परंपरागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान




आज से हज़ारों वर्ष पूर्व जब मनुष्य ने प्राकृतिक घटनाओं को समझना प्रारंभ किया तब उसके पास पर्याप्त ज्ञान नहीं था । इसलिए उसने अनुमान के आधार पर व्याख्या करने का प्रयास किया । जैसे, सूर्य और चंद्रग्रहण की घटना का कारण यह समझा गया कि इन्हें कोई राक्षस निगल लेता है । यह व्याख्या उनके लिए ‘ज्ञान’ बन गई । प्राचीन धर्म और दर्शन की शुरुआत इसी तरह से हुई और आज भी इन दोनों क्षेत्रों में अनुमान के आधार पर ज्ञान रचने की यही परंपरा जारी है ।


यदि धर्म और दर्शन द्वारा इस तरह संकलित ज्ञान सत्य और शाश्वत होता तो इनकी अनेक शाखाएं-उपशाखाएं नहीं होतीं । ये शाखाएं एक-दूसरे के द्वारा स्थापित ज्ञान को ग़लत सिद्ध करती रहती हैं ।


धर्म और दर्शन की एक और परंपरा है, ये अपनी बातों को स्पष्ट रूप से सरल भाषा में व्यक्त न कर काव्यात्मक भाषा में व्यक्त करते रहे हैं । जब भाषा और तर्क भी हार मानने लगे तब धर्म आस्था का विषय बन गया और उसे ‘अकथ’ कह कर तर्क से दूर रखा जाने लगा । लेकिन परंपरागत दर्शन में कविता की भाषा के समान अस्पष्ट और भावनात्मक तर्क सदैव दिए जाते रहे ।


बीसवीं सदी के जर्मन विचारक हैन्स राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत धर्म और दर्शन की इस अस्पष्ट और काव्यात्मक भाषा की आलोचना की और कहा कि दर्शन के प्रश्नों का उत्तर विज्ञान की भाषा में ही दिए जाने चाहिए । 1930 ई. में उन्होंने ‘वैज्ञानिक दर्शन का उदय’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने परंपरागत दर्शन की समस्याओं का विश्लेषण करते हुए उनका आधुनिक विज्ञान की भाषा में तर्कसंगत उत्तर प्रस्तुत किया है ।

हैन्स राइख़ेन बाख़ (1891-1953)



हैन्स राइख़ेन बाख़ के उक्त पुस्तक से उद्धरित निम्नांकित विचार मनन करने योग्य हैं -
‘‘सृष्टि की कहानी एक मिथ्या व्याख्या है.....मनोवैज्ञानिक इच्छाओं की पूर्ति को व्याख्या नहीं कहा जा सकता.....परंपरागत  दार्शनिक अवैज्ञानिक भाषा इसलिए बोलता है क्योंकि वह उन प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करता है जिनसे संबंधित ज्ञान उसके पास उपलब्ध ही नहीं होते....।’’


‘‘...विज्ञान के जिम्मे ऐसा सामाजिक कार्य आ गया है जिसकी पूर्ति पहले धर्म के द्वारा होती थी, वह काम था- अंतिम सुरक्षा प्रदान करने का । विज्ञान में विश्वास ने बड़े पैमाने पर ईश्वर में विश्वास का स्थान ले लिया है......विज्ञान नई संभावनाओं के द्वार खोलता है । संभव है, किसी दिन हमारा परिचय उन भावनाओं से करा दे जिनका हमने पहले कभी अनुभव ही नहीं किया....।’’

‘‘तर्क से संबंधित समस्याएं चित्रमय भाषा से हल नहीं होतीं बल्कि उनके लिए गणितीय व्याख्या जैसी शुद्धता की आवश्यकता होती है.....नया तर्क परंपरागत दर्शन से नहीं बल्कि गणित की धरती से उत्पन्न हुआ है ।’’

‘‘.....उस व्यक्ति को जो सत्य को चाहता है, जब निषेधात्मक रूप में सत्य उपस्थित हो तो निराश नहीं होना चाहिए ।..अप्राप्य की मांग करने की अपेक्षा निषेधात्मक सत्य को जानना श्रेयस्कर है ।’’


अपनी पुस्तक में राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत दर्शन की भले ही आलोचना की हो लेकिन इसमें जहां भी वैज्ञानिक और गणितीय दृष्टिकोण लक्षित हुआ है उसकी प्रशंसा भी की है ।


विज्ञान प्रकृति के जितना निकट है, धर्म और दर्शन उससे उतनी ही दूर हैं । परंपरागत दर्शन और धर्म की मान्यताएं मनुष्य को कट्टरतावादी सोच की ओर उन्मुख करती हैं जबकि वैज्ञानिक दर्शन किसी मान्यता को अंतिम सत्य होने का दावा नहीं करता बल्कि उसका एक सत्य किसी और नए सत्य की शोध के लिए संभावनाओं का द्वार खोलता है ।

