अंधविश्वास का मनोविज्ञान






एक वाक्य में अंधविश्वास को परिभाषित करना मुश्किल है क्योंकि इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है । मोटे तौर पर कह सकते हैं कि ‘तर्कहीन विश्वास’ अंधविश्वास है । अपने विकास क्रम में जब मनुष्य थोड़ा सोचने-समझने लायक हुआ तब ज्ञान और तर्क का जन्म नहीं हुआ था । इन के अभाव में घटनाओं की मनमानी व्याख्या की जाती थी। आश्चर्य है कि आज पचास हज़ार साल बाद भी यह परंपरा जारी है।

गत तीन-चार सदियों में ज्ञान के अप्रत्याशित विस्फोट के बावज़ूद घटनाओं की तर्कहीन व्याख्या के पीछे मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियां रही हैं। लोभ, स्वार्थ, सुख की चाह, दुख की चिंता, अस्तित्व की असुरक्षा का भय जैसी प्रवृत्तियां अंधविश्वास के जनक और पोषक हैं । इन प्रवृत्तियों से कुछ द्वितीयक प्रवृत्तियां विकसित होती हैं, जैसे -  परंपराओं से चिपके रहने का मोह, सदियों पुराने तथाकथित तर्कहीन ‘ज्ञान’ को ही अंतिम सत्य मानने की जड़ता, नए तार्किक ज्ञान की उपेक्षा, किसी अज्ञात शक्ति का भय आदि।

पिछले सौ वर्षों में मनोविज्ञान ने काफ़ी प्रगति की है । अंधविश्वास के कारणों पर बहुत सारी नई जानकारियां उद्घाटित हुई हैं । यह जानने की कोशिश की गई है कि कुछ लोग अंधविश्वासी क्यों होते हैं ? क्या कुछ अंधविश्वास लाभ भी पहुंचाते हैं ? कुछ पढे-लिखे लोग भी अंधविश्वासी क्यों होते हैं ?

मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोधों के कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष इस प्रकार हैं -

1.    मनुष्य अपने पूर्वज्ञान के आधार पर घटनाओं की व्याख्या करता है । यदि उसका पूर्वज्ञान सीमित होगा तो उसका निष्कर्ष भी त्रुटिपूर्ण होगा । व्यापक अध्ययन की कमी लोगों को अंधविश्वासी बनाती है ।
2.    कुछ लोग स्वभाव से अतार्किक होते हैं । किसी घटना के कारण को जानने के लिए  तर्क का प्रयोग नहीं करते । अपने संस्कारगत स्वाभाविक जानकारी के आधार पर निष्कर्ष तय कर लेते हैं । ये संस्कार पीढ़ियों पुराने होते हैं ।
3.    स्वयं के भविष्य के प्रति अनिश्चितता पर  नियंत्रण रखने की कोशिश, असहाय होने की भावना को, तनाव और चिंता को कम करने का प्रयास जैसे कारक भी अंधविश्वास के पोषक हैं ।
4.    यदि किसी व्यक्ति के मन को ‘वर्तमान में जितना है उससे अधिक पाने की लालसा’ उद्वेलित करती रहती है तो उसके अंधविश्वासी होने की संभावना अधिक होती है ।
5.    स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ जैसी धारणाएं भी मनुष्य को अंधविश्वासी बना सकती हैं ।
6.    कुछ व्यक्तियों के लिए किसी सर्वोच्च अदृश्य शक्ति पर सच्ची आस्था मनोवैज्ञानिक रूप से लाभदायक हो सकती है किंतु ऐसी अवस्था में भी यदि मन में अंधविश्वास प्रवेश करता है तो इसका कारण अज्ञानता और भय ही है । अंधविश्वासी व्यक्ति जिज्ञासु नहीं होता ।
7.    प्रत्येक ‘कार्य’ का ‘कारण’ अवश्य होता है, यदि कोई व्यक्ति कार्य के पीछे का कारण नहीं समझ पाता तो उस व्यक्ति में अंधविश्वास का प्रवेश हो सकता है ।

