झूठ का सच



यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति यदा-कदा अनेक कारणों से झूठ बोलता है किंतु जब यह किसी व्यक्ति के लिए आदत या लत बन जाती है तो समाज में वह निंदा का पात्र बन जाता है । कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि कोई उसे झूठ बोलकर धोखा दे । आदतन झूठा वह आदमी होता हे जो पहले भी झूठ बोलता था, अभी भी झूठ बोल रहा है और आगे भी झूठ बोलेगा ।

यदि कोई ऐसी बात कहता है जिसके बारे में बोलने वाले को भी विश्वास नहीं होता कि यह सच है फिर भी इस इरादे से बोलता है कि सुनने वाले उस बात को सच मान लें, झूठ बोलने का यही तात्पर्य है । स्पष्ट है कि झूठ में बेइमानी और धोखा दोनों शामिल हैं ।


चूंकि ‘झूठ बोलना’ मानव व्यवहार से संबंधित है इसलिए मनावैज्ञानिकों ने इस विषय पर भी पर्याप्त अध्ययन किया है । झूठ के संबंध में पहले जो चिंतन था वह नैतिकता और धार्मिकता पर आधारित था और उपदेशपरक था । लेकिन हाल के वर्षों में मनोवैज्ञानिकों ने यह जानने की कोशिश की है कि मनुष्य झूठ बोलता क्यों है और कौन-सी चीज उसे झूठ बोलने के लिए प्रेरित करती है।

झूठ बोलने के संबंध में सबसे पहले व्यवस्थित रूप से अध्ययन कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के समाज मनोविज्ञानी बेला डे पाउलो और उसके साथियों ने दो दशक पहले प्रारंभ किया था । पाउलो ने अपनी पुस्तक The Psychology of Lying में झूठ बोलने के कारणों का उल्लेख किया है ।  A  National Geographic  पत्रिका के जून 2017 के अंक में इस विषय पर कवर स्टोरी प्रकाशित की थी । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार लोग अलग-अलग कारणों से झूठ बोलते हैं -
 1. अपनी गलती और अपराध को छिपाने के लिए, 2. स्वयं को इच्छित मुकाम में प्रतिष्ठित करने के लिए, 3. दूसरों को भ्रमित कर प्रभावित करने के लिए, 4. व्यक्तिगत लाभ के लिए, 5. सच्चाई को उपेक्षित करने के लिए 6. कुछ लोगों को नुकसान पहुंचाने के लिए, 7. मज़ाक करने के  लिए, 8. अन्य कारणों से ।

American Journal of Forensic Psychiatry  में प्रकाशित एक लेख और टेक्सास यूनीवर्सिटी की मनावैज्ञानिक जैकलीन इवान्स और उनके सहयोगियों के अनुसार झूठ बोलने वालों के कुछ लक्षण इस प्रकार हैं -
1.उनकी सोच अस्थिर होती है, 2. स्वयं के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हैं या छिपाते हैं, 3.‘क्यों’ का उत्तर देने से बचते हैं, 4. उत्तर देने के पूर्व सवाल को दुहराते हैं, 5. बोलते समय ‘पिच’ में असाधारण परिवर्तन होता रहता है,  6.ऐसा प्रदर्शित करते हैं जैसे वे बहुत परिश्रम करते हैं, 5. उनके कथन निरर्थक और विरोधाभासी होते हैं, 7. वे चिंतित और तनावग्रस्त रहते हैं, 6. उनमें हीन भावना होती है ।

मनोविज्ञानी शेली टेलर के अनुसार, झूठ बोलने वाले आत्ममुग्ध होते हैं । भाषा पैटर्न पर शोध करने वाले मनोविज्ञानी डायना बेरी के अनुसार झूठ बोलने और लिखने वाले प्रायः अपनी बातों में ‘प्रथम पुरुष’ का प्रयोग करते हैं । डे पाउलो ने अपने शोध में पाया कि ऐसे लोग अक्सर विवादित रहते हैं । हार्वर्ड में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ. ग्राम्ज़ो के अनुसार झूठ बोलना मूल रूप से स्वयं को एक लक्ष्य की ओर स्वयं को प्रोजेक्ट करने और अपनी इच्छाओं को पोषित करने की कवायद है ।

