प्राचीन उन्नत सभ्यताओं का ऐसा पतन !



विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में सिंधु घाटी, मिस्र, मेसोपोटामिया, बेबीलोन, यूनान और सुमेर की सभ्यताएं सबसे अधिक विकसित थीं । 3-4 हज़ार ईस्वी पूर्व में ये सभ्यताएं ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, कला, साहित्य दर्शन और गणित के क्षेत्र में शिखर पर थीं। भारत में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य आदि जैसे गणितज्ञ और कपिल, जैमिनी, व्यास, कणाद, पतंजलि और  गौतम जैसे महान दार्शनिक हुए । यूनान और अरब में यूक्लिड, पाइथोगोरस, उमर खय्याम, अल ख़्वारिज़्मी आदि जैसे गणितज्ञ और सुकरात, अरस्तू, अल ग़ज़ाली, अल मआरी जैसे अनेक दार्शनिक हुए । इन्हीं स्थानों के विद्वानों ने सर्वप्रथम यह प्रदर्शित किया कि मनुष्य एक बौद्धिक प्राणी है । ये सभी स्थान दक्षिण-मध्य एशिया और मध्य-पूर्व में स्थित हैं । लेकिन अब ऐसा प्रतीत होता है कि ये स्थान बौद्धिकता के तिरस्कार के केन्द्र बन गए हैं । ऐसा कहने का कुछ आधार है ।

पिछले 118 वर्षों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व भर के विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों को नोबल पुरस्कार दिए जाते रहे हैं । इन पुरस्कारों को बौद्धिकता और विद्वता का मापक माना जा सकता है । अब तक के नोबल पुरस्कार विजेताओं की सूची पर ध्यान  दें तो एक चौंकाने वाला परिणाम सामने आता है । दुनिया के जो स्थान 3-4 हज़ार वर्ष पूर्व विद्वानों के गढ़ थे उन स्थानों से नोबल विजेताओं की संख्या उंगलियों में गिने जाने लायक हैं । जबकि दुनिया के उन स्थानों से जहां की प्राचीन सभ्यता का कोई इतिहास नहीं है, अब तक सैकड़ों विद्वान नोबल पुरस्कार पा चुके हैं ।

इसका कारण क्या हो सकता है ? एक बात तो तय है कि जहां अशिक्षा होगी वहां बौद्धिकता और विद्वता का कोई मूल्य नहीं होगा । अशिक्षा का एक और उपउत्पाद है- धार्मिक अनुदारता। इन कथनों को ये आंकड़े सिद्ध करते हैं-

पिछले 118 वर्षों में कुल 935 नोबल पुरस्कार दिए गए हैं, जिनमें सामान्यतया दुनिया के हर प्रमुख धर्म और  संप्रदाय के विद्वान हैं । मुस्लिम धर्म को मानने वालों की संख्या विश्व में दूसरे क्रम में सबसे अधिक है, लगभग 1 अरब 80 करोड़, उस समुदाय के केवल 12 विद्वानों को यह पुरस्कार मिला है । इन 12 पुरस्कारों में भी 7 केवल शांति के लिए है, साहित्य के लिए 2 और विज्ञान के लिए केवल 3 ।

तीसरा सबसे बड़ा धर्म हिंदू है जिसे मानने वालों की संख्या 1 अरब 10 करोड़ है । अब तक इस समुदाय के केवल 7 विद्वानों को ही नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ है । शांति के लिए 1, साहित्य के लिए 1, अर्थशास्त्र के लिए 1 और विज्ञान के लिए 4 । विज्ञान के लिए जिन 4 विद्वानों को यह पुरस्कार मिला है उनमें से 3 विदेशी नागरिकता ले चुके थे ।

विश्व का पहले क्रम का सबसे बड़ा धर्म इसाई धर्म है । इसके अनुयायियों की संख्या लगभग 2 अरब 40 करोड़ है । इस समूह के विद्वान अब तक दिए गए 935 नोबल पुरस्कारों में से कुल 654 पुरस्कार जीत चुके हैं । विश्व में इनकी जनसंख्या केवल 30 प्रतिशत है लेकिन 70 प्रतिशत नोबल पुरस्कार इन्होंने ही प्राप्त किया है ।