ज्ञान की निरंतर प्रगति के बावजू़द अंधविश्वास का कम न होना मानव सभ्यता के लिए चिंताजनक है । प्राचीन ज्ञान के वे अंश जो मानव मूल्यों को पोषित करते हैं निस्संदेह आज भी उपयोगी हैं, किंतु उन पर विश्वास और अमल  नहीं के बराबर हो रहा है । इसके विपरीत उन रूढिवादी और कट्टर मान्यताओं का प्रचार अधिक हो रहा है जो मानव मूल्यों के विपरीत हैं । अंधविश्वास की आड़ में व्यक्ति से लेकर देश और विश्व के स्तर तक बढ़े पैमाने पर ठगी का व्यापार फल-फूल रहा है ।

एक अंधविस्वासी सच्चे ज्ञान पर विश्वास नहीं कर पाता । स्वामी विवेकानंद ने कहा था - ‘‘अंधविश्वासी मूर्ख होने की बजाय अनीश्वरवादी होना ज़्यादा अच्छा है । अंधविश्वास कमजोर लोगों की पहचान है। इसलिए इससे सावधान रहो, सक्षम बनो ।’’







  
-महेन्द्र वर्मा

बाँसुरी हो गई







 इल्म की चाह ही बंदगी हो गई,
अक्षरों की छुअन आरती हो गई ।

सामना भी हुआ तो दुआ न सलाम,
अजनबी की तरह ज़िंदगी हो गई ।

प्यास ही प्यास है रेत ही रेत भी,
उम्र की शाम सूखी नदी हो गई ।

चुप रहूँ तो कहें बोलते क्यों नहीं,
बदज़ुबानी मगर,आह की,हो गई ।

खोखली है मगर छेड़ती सुर मधुर,
ज़िंदगी भी गज़ब बाँसुरी हो गई ।

-महेन्द्र वर्मा   

आइन्स्टीन ने धर्म और ईश्वर के संबंध में क्या कहा था


14 जुलाई, 1930 को, अल्बर्ट आइंस्टीन ने भारतीय दार्शनिक, संगीतकार और नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर का बर्लिन के अपने घर में स्वागत किया। दोनों की बातचीत इतिहास में सबसे उत्तेजक, बौद्धिक और दिलचस्प विषय पर हुई, और वह विषय है - विज्ञान और धर्म के बीच पुराना संघर्ष -