Nature Neuroscience  में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि झूठ बोलते समय व्यक्ति के मस्तिष्क का ‘प्रोत्साहन केन्द्र’ सक्रिय हो जाता है । इससे प्रेरित होकर वह अपने व्यवहार में निरंतर झूठ बोलने या धोखा देने का पैटर्न जारी रखता है । टेक्सास विश्वविद्यालय की विभागीय पत्रिका Personality and Social Psychology  की एक रिपोर्ट के अनुसार झूठे लोग जोड़-तोड़ करने वाले और ‘मेकियावेलियन’ होते हैं । मनोविज्ञान में ‘मेकियावेलियन’ शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए किया जाता है जो स्वयं की इच्छा और लक्ष्य की पूर्ति के लिए दूसरों के साथ धोखा, छल-कपट और हिंसा तक का व्यवहार करता है ।

चिकित्सा मनोविज्ञान में Pseudologia Fantastica मनुष्य की ऐसी असामान्य मनःस्थिति को कहा जाता है जब व्यक्ति झूठ बोलने का आदी हो या बाध्य हो । इसी तरह की एक और स्थिति को Mitomanía  कहते हैं जिसमें व्यक्ति की अतिशयोक्तिपूर्ण झूठ बोलने की असामान्य प्रवृत्ति होती है । मनोचिकित्सकों के अनुसार ये मानसिक रोग कुण्ठा और हीनभावनाग्रस्त व्यक्ति को होने की अधिक संभावना होती है। ऐसे लोग स्वयं की झूठी प्रतिष्ठा के लिए चतुराई से इस तरह बार-बार झूठ बोलते हैं कि लोग उसका विश्वास करें ।

लगभग 200 वर्ष पूर्व आयरलैंड के प्रसिद्ध साहित्यकार जोनाथन स्विफ्ट ने  Essay on the Art of Political Lying   में एक विचित्र बात लिखी है- ‘‘ जिस प्रकार एक बड़ा लेखक अपने पाठकों को नापसंद करता है उसी प्रकार एक बड़ा झूठा अपने ही विश्वासियों को नापसंद करता है ।’’

-महेन्द्र वर्मा

सच क्या है


आज से तीन-चार लाख वर्ष पूर्व, जब मनुष्य अपने विकास की प्रारंभिक अवस्था में था, तब किसी समय एक घटना घटित हुई । इस घटना की प्रतिक्रिया दो रूपों में व्यक्त हुई ।

उस घटना को पहले जान लें -

जंगल में दो मनुष्य भोजन की तलाश में जा रहे थे । उन्होंने देखा कि कुछ दूरी पर एक मनुष्य कंदमूल खोज रहा था तभी झाड़ियों में छिपे एक शेर ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसे मार डाला । दोनों मनुष्य भयभीत हो गए । वे तत्काल अपनी गुफा में लौट आए ।

चूंकि उनमें अन्य प्राणियों की तुलना में कुछ अधिक सोचने की क्षमता विकसित हो गई थी इसलिए उन दोनों के मन में भयजनित सोच की एक प्रक्रिया शुरू हुई कि शेर किसी दिन उन पर भी आक्रमण कर देगा और उन्हें खा जाएगा । वे सोचने लगे कि शेर की भयकारक शक्ति से बचाव कैसे किया जाए । आत्मरक्षा की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से उनमें थी ।

उन दोनों की सोचने की दिशा अलग-अलग थी । एक ने सोचा, शेर किसी अदृश्य शक्ति द्वारा प्रेरित है । यदि उस शक्ति को किसी तरह प्रसन्न कर दिया जाए तो उसके द्वारा प्रेरित वह शेर मुझ पर आक्रमण नहीं करेगा । उस मनुष्य ने अदृश्य शक्ति को प्रसन्न करने के लिए मन ही मन एक ‘प्रार्थना’ बनाई । अगले दिन कुछ कंदमूल लेकर वह एक स्थान पर गया, कंदमूल उस अदृश्य को समर्पित करते हुए प्रार्थना की कि आप इस भयानक शेर से मेरी रक्षा करें । वह निश्चिंत हो गया कि शेर अब मुझ पर आक्रमण नहीं करेगा । मनुष्य के मन में कुछ शांति की अनुभूति हुई ।