इससे भी आश्चर्यजनक एक और तथ्य है । दुनिया में यहूदी धर्म के मानने वालों की संख्या मात्र 1 करोड़ 45 लाख है जो हमारे गोवा प्रदेश की जनसंख्या के बराबर है । किंतु इसके अनुयायियों ने अब तक कुल 198 नोबल पुरस्कार जीता है । यह कुल दिए गए पुरस्कार का 22 प्रतिशत है जबकि इनकी जनसंख्या विश्व की जनसंख्या का केवल 0.2 प्रतिशत है ।

उक्त आंकड़ों से कुछ निष्कर्ष निकलते हैं । जो समुदाय 118 वर्षां में भी अपनी जनसंख्या के अनुपात में नोबल पुरस्कार प्राप्त नहीं कर सके हैं वे ऐसे समुदाय हैं जो उच्च शिक्षा और शोधकार्यों में पीछे हैं और जो धार्मिक रूप से उदार नहीं हैं । पुरस्कार प्राप्त करने वाले समुदायों में ज्ञान-विज्ञान के प्रति आकर्षण है और वे धर्म के प्रति उदार दृष्टिकोण रखते हैं । इस संदर्भ में जापान एक अच्छा उदाहरण है ।
वहां धार्मिक पाखंड, धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवादिता जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है । वे तार्किक ज्ञान पर विश्वास करते हैं । इसीलिए इस छोटे और कम जनसंख्या वाले देश ने अब तक कुल 25 नोबल पुरस्कार प्राप्त किए हैं ।

ऐसा नहीं है कि नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले व्यक्ति बिल्कुल भी धार्मिक नहीं होते । 90 प्रतिशत पुरस्कार विजेता किसी सर्वोच्च सत्ता पर विश्वास करते हैं लेकिन वे कट्टर धार्मिक नहीं हैं । उनका धर्म केवल मानवता है । वे सच्चे अर्थों में मानवतावादी होते हैं । वास्तव में उन्होंने जो कार्य किया है वह केवल अपने ही धर्म के लिए नहीं बल्कि समूची मानवता के लिए है ।

जहां से हमने बात शुरू की थी वहीं लौट जाएं । मध्य-पूर्व और दक्षिण-मध्य एशिया की वर्तमान स्थिति पर विचार कीजिए । इतिहास की वे महान बौद्धिक और तार्किक कही जाने वाली सभ्यताएं जिनके ज्ञान-विज्ञान ने बाकी दुनिया को राह दिखाई , आज इसीलिए पीछे हो गईं क्योंकि उनकी परवर्ती पीढ़ियों ने ज्ञान-विज्ञान और धर्म के मूल तत्वों की संकीर्ण व्याख्या की , अशिक्षा और धार्मिक अनुदारता को प्रश्रय दिया । इन्होंने ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसे मानवतावादी मंत्रों को भुला दिया ।

-महेन्द्र वर्मा

परंपरागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान




आज से हज़ारों वर्ष पूर्व जब मनुष्य ने प्राकृतिक घटनाओं को समझना प्रारंभ किया तब उसके पास पर्याप्त ज्ञान नहीं था । इसलिए उसने अनुमान के आधार पर व्याख्या करने का प्रयास किया । जैसे, सूर्य और चंद्रग्रहण की घटना का कारण यह समझा गया कि इन्हें कोई राक्षस निगल लेता है । यह व्याख्या उनके लिए ‘ज्ञान’ बन गई । प्राचीन धर्म और दर्शन की शुरुआत इसी तरह से हुई और आज भी इन दोनों क्षेत्रों में अनुमान के आधार पर ज्ञान रचने की यही परंपरा जारी है ।


यदि धर्म और दर्शन द्वारा इस तरह संकलित ज्ञान सत्य और शाश्वत होता तो इनकी अनेक शाखाएं-उपशाखाएं नहीं होतीं । ये शाखाएं एक-दूसरे के द्वारा स्थापित ज्ञान को ग़लत सिद्ध करती रहती हैं ।


धर्म और दर्शन की एक और परंपरा है, ये अपनी बातों को स्पष्ट रूप से सरल भाषा में व्यक्त न कर काव्यात्मक भाषा में व्यक्त करते रहे हैं । जब भाषा और तर्क भी हार मानने लगे तब धर्म आस्था का विषय बन गया और उसे ‘अकथ’ कह कर तर्क से दूर रखा जाने लगा । लेकिन परंपरागत दर्शन में कविता की भाषा के समान अस्पष्ट और भावनात्मक तर्क सदैव दिए जाते रहे ।