आइन्स्टीनः  यदि इंसान नहीं होते, तो क्या बेल्वेडियर का अपोलो सुंदर नहीं होता ?
टैगोरः  नहीं !
आइन्स्टीन :  मैं सौंदर्य की इस अवधारणा से सहमत हूं, लेकिन सच के संबंध में नहीं।
टैगोरः  क्यों नहीं ? मनुष्यों के माध्यम से सत्य महसूस किया जाता है।
आइन्स्टीन :  मैं साबित नहीं कर सकता कि मेरी धारणा सही है, लेकिन यह मेरा धर्म है। ...... मैं साबित नहीं कर सकता, लेकिन मैं पाइथागोरियन तर्क में विश्वास करता हूं कि सत्य मनुष्यों से स्वतंत्र है।
टैगोरः   किसी भी मामले में, अगर कोई सत्य मानवता से बिल्कुल असंबंधित है, तो हमारे लिए यह बिल्कुल अस्तित्वहीन है।
आइन्स्टीन :   तब तो मैं आप से अधिक धार्मिक हूँ !
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विज्ञान और धर्म के विषय में जब भी बात होती है तो आइन्स्टीन के एक कथन को प्रायः उद्धरित किया जाता है-  “ धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है, विज्ञान के बिना धर्म अंधा है। “
इस कथन से यह प्रतीत होता है कि आइन्स्टीन धर्म और विज्ञान को परस्पर पूरक मानते हैं । इस कथन के पूर्व के वाक्य इस प्रकार हैं-
“दूसरी तरफ, धर्म केवल मानव विचारों और कार्यों के मूल्यांकन के साथ ही व्यवहार करता है, यह तथ्यों के बीच तथ्यों और उनके संबंधों की उचित व्याख्या नहीं कर सकता है। ... विज्ञान केवल उन लोगों द्वारा समझा जा सकता है जो सच्चाई और समझ की आकांक्षा के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं। हालांकि, भावना का यह स्रोत धर्म के क्षेत्र से उगता है। इसके लिए इस संभावना में भी विश्वास है कि अस्तित्व की दुनिया के लिए मान्य नियम तर्कसंगत हैं, यानी, कारणों से समझने योग्य हैं। मैं उस गहन विश्वास के बिना एक वास्तविक वैज्ञानिक की कल्पना नहीं कर सकता। यह स्थिति एक रूपक द्वारा इस तरह व्यक्त की जा सकती हैः धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है, विज्ञान के बिना धर्म अंधा है।     
 “( Ideas and Opinions] , क्राउन पब्लिशर्स, 1 9 54, यहां पुनः उत्पन्न)
आइंस्टीन की मृत्यु से एक साल पहले, 1954 की बात। एक संवाददाता ने आइंस्टीन के धार्मिक विचारों के बारे में एक लेख पढ़ा था । उसने आइंस्टीन से पूछा कि लेख सही था या नहीं। आइंस्टीन ने उत्तर दिया-
“यह निश्चित रूप से एक झूठ था जो आपने मेरे धार्मिक दृढ़ विश्वासों के बारे में पढ़ा था, एक झूठ जिसे व्यवस्थित रूप से दोहराया जा रहा है। मैं एक निजी ईश्वर में विश्वास नहीं करता हूं और मैंने कभी इनकार नहीं किया है लेकिन इसे स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। अगर मेरे अंदर कुछ है जिसे धार्मिक कहा जा सकता है तो यह दुनिया की संरचना के लिए असहज प्रशंसा है, जहां तक हमारा विज्ञान इसे प्रकट कर सकता है।
 “ (Albert Einstein: The Human Side से 24 मार्च 1954 का पत्र, हेलेन डुकास और बनेश हॉफमैन, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी द्वारा संपादित)


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धर्म और ईश्वर के संबंध में आइन्स्टीन के कुछ और विचार -




“ईश्वर के विषय में मेरी स्थिति एक अज्ञेयवादी है। मैं आश्वस्त हूं कि जीवन के सुधार और संवर्धन के लिए नैतिक सिद्धांतों की चेतना को किसी कानून नियंता के विचार की आवश्यकता नहीं है, विशेष रूप से एक ऐसा कानून नियंता जो पुरस्कार और दंड के आधार पर काम करता है। “ (एम.बर्कोवित्ज़ को पत्र, 25 अक्टूबर, 1950;
Einstein  Archive    51-215)

“मानव जाति के आध्यात्मिक विकास की अवधि के दौरान मानव फंतासी ने मनुष्य की अपनी छवि में देवताओं को बनाया, जिन्होंने अपनी इच्छा के संचालन के द्वारा दुनिया को प्रभावित किया था। मनुष्य ने जादू और प्रार्थना के माध्यम से इन देवताओं के स्वभाव को अपने पक्ष में बदलने की कोशिश की। वर्तमान में प्रचलित धर्मों में भगवान का विचार देवताओं की पुरानी अवधारणा का एक उत्थान है। उदाहरण के लिए, उसके मानववंशीय चरित्र को दिखाया गया है कि पुरुष प्रार्थनाओं में दिव्य होने के लिए अपील करते हैं और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अनुरोध करते हैं। “ ...

    “मुझे यह पसंद नहीं है कि मेरे बच्चों को ऐसा कुछ सिखाया जाना चाहिए जो सभी वैज्ञानिक सोचों के विपरीत है।
“(Einstein, his life and times पी. फ्रैंक, पृष्ठ 280)