लेकिन दूसरा मनुष्य कुछ अलग सोच रहा था । वह शेर को ही पराजित करने का उपाय सोच रहा था । जंगल में घूमते समय उसे अनुभव हुआ था कि जब शरीर पर कांटा चुभता है तो कष्ट होता है । फिसल कर गिर जाएं तो नुकीले पत्थरों से चोट लग जाती है । इसी अनुभव से प्रेरित होकर उसने सोचा कि यदि शेर पर भी नुकीले पत्थर से वार किया जाए तो शेर भयभीत हो सकता है । अपने इस विचार पर उसने ‘प्रयोग’ किया । लकड़ी के  सीघे टुकड़े के एक छोर पर उसने एक नुकीला पत्थर लताओं से बांध दिया । उसे एक पेड़ की तरफ जोर से फेंका । वह यह देखकर संतुष्ट हुआ कि पत्थर का टुकड़ा पेड़ के तने में घंस गया है ।

दोनों अगले दिन जंगल में जा रहे थे । वह शेर फिर दिखा । शेर ने उन दोनों को देख लिया और उनकी तरफ तेजी से दौड़ा । पहला मनुष्य आंख बंद कर ‘प्रार्थना’ करने लगा । दूसरे ने अपना स्वनिर्मित साधन शेर की ओर फेंका । शेर को चोट लगी । वह डरकर भाग गया । पहले मनुष्य ने आंखें खोलीं, देखा, शेर वहां नहीं था । अदृश्य शक्ति के प्रति उसके मन में ‘आस्था’ उत्पन्न हुई । उसे विश्वास हुआ कि उसकी ‘अदृश्य शक्ति से प्रार्थना’ के कारण ही शेर डर गया । लेकिन सत्य क्या है, ये दूसरा मनुष्य ही जानता था जिसे अपनी ‘तार्किक शक्ति’ पर विश्वास था ।


विज्ञान और धर्म का ‘रोपण’ आदिम मनुष्यों के द्वारा एक ही समय में हुआ ।

पहले मनुष्य ने जिस पौधे का रोपण किया उसके वंशजों ने उसे सिंचित किया, बड़ा किया । लेकिन पांच हजार वर्ष पूर्व उस वृक्ष की कलमें काट-काट कर लोग अपने-अपने क्षेत्र में लगाने लगे और उसे भिन्न-भिन्न नाम भी देने लगे।  । ‘प्रार्थनाएं‘ भी अलग-अलग बन गईं और अलग-अलग ‘कंदमूल’ भी ।

दूसरे मनुष्य ने जो पौधा रोपा उसे भी उसके वंशजों ने सिंचित किया । लेकिन उसकी कलमें काट कर किसी ने अलग पौधा नहीं उगाया । आज भी संसार के सभी लोग उसी आदिम वृक्ष की छांव में एक साथ खड़े हैं ।
धर्म भेदभाव करता है, विज्ञान नहीं ।

उस मनुष्य ने जो ‘प्रार्थना’ की वह कौन-सी थी, आज कोई नहीं जानता । लेकिन दूसरे मनुष्य ने जो साधन बनाया वह वास्तव में आज के यांत्रिक भौतिकी के छः मूलभूत सरल मशीनों में से दो के प्रयोग की शुरुआत थी जिनको 
विज्ञान का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है ।

सत्य की ‘कलमें’ नहीं लगाई जा सकतीं ।

-महेन्द्र वर्मा

धूप, चांदनी, सीप, सितारे




सच्चाई की बात करो तो, जलते हैं कुछ लोग,
जाने कैसी-कैसी बातें, करते हैं कुछ लोग।

धूप, चांदनी, सीप, सितारे, सौगातें हर सिम्त,
फिर भी अपना दामन ख़ाली, रखते हैं कुछ लोग।

उसके आँगन फूल बहुत है, मेरे आँगन धूल,
तक़दीरों का रोना रोते रहते हैं कुछ लोग।

इस बस्ती से शायद कोई, विदा हुई है हीर,
उलझे-उलझे, खोए-खोए, दिखते हैं कुछ लोग।

ख़ुशियाँ लुटा रहे जीवन भर, लेकिन अपने पास,
कुछ आँसू, कुछ रंज बचाकर, रखते हैं कुछ लोग।

इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैराँ हूँ , यह सुनते ही क्यूँ , हँसते हैं कुछ लोग।

जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।


                                                                -महेंद्र वर्मा