बीसवीं सदी के जर्मन विचारक हैन्स राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत धर्म और दर्शन की इस अस्पष्ट और काव्यात्मक भाषा की आलोचना की और कहा कि दर्शन के प्रश्नों का उत्तर विज्ञान की भाषा में ही दिए जाने चाहिए । 1930 ई. में उन्होंने ‘वैज्ञानिक दर्शन का उदय’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने परंपरागत दर्शन की समस्याओं का विश्लेषण करते हुए उनका आधुनिक विज्ञान की भाषा में तर्कसंगत उत्तर प्रस्तुत किया है ।

हैन्स राइख़ेन बाख़ (1891-1953)



हैन्स राइख़ेन बाख़ के उक्त पुस्तक से उद्धरित निम्नांकित विचार मनन करने योग्य हैं -
‘‘सृष्टि की कहानी एक मिथ्या व्याख्या है.....मनोवैज्ञानिक इच्छाओं की पूर्ति को व्याख्या नहीं कहा जा सकता.....परंपरागत  दार्शनिक अवैज्ञानिक भाषा इसलिए बोलता है क्योंकि वह उन प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करता है जिनसे संबंधित ज्ञान उसके पास उपलब्ध ही नहीं होते....।’’


‘‘...विज्ञान के जिम्मे ऐसा सामाजिक कार्य आ गया है जिसकी पूर्ति पहले धर्म के द्वारा होती थी, वह काम था- अंतिम सुरक्षा प्रदान करने का । विज्ञान में विश्वास ने बड़े पैमाने पर ईश्वर में विश्वास का स्थान ले लिया है......विज्ञान नई संभावनाओं के द्वार खोलता है । संभव है, किसी दिन हमारा परिचय उन भावनाओं से करा दे जिनका हमने पहले कभी अनुभव ही नहीं किया....।’’

‘‘तर्क से संबंधित समस्याएं चित्रमय भाषा से हल नहीं होतीं बल्कि उनके लिए गणितीय व्याख्या जैसी शुद्धता की आवश्यकता होती है.....नया तर्क परंपरागत दर्शन से नहीं बल्कि गणित की धरती से उत्पन्न हुआ है ।’’

‘‘.....उस व्यक्ति को जो सत्य को चाहता है, जब निषेधात्मक रूप में सत्य उपस्थित हो तो निराश नहीं होना चाहिए ।..अप्राप्य की मांग करने की अपेक्षा निषेधात्मक सत्य को जानना श्रेयस्कर है ।’’


अपनी पुस्तक में राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत दर्शन की भले ही आलोचना की हो लेकिन इसमें जहां भी वैज्ञानिक और गणितीय दृष्टिकोण लक्षित हुआ है उसकी प्रशंसा भी की है ।


विज्ञान प्रकृति के जितना निकट है, धर्म और दर्शन उससे उतनी ही दूर हैं । परंपरागत दर्शन और धर्म की मान्यताएं मनुष्य को कट्टरतावादी सोच की ओर उन्मुख करती हैं जबकि वैज्ञानिक दर्शन किसी मान्यता को अंतिम सत्य होने का दावा नहीं करता बल्कि उसका एक सत्य किसी और नए सत्य की शोध के लिए संभावनाओं का द्वार खोलता है ।

 
-महेन्द्र वर्मा

धर्म और विज्ञान



प्रकृति ने मनुष्य को स्वाभाविक रूप से तार्किक बुद्धि प्रदान की है । मनुष्य की यह क्षमता लाखों वर्षों की विकास यात्रा के दौरान विकसित हुई है । लेकिन सभी मनुष्यों में तर्कबुद्धि समान नहीं होती । जिनके पास इसकी कमी थी स्वाभाविक रूप से उनमें आस्थाबुद्धि विकसित हो गई ।

तर्कशील ने विज्ञान को अपनाया और आस्थावान ने धर्म को ।

विज्ञान प्रकृति की विशेषताओं का अध्ययन-मनन करता है, उस प्रकृति का जो स्वयंभू है, उन विशेषताओं का जो शाश्वत यथार्थ हैं । धर्म मनुष्य की मनोजन्य अवधारणाओं का चिंतन-मनन करता है , उन अवधारणाओं का जिसे न तो सिद्ध किया जा सकता है और न असिद्ध।

पृथ्वी पर जब मनुष्य नहीं थे तब भी प्रकृति ऐसी ही थी, उसकी विशेषताएं ऐसी ही थीं, तब भी तारों में हाइड्रोजन का विखंडन होता था, पिंडों में गुरुत्वाकर्षण था, पेड़-पौधे ऑक्सीजन छोड़ते थे, यानी विज्ञान तो था लेकिन तब धर्म नहीं था । धर्म प्रकृति का स्वाभाविक गुण नहीं है ।