अपने जीवन के आखिरी साल आइंस्टीन ने दार्शनिक एरिक गुटकिंड को लिखा-
“ईश्वर शब्द मेरे लिए मानव कमजोरियों की अभिव्यक्ति और उत्पाद से अधिक कुछ नहीं है । मेरे लिए धर्म बचकाने अंधविश्वासों की पुनर्रचना है। “
“मैं ऐसे ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जो अपने प्राणियों को पुरस्कृत करता है और दंडित करता है। न तो मैं कल्पना करता हूं और न करूंगा कि कोई है जो मनंष्य को उसकी शारीरिक मृत्यु से बचाती है । डर या बेतुका अहंकार से कमजोर आत्माओं को इस तरह के विचारों की सराहना करने दें।
“(The World as I See It, 1949, फिलॉसॉफिकल लाइब्रेरी, न्यूयॉर्क)

“नैतिकता के बारे में दिव्य कुछ भी नहीं है, यह एक पूरी तरह से मानवीय क्रियाकलाप है।
“( The World as I See It, 1949, फिलॉसॉफिकल लाइब्रेरी, न्यूयॉर्क)

“मैं एक ऐसे ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जो सीधे व्यक्तियों के कार्यों को प्रभावित करेगा, या सीधे अपने द्वारा सृजित प्राणियों के लिए निर्णयक की भूमिका निभाएगा। ...नैतिकता सर्वोच्च महत्व का है - लेकिन हमारे लिए, ईश्वर के लिए नहीं।
“(Einstein Archive5 अगस्त 1927 को कोलोराडो बैंकर से पत्र)

“मैं जीवन या मृत्यु का भय या अंधविश्वास के आधार पर ईश्वर की किसी भी अवधारणा को स्वीकार नहीं कर सकता। मैं आपको साबित नहीं कर सकता कि कोई विशिष्ट ईश्वर नहीं है, लेकिन अगर मैं उसके अस्तित्व पर बात करूँ तो मैं झूठा होउंगा।
“( Einstein, his life and times रोनाल्ड डब्ल्यू क्लार्क, वर्ल्ड पब द्वारा, कं, एनवाई, 1971, पृष्ठ 622)

न्यूयॉर्क के रब्बी हरबर्ट गोल्डस्टीन ने आइंस्टीन को यह पूछने के लिए कहाः   “क्या आप ईश्वर पर विश्वास करते हैं ?“
आइंस्टीन ने जो जवाब दिया, वह प्रसिद्ध है-

    “मैं स्पिनोज़ा के ईश्वर में विश्वास करता हूं जो अपने अस्तित्व की क्रमबद्ध सुव्यवस्था  में खुद को प्रकट करता है, न कि ईश्वर में जो मनुष्यों के भाग्य और कार्यों के साथ खुद को संलग्न करता है। “
( स्पिनोज़ा ने प्रकृति को ईश्वर कहा था।)

                                           
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उसके हृदय में पीर है सारे जहान की

नीरज - श्रद्धांजलि

 विनम्र श्रद्धांजलि
4 जनवरी, 1925 - 19 जुलाई, 2018


हिंदी के श्रेष्ठ कवियों के स्वर्णयुग का अंतिम सूरज अस्त हो गया ।

सर्वप्रिय गीतकार नीरज ने ग़ज़लें भी कहीं । उनके समय के हिंदी के बहुत से प्रतिष्ठित कवियों ने ग़ज़लें लिखीं । नीरज ने अपनी इस तरह की रचनाओं को ग़ज़ल न कहकर ‘गीतिका’ की संज्ञा दी यद्यपि वे उर्दू की परंपरागत शैली से भिन्न नहीं थीं। ग़ज़लों का उनका संग्रह भी ‘नीरज की गीतिकाएं’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ ।

वे जन-सरोकार के कवि थे । उनकी कुछ चुनी हुई ग़ज़लें प्रस्तुत हैं जिनमें समय के हस्ताक्षर की स्याही आज भी नहीं सूख पाई है, जैसे आज ही लिखी गई हों ।


1.
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिस में इंसान को इंसान बनाया जाए

जिस की ख़ुश्बू से महक जाए पड़ोसी का भी घर
फूल इस क़िस्म का हर सम्त खिलाया जाए

आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहाँ जा के नहाया जाए

प्यार का ख़ून हुआ क्यूँ ये समझने के लिए
हर अँधेरे को उजाले में बुलाया जाए

मेरे दुख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझ से भी न खाया जाए

जिस्म दो हो के भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरे आँसू तेरी पलकों से उठाया जाए