 
-महेन्द्र वर्मा

धर्म और विज्ञान



प्रकृति ने मनुष्य को स्वाभाविक रूप से तार्किक बुद्धि प्रदान की है । मनुष्य की यह क्षमता लाखों वर्षों की विकास यात्रा के दौरान विकसित हुई है । लेकिन सभी मनुष्यों में तर्कबुद्धि समान नहीं होती । जिनके पास इसकी कमी थी स्वाभाविक रूप से उनमें आस्थाबुद्धि विकसित हो गई ।

तर्कशील ने विज्ञान को अपनाया और आस्थावान ने धर्म को ।

विज्ञान प्रकृति की विशेषताओं का अध्ययन-मनन करता है, उस प्रकृति का जो स्वयंभू है, उन विशेषताओं का जो शाश्वत यथार्थ हैं । धर्म मनुष्य की मनोजन्य अवधारणाओं का चिंतन-मनन करता है , उन अवधारणाओं का जिसे न तो सिद्ध किया जा सकता है और न असिद्ध।

पृथ्वी पर जब मनुष्य नहीं थे तब भी प्रकृति ऐसी ही थी, उसकी विशेषताएं ऐसी ही थीं, तब भी तारों में हाइड्रोजन का विखंडन होता था, पिंडों में गुरुत्वाकर्षण था, पेड़-पौधे ऑक्सीजन छोड़ते थे, यानी विज्ञान तो था लेकिन तब धर्म नहीं था । धर्म प्रकृति का स्वाभाविक गुण नहीं है ।

धर्म प्रकृति का स्वाभाविक गुण भले नहीं है लेकिन धर्म के प्रारंभिक रूप मे प्रकृति की ही पूजा की जाती थी । धर्म का यह स्वरूप तार्किक रूप से भी यथेष्ट था किंतु बाद में कल्पनाजन्य विरूपित तर्क वाले लोगों ने धर्म की दिशा ही बदल दी । विज्ञान का प्रारंभिक रूप जैसा था वैसा ही आज भी है । लाखों वर्ष पहले आदिम मनुष्य ने जिस तरीके से पहली बार आग जलाई थी उसी तरीके से सामान्यतः आज भी जलाई जाती है- घर्षण से ।

विज्ञान एक है, धर्म अनेक । इस समय दुनिया में कबीलाई धर्मों सहित लगभग आठ हज़ार प्रकार के छोटे-बड़े धर्म प्रचलित हैं । यानी, आठ हज़ार परमात्मा हैं । उनके मानने वाले कहते हैं- हमारा परमात्मा ही सत्य है, औरों का नहीं । सभी आठ हजार परमात्माएं एक साथ सही भी और ग़लत भी कैसे हो सकते हैं ?

विज्ञान में संप्रदाय नहीं होते जबकि एक ही धर्म अनेक संप्रदायों में विभाजित है । विज्ञान एक विशाल वृक्ष की तरह है जिसकी अनेक शाखाएं हैं लेकिन तना एक ही है- तर्क । धर्म के अलग-अलग हज़ारों  वृक्ष हैं जिनकी शाखाएं कभी-कभी टूट कर अलग वृक्ष भी खड़ा कर लेती हैं- निजार्थ की आस्था ।

धर्म को यह कहने की ज़रूरत होती है- ‘मन को एकाग्र करो, ध्यान करो, ‘सत्य’ का दर्शन होगा’ । ऐसा इसलिए क्योंकि अनुयायी का मन एकाग्र नहीं होता । लेकिन प्रकृति के गुणों पर शोध करने वाले विज्ञानी को मन को एकाग्र करने का ज़रा भी प्रयास करना नहीं पड़ता । वह स्वभाव से ही एकाग्रचित्त होता है और इसीलिए वह प्रकृति के किसी सत्य का ‘दर्शन’ कर लेता है, भले ही लक्ष्यप्राप्ति में उसे वर्षों लग जाएं किंतु उसका ध्यान विचलित नहीं होता ।

कहा जाता है कि हर धर्म का लक्ष्य मानव और मानवता का कल्याण है । धर्म द्धारा किए गए मानव कल्याण की बातें किस्से-कहानियों में भले हों, यथार्थ जीवन में कोई उदाहरण नहीं मिलता । किंतु विज्ञान ने वास्तव में कल्याण किया है । आज से 70-80 साल पहले तक दुनिया भर के लाखों लोग चेचक के कारण मारे जाते थे । तब इसे दैवी आपदा माना जाता था । विज्ञान ने पूरी पृथ्वी से चेचक का उन्मूलन कर मानवता का हित किया ।