धर्म प्रकृति का स्वाभाविक गुण भले नहीं है लेकिन धर्म के प्रारंभिक रूप मे प्रकृति की ही पूजा की जाती थी । धर्म का यह स्वरूप तार्किक रूप से भी यथेष्ट था किंतु बाद में कल्पनाजन्य विरूपित तर्क वाले लोगों ने धर्म की दिशा ही बदल दी । विज्ञान का प्रारंभिक रूप जैसा था वैसा ही आज भी है । लाखों वर्ष पहले आदिम मनुष्य ने जिस तरीके से पहली बार आग जलाई थी उसी तरीके से सामान्यतः आज भी जलाई जाती है- घर्षण से ।

विज्ञान एक है, धर्म अनेक । इस समय दुनिया में कबीलाई धर्मों सहित लगभग आठ हज़ार प्रकार के छोटे-बड़े धर्म प्रचलित हैं । यानी, आठ हज़ार परमात्मा हैं । उनके मानने वाले कहते हैं- हमारा परमात्मा ही सत्य है, औरों का नहीं । सभी आठ हजार परमात्माएं एक साथ सही भी और ग़लत भी कैसे हो सकते हैं ?

विज्ञान में संप्रदाय नहीं होते जबकि एक ही धर्म अनेक संप्रदायों में विभाजित है । विज्ञान एक विशाल वृक्ष की तरह है जिसकी अनेक शाखाएं हैं लेकिन तना एक ही है- तर्क । धर्म के अलग-अलग हज़ारों  वृक्ष हैं जिनकी शाखाएं कभी-कभी टूट कर अलग वृक्ष भी खड़ा कर लेती हैं- निजार्थ की आस्था ।

धर्म को यह कहने की ज़रूरत होती है- ‘मन को एकाग्र करो, ध्यान करो, ‘सत्य’ का दर्शन होगा’ । ऐसा इसलिए क्योंकि अनुयायी का मन एकाग्र नहीं होता । लेकिन प्रकृति के गुणों पर शोध करने वाले विज्ञानी को मन को एकाग्र करने का ज़रा भी प्रयास करना नहीं पड़ता । वह स्वभाव से ही एकाग्रचित्त होता है और इसीलिए वह प्रकृति के किसी सत्य का ‘दर्शन’ कर लेता है, भले ही लक्ष्यप्राप्ति में उसे वर्षों लग जाएं किंतु उसका ध्यान विचलित नहीं होता ।

कहा जाता है कि हर धर्म का लक्ष्य मानव और मानवता का कल्याण है । धर्म द्धारा किए गए मानव कल्याण की बातें किस्से-कहानियों में भले हों, यथार्थ जीवन में कोई उदाहरण नहीं मिलता । किंतु विज्ञान ने वास्तव में कल्याण किया है । आज से 70-80 साल पहले तक दुनिया भर के लाखों लोग चेचक के कारण मारे जाते थे । तब इसे दैवी आपदा माना जाता था । विज्ञान ने पूरी पृथ्वी से चेचक का उन्मूलन कर मानवता का हित किया ।

धर्म द्वारा प्रतिवर्ष लाखों लीटर दूध और रक्त अर्पित करने के बावजूद मानवता आज भी संकट में है । विज्ञान ने केवल ‘दो बूंद’ से करोड़ों लोगों को निःशक्त होने से बचा लिया ।

विज्ञान जो बातें बताता है, पूरी दुनिया उसे उसी रूप में अपना लेती है, अपने ढंग से अर्थ में परिवर्तन नहीं करता । जैसे, जब विज्ञान कहता है कि समान ब्लड ग्रुप वाले व्यक्ति आवश्यकता होने पर रक्त का परस्पर आदान-प्रदान कर सकते हैं, तो हर देश, हर जाति, हर धर्म के लोग इसे स्वीकार करते हैं, यह नहीं कहते कि मुझे अपने ही धर्म, जाति या वर्ण के व्यक्ति का रक्त चाहिए । धर्म  की  मान्यताओं  की  स्वीकार्यता  ऐसी  नहीं  होती ।

धर्म की बातों का अर्थ व्यक्तिनिष्ठ होता है, इसीलिए एक ही बात के कई अर्थ लगाए जाते हैं, अलग-अलग व्