा है ।

एक अंधविस्वासी सच्चे ज्ञान पर विश्वास नहीं कर पाता । स्वामी विवेकानंद ने कहा था - ‘‘अंधविश्वासी मूर्ख होने की बजाय अनीश्वरवादी होना ज़्यादा अच्छा है । अंधविश्वास कमजोर लोगों की पहचान है। इसलिए इससे सावधान रहो, सक्षम बनो ।’’







  
-महेन्द्र वर्मा