गीत उन्मन है ग़ज़ल चुप है रुबाई है दुखी
ऐसे माहौल में ’नीरज’ को बुलाया जाए
2.
ख़ुशबू-सी आ रही है इधर जाफ़रान की
खिड़की खुली हुई है उनके मकान की

हारे हुए परिंदे ज़रा उड़ के देख तो
आ जाएगी ज़मीन पे छत आसमान की

बुझ जाए शरे-शाम ही जैसे कोई चिराग़
कुछ यों है शुरुआत मेरी दास्तान की

ज्यों लूट ले कहार ही दुलहिन की पालकी
हालत यही है आजकल हिंदोस्तान की

औरों के घर की धूप उसे क्यों पसंद हो
बेची हो जिसने रोशनी अपने मकान की

ज़ुल्फ़ों के पेंचो-ख़म में उसे मत तलाशिए
ये शायरी ज़ुबां है किसी बेज़ुबान की

नीरज से बढ़ के और धनी कौन है यहां
उसके हृदय में पीर है सारे जहान की

3.
 

बदन पे जिस के शराफ़त का पैरहन देखा
वो आदमी भी यहाँ हम ने बद-चलन देखा

ख़रीदने को जिसे कम थी दौलत-ए-दुनिया
किसी कबीर की मुट्ठी में वो रतन देखा

मुझे मिला है वहाँ अपना ही बदन ज़ख़़््मी
कहीं जो तीर से घायल कोई हिरन देखा

बड़ा न छोटा कोई फ़र्क़ बस नज़र का है
सभी पे चलते समय एक सा कफ़न देखा

ज़बाँ है और बयाँ और उस का मतलब और
अजीब आज की दुनिया का व्याकरन देखा

लुटेरे डाकू भी अपने पे नाज़ करने लगे
उन्होंने आज जो संतों का आचरन देखा

जो सादगी है कुहन में हमारे ऐ ’नीरज’
किसी पे और भी क्या ऐसा बाँकपन देखा


4.
 

है बहुत अँधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए

रोज़ जो चेहरे बदलते हैं लिबासों की तरह
अब जनाज़ा ज़ोर से उन का निकलना चाहिए

अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा
ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए

फूल बन कर जो जिया है वो यहाँ मसला गया
ज़ीस्त को फ़ौलाद के साँचे में ढलना चाहिए

छीनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो
आँख से आँसू नहीं शोला निकलना चाहिए

दिल जवाँ सपने जवाँ मौसम जवाँ शब भी जवाँ
तुझ को मुझ से इस समय सूने में मिलना चाहिए

 

5.
 

जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा

जितनी भारी गठरी होगी
उतना तू हैरान रहेगा

उस से मिलना नामुम्किन है
जब तक ख़ुद का ध्यान रहेगा

हाथ मिलें और दिल न मिलें
ऐसे में नुक़सान रहेगा

जब तक मंदिर और मस्जिद हैं
मुश्किल में इंसान रहेगा

’नीरज’ तू कल यहाँ न होगा
उस का गीत विधान रहेगा



शिवसिंह सरोज


‘शिवसिंह सरोज’, एक पुस्तक का नाम है, जिसकी रचना आज से 143 वर्ष पूर्व जिला उन्नाव, ग्राम कांथा निवासी शिवसिंह सेंगर नाम के एक साहित्यानुरागी ने की थी । इस ग्रंथ में पंद्रहवीं शताब्दी से लेकर सन् 1875 ई. तक के 1003 हिंदी कवियों का संक्षिप्त आलोचनात्मक विवरण और उनकी कुछ रचनाएं सम्मिलित हैं । यह पुस्तक  परवर्ती हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वालों के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्रोत रहा है । डॉ. जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपनी अंग्रेज़ी किताब ‘द माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’, मिश्र बंधुओं ने ‘मिश्र बंधु विनोद’ और आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिखने में ‘शिवसिंह सरोज’ की सहायता ली थी ।

शिव सिंह सेंगर साहित्यकार तो नहीं थे, थोड़ी-बहुत काव्य-रचना कर लेते थे किंतु अध्ययनप्रेमी अवश्य थे । खा़स बात यह है कि वे पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर थे । यह जानना बहुत रोचक है कि ऐसा व्यक्ति हिंदी काव्य के 400 वर्षों का विवरण आखिर कैसे लिख सका !  हिंदी, उर्दू के अतिरिक्त अरबी, फ़ारसी और संस्कृत की सामान्य जानकारी शिवसिंह को थी । इन्हें पुस्तकें इकट्ठा करने और पढ़ने में बहुत रुचि थी । घर में एक लघु पुस्तकालय ही बन गया था जिसमें हस्तलिखित ग्रंथ अधिक थे । उनके पुस्तक प्रेमी होने का प्रमाण इस प्रसंग में  निहित है-

सन् 1858 ई. में ज़िला रायबरेली के किसुनदासपुर गांव के एक विद्याप्रेमी पं. ठाकुर प्रसाद त्रिपाठी का जब देहांत हुआ तब उनके चार महामूर्ख पुत्रों ने उनके द्वारा संग्रहित पुस्तकों के 18-18 बस्ते बांट लिए और कौड़ियों के भाव बेच डाले । शिवसिंह ने भी इनसे 200 ग्रंथ खरीद कर अपने पुस्तकालय को और समृद्ध किया । इन पुस्तकों के अध्ययन से शिवसिंह में काव्य और कवियों के प्रति रुचि में और वृद्धि हुई ।

‘शिवसिंह सरोज’ क्यों लिखा गया, इसका उत्तर उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका में दे दिया है-
 ‘‘मैंने सन् 1876 ई. में भाषा कवियों के जीवन चरित्र विषयक एक-दो ग्रंथ ऐसे देखे जिनमें ग्रंथकर्ता ने मतिराम इत्यादि ब्राह्मणों को लिखा था कि वे असनी के महापात्र भाट हैं । इसी तरह की बहुत सी बातें देख कर मुझसे चुप नहीं रहा गया । मैंने सोचा कि अब कोई ग्रंथ ऐसा बनाना चाहिए जिसमें प्राचीन और अर्वाचीन कवियों के जीवन चरित्र, सन्-संवत, जाति, निवास-स्थान आदि कविता के ग्रंथों समेत विस्तारपूर्वक लिखे हों । ’’

सन् 1877-78 में उन्होंने ग्रंथों का गहराई से अध्ययन प्रारंभ किया और एक वर्ष और 3 महीने में ‘शिवसिंह सरोज’ का लेखन पूर्ण कर लिया । मुंशी नवल किशोर प्रेस से 1878 में ही इस ग्रंथ का पहला संस्करण, 1887 में दूसरा संस्करण और 1926 में सातवां संस्करण प्रकाशित हुआ । आज से 143 वर्ष पहले शिव सिंह सेंगर ने ऐसे समय में यह महत्वपूर्ण कार्य संपन्न किया जब कोई बड़ी साहित्यिक संस्था नहीं थी जिसका सहयोग उन्हें मिल पाता, तत्कालीन ब्रिटिश शासन से अनुदान प्राप्त करना भी कठिन था ।

कुछ लोगों को यह भ्रम हो सकता है कि ‘शिवसिंह सरोज’ में हिंदी साहित्य के इतिहास का विवरण है । किंतु ऐसा नहीं है । यह एक काव्य संग्रह है । इस में 500 से अधिक पृष्ठ हैं । ग्रंथ के प्रारंभ में 12 पृष्ठों की भूमिका है । इस भूमिका में ग्रंथ लिखने का कारण, आधार ग्रंथों की सूची, संस्कृत साहित्य-शास्त्र और हिंदी भाषा काव्य का संक्षिप्त विवरण दिया गया है । उसके पश्चात 376 पृष्ठों में 839 कवियों की रचनाओं का संग्रह है । अंत में 125 पृष्ठों में 1003 कवियों के संक्षिप्त जीवन परिचय दिए गए हैं ।

शिवसिंह सेंगर ने कुछ छंदों की रचना की थी । कवियों के परिचय में उन्होंने अपना नाम इस तरह उल्लिखित किया है-
‘‘21. शिवसिंह सेंगर, कांथा, जिला उन्नाव के निवासी, संवत् 1878 में उ.।’’

आगे उन्होंने लिखा है- ‘‘अपना नाम इस ग्रंथ में लिखना बड़े संकोच की बात है । कारण यह कि हमें कविता का कुछ भी ज्ञान नहीं । इस हमारी ढिठाई को विद्वज्जन क्षमा करें । काव्य करने की शक्ति हममें नहीं है । काव्य इत्यादि सब प्रकार के ग्रंथों को इकट्ठा करने का बड़ा शौक है । हमने अरबी, संस्कृत, फ़ारसी आदि के सैकड़ों अद्भुत ग्रंथ जमा किए हैं और करने जा रहे हैं। इन विद्याओं का हमें थोड़ा अभ्यास भी है ।’’

इस अनूठे साहित्यसेवी का जन्म सन् 1833 ई. उत्तर प्रदेश के कांथा गांव में हुआ था जो लखनऊ  से लगभग 40 कि.मी. दक्षिण में है। इन के पिता रणजीत सिंह कांथा के ताल्लुकेदार थे । शिवसिंह का देहावसान 1879 ई. में मात्र 45 वर्ष की आयु में हुआ ।

शिवसिंह सेंगर की इस कहानी से यह बात प्रमाणित होती है कि एक सामान्य व्यक्ति भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति होते हुए एक कालजयी कार्य सम्पन्न कर  सकता है ।





पुस्तक के प्रथम संस्करण के मुखपृष्ठ का चित्र । शीर्षक के नीचे उर्दू में भी ‘शिवसिंह सरोज’ लिखा है । यह चित्र उस समय के पुस्तकों के मुखपृष्ठ की डिज़ाइन, भाषा  और वर्तनी का रोचक नमूना प्रदर्शित करता है ।

-महेन्द्र वर्मा

एक बस्तरिहा गीत और झपताल



परंपरागत जनजातीय गीतों की कुछ अपनी विशिष्टताएं होती हैं । पहली, इनमें 3, 4 या कहीं-कहीं 5 स्वरों का ही उपयोग होता है । आधुनिक संगीत में कुल 12 स्वर होते हैं । कर्नाटक संगीत में 22 स्वर या श्रुतियां होती हैं । लेकिन जनजातीय गीत-संगीत में और कुछ मैदानी लोक गीतों में भी केवल 3 से 5 स्वर ही प्रयुक्त होते हैं ।

उदाहरण के लिए छत्तीसगढ के सुवा गीत के एक मौलिक रूप में 4 स्वरों का ही प्रयोग होता है । यहां उस सुवा गीत का जिक्र हो रहा है जिसे गांवों में महिलाएं ताली बजाती हुई गाती हैं, किसी वाद्य-यंत्र का सहारा नहीं लिया जाता । पंथी गीत और एक बिहाव गीत में 4 स्वरों का  तो जस गीत में 5 स्वरों का प्रयोग होता है । पंथी गीत के मुखड़े में केवल दो स्वरों की ही आवश्यकता होती है ।

दूसरी विशेषता, इन गीतों में अंतरा के लिए अलग धुन नहीं होती । स्थायी की धुन में ही सभी अंतरे गाए जाते हैं ।

तीसरी विशेषता, इन गीतों के कुछ बहुत पुराने और मौलिक रूपों में किसी वाद्य-यंत्र का उपयोग नहीं होता । जैसे, सुवा गीत और बिहाव गीत में । खेतों में काम करते हुए गाए जाने वाले ददरिया गीतों में भी वाद्य-यंत्र की आवश्यकता नहीं होती । लेकिन उनमें ताल स्वाभाविक रूप से मौजूद होता है ।