धर्म द्वारा प्रतिवर्ष लाखों लीटर दूध और रक्त अर्पित करने के बावजूद मानवता आज भी संकट में है । विज्ञान ने केवल ‘दो बूंद’ से करोड़ों लोगों को निःशक्त होने से बचा लिया ।

विज्ञान जो बातें बताता है, पूरी दुनिया उसे उसी रूप में अपना लेती है, अपने ढंग से अर्थ में परिवर्तन नहीं करता । जैसे, जब विज्ञान कहता है कि समान ब्लड ग्रुप वाले व्यक्ति आवश्यकता होने पर रक्त का परस्पर आदान-प्रदान कर सकते हैं, तो हर देश, हर जाति, हर धर्म के लोग इसे स्वीकार करते हैं, यह नहीं कहते कि मुझे अपने ही धर्म, जाति या वर्ण के व्यक्ति का रक्त चाहिए । धर्म  की  मान्यताओं  की  स्वीकार्यता  ऐसी  नहीं  होती ।

धर्म की बातों का अर्थ व्यक्तिनिष्ठ होता है, इसीलिए एक ही बात के कई अर्थ लगाए जाते हैं, अलग-अलग व्याख्या की जाती है, जबकि विज्ञान की बातों का अर्थ वस्तुनिष्ठ होता है, उनका अर्थ देश, जाति या धर्म के अनुसार नहीं बदलता ।

घर्मान्धता, धार्मिक कट्टरता, धर्मभीरु, धार्मिक पाखंड, धर्मिक उन्माद जैसे शब्द धर्म से ही निकले हैं । विज्ञान की दुनिया में ऐसे शब्दों का कोई अस्तित्व नहीं है । किसी  विज्ञानवेत्ता को कट्टर वैज्ञानिक या विज्ञानांध नहीं कहा जाता ।

धर्म अपनी बात मनवाने के लिए आक्रामक भी हो जाता है औ कभी अपनी बात को मान्यता दिलाने के लिए विज्ञान से गवाही भी दिलवाता है । विज्ञान को इसकी आवश्यकता नहीं ।

धर्म कहता है, मैंने सब कुछ जान लिया है विज्ञान कहता है, मैं अभी बहुत कम जान पाया हूं । वह सदैव जिज्ञासु होता है । विज्ञान अहंकार नहीं करता । 

धर्म ‘हारे को हरिनाम’ है, विज्ञान ‘जिन खोजा तिन पाइयां’ है ।

किसी धर्म के सौ-हज़ार पन्नों के ग्रंथ से बहुत अधिक विराट है प्रकृति का ग्रंथ जिसे प्रकृति ने स्वयं लिखा है, विज्ञान इसे ही पढ़ता और समझता है ।

-महेन्द्र वर्मा







भविष्य के संकटों का तारणहार विज्ञान ही है



दुनिया भर के वैज्ञानिक बार-बार यह चेतावनी देते रहे हैं कि निकट भविष्य में पृथ्वी पर जीवन के लिए बुनियादी आवश्यकताओं- शुद्ध वायु, जल और भोजन के अभाव का संकट अवश्यंभावी है । कुछ देशों में इनका अभाव अभी से दिखाई दे रहा है । प्रकृति ने इन बुनियादी आवश्यकताओं की सतत उपलब्धता के लिए स्वचालित व्यवस्था की थी किंतु मनुष्य ने स्वार्थवश इस व्यवस्था को विकृत किया । प्राकृतिक व्यवस्था के विकृतीकरण को नियंत्रित रखने का काम राजनीतिक सत्ता का है किंतु वे इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दे रहे, उल्टे वे वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरुपयोग कर रहे हैं ।

विज्ञान मनुष्य की इस दुश्चेष्टा पर नियंत्रण तो नहीं कर सकता किंतु वह भविष्य के इस संकट से उबरने का उपाय अवश्य खोज सकता है । इसके लिए वैज्ञानिक शोध संस्थाओं को पर्याप्त धन और कार्य करने की स्वतंत्रता चाहिए । साथ ही जन-मानस में विज्ञान के प्रति रुचि और विश्वास जगाने के लिए विज्ञान शिक्षा को प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है । समस्या यह है कि दुनिया भर की सरकारें वैज्ञानिक शोध संस्थाओं  और उच्च शिक्षा संस्थाओं को पर्याप्त आर्थिक सहायता और अवसर उपलब्ध नहीं करा रहे हैं ।