इन विशेषताओं से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । एक तो ये कि मनुष्य ने गीत-संगीत की शुरुआत इसके सरलतम रूप से की अर्थात 2-3 स्वर वाले गीतों से । दूसरा ये कि ताल वाद्यों और अन्य सहायक वाद्य-यंत्रों का प्रयोग संगीत के विकास क्रम में बहुत बाद में शुरू हुआ । आज भी चीन, जापान, तिब्बत और कुछ अफ्रीकी देशों में 5 स्वर वाले गीत-संगीत ही वहां के मुख्य संगीत-रूप हैं ।

बात शुरू हुई थी जनजातीय गीतों से । बस्तर के कांंडागांव जिले के बड़गैंया गांव के जनजातीय कलाकारों द्वारा गाया गया ये पारंपरिक गोंडी गीत पहले सुन लेते हैं -

अब इस गीत की विशेषताएं-

इस समूह गीत में केवल 3 स्वरों का प्रयोग हुआ है । आधार स्वर सा के अतिरिक्त शुद्ध गंधार और मंद्र सप्तक के पंचम का । गीत की पंक्ति ‘ग’ स्वर से आरंभ होती है लेकिन इस स्वर को केवल छूकर ‘सा’ तक मीड़ जैसे रूप में वापस आती है और फिर एक निश्चित लय में सा से ग तथा ग से सा के बीच मानो झूलती रहती है ।  मंद्र सप्तक के ‘प’ में पंक्ति के गायन का केवल अंतिम छोर ही पहुंचता है ।

प, सा और ग की यह स्वर-संगति बहुत ही कर्णप्रिय है । यह गीत मन में अनाम-सा कोमल भाव भी जगाता है। संगीत-शास्त्रों में कहा गया है कि 5 स्वर से कम का कोई राग संभव नहीं है। भले ही यह गीत इस परिभाषा के अनुसार राग के दायरे में न हो किंतु मन में ‘राग’ उत्पन्न करने में तो सक्षम है ही ।

गीत में ताल वाद्य का प्रयोग हुआ है । सुनने से प्रतीत होता है कि जो ताल प्रयुक्त हुआ है वह केवल 2 मात्रा का है । लेकिन लय के अनुसार पंक्ति की एक आवृत्ति में मात्राओं को गिनने से पता चलता है कि कुल 10 मात्राएं हैं ।इस गीत में झपताल नहीं बजा है, 2-2 मात्रा की 5 आवृत्ति से यह गीत के लय के अनुकूल हो जाता है । किंतु गीत का प्रवाह झपताल के अनुरूप है । क्योंकि एक आवृत्ति में पंक्ति में जो बलाघात हैं वे पहली, तीसरीं, छठवीं और आठवीं मात्राओं में हैं । स्पष्ट है, ये झपताल है- धी ना, धी धी ना, ती ना, धी धी ना ।

कहने की आवश्यकता नहीं कि संगीत के शास्त्र के अंकुर लोकराग के बीज से ही प्रस्फुटित हुए हैं ।

तो, यह तय है कि संगीत का उद्गम जानने के लिए हमें जनजातीय संगीत-सागर में डूबना-उतराना होगा ।



-महेन्द्र वर्मा

तीन मणिकाएं




1.

तुम्हारा झूठ
उसके लिए
सच है
मेरा सच
किसी और के लिए
झूठ है
ऐसा तो होना ही था
क्योंकि
सच और झूठ को
तौलने वाला तराजू
अलग-अलग है
हम सबका  !

2.

जो नासमझ है
उसे समझाने से
क्या फ़ायदा
और
जो समझदार है
उसे
समझाने की क्या ज़रूरत 

क्या इसका
ये अर्थ निकाला जाए
कि

जो समझदार
किसी नासमझ को

समझाने की कोशिश करते हैं
वे नासमझ हैं !!

3.

मैं
तुम्हारे लिए
कुछ और हूं
किसी और के लिए
कुछ और
यानी
दूसरों की
अलग-अलग  नज़रों में
मैं अलग-अलग ‘मैं’ हूं
बस
मैं सिर्फ़ वह नहीं हूं
‘जो मैं हूं’ !!!

                                                         

                                                                          -महेन्द्र वर्मा