इन्हीं समस्याओं के प्रति सत्ता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए 2017 में भारत सहित दुनिया भर के एक लाख से अधिक वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकीविदों, शिक्षकों, वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं, और वैज्ञानिक सोच के समर्थकों ने विज्ञान और वैज्ञानिक   दृष्टिकोण की रक्षा के लिए दुनिया भर में 600 से अधिक शहरों में ‘मार्च फॉर साइंस’ जैसा महत्वपूर्ण आयोजन किया । अमेरिका के वैज्ञानिकों ने यह प्रयास इसलिए शुरू किया क्योंकि उनकी सरकार वैज्ञानिक साक्ष्यों की अनदेखी कर पेरिस समझौते से हटने वाली थी । अधिकांश देशों के वैज्ञानिकों की प्रतिक्रिया ने संकेत दिया कि लगभग हर जगह विज्ञान पर हमला हो रहा है । राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा वैज्ञानिक सबूतों की अनदेखी करने वाली नीतियां बनाई जा रही हैं और वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए वित्तीय सहायता को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं ।

‘मार्च फॉर साइंस’ का आयोजन पूरी दुनिया में अब प्रतिवर्ष होता है। इस बार यह आयोजन 4 मई, 2019 को भारत सहित विश्व भर में सम्पन्न हुआ । भारत में आम चुनाव के कारण विभिन्न संस्थाओं के वैज्ञानिकों को ‘मार्च फॉर साइंस’ की अनुमति नहीं मिली इसलिए मार्च में भाग लेने के बजाय भारत भर के वैज्ञानिकों ने विभिन्न शहरों में सेमिनार और सम्मेलन आयोजित किए।  वैज्ञानिकों ने 9 अगस्त को एक भारतीय मार्च आयोजित करने की योजना बनाई है। पूरे राष्ट्र में आयोजित सम्मेलनों और सेमिनारों में भाग लेने वाले वैज्ञानिकों ने जोर देकर कहा कि विज्ञान एक सशक्त और उन्नत समाज का आधार है। हाल के वर्षों में सरकार वैज्ञानिक खोजों को प्रोत्साहित करने में रुचि नहीं दिखा रही है और पृथ्वी की चिंताजनक स्थिति के संबंध में तैयार किए गए वैज्ञानिक आंकड़ों की अनदेखी कर रही है।

वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व के देश औसत रूप से शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6% से अधिक और वैज्ञानिक अनुसंधान पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 3 % खर्च करते हैं । भारत में ये आंकडे़ क्रमश 3 % और 0.85% हैं । नतीजतन, देश की आबादी का एक बड़ा तबका आजादी के 72 साल बाद भी अनपढ़ या अर्धसाक्षर बना हुआ है । हमारे कॉलेज और विश्वविद्यालय बुनियादी ढांचे, शिक्षण और गैरशिक्षण कर्मचारियों की भारी कमी से जूझ रहे हैं । अनुसंधान करने के लिए  सीएसआईआर और डीएसटी जैसी विज्ञान फंडिंग एजेंसियां तीव्र आर्थिक संकट से जूझ रही हैं । वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि शिक्षा पर जी.डी.पी. का 10 % और वैज्ञानिक शोधों के लिए 3 % राशि का प्रावधान रखा जाना चाहिए ।

उन्होंने इस बात पर भी  चिंता व्यक्त की कि प्राकृतिक संसाधनों का ‘अधिक लाभ के लिए दोहन’ हानिकारक प्रवृत्ति है । ये संसाधन देश-राज्य-धरती  की जरूरतों के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। पिछले कुछ वर्षों से असंवैधानिक तथ्यों का विज्ञान के रूप में प्रचार किया गया जो वास्तविक विज्ञान को नुकसान पहुंचा रहा है। विज्ञान को कमजोर करने के लिए निरंतर कुप्रयास किए जा रहे हैं । मीडिया द्वारा अवैज्ञानिक विचारों और अंधविश्वासों को इस तरह से प्रचारित किया जा रहा है कि लोग उस पर विश्वास करने लगते हैं। मिथक, पौराणिक कथाएं और भारतीय संस्कृति के बारे में विचित्र तथ्य विज्ञान के रूप में प्रचारित कर देश की प्राचीन संस्कृति को ही विकृत किया जा रहा है। इस प्रवृत्ति का विरोध करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51क के अनुसार सभी नागरिकों का कर्तव्य है ।

केवल विज्ञान ही जानता और समझता है कि पृथ्वी का जन्म कैसे हुआ, किस तरह वह जीवित रहती है और कैसे उसकी मृत्यु हो सकती है । इसलिए विज्ञान को बचाएं, विज्ञान को समझें और पृथ्वी को सुरक्षित रखें । पृथ्वी सुरक्षित नहीं होगी तो कोई देश कैसे सुरक्षित रह सकता है ?

-महेन्द्र वर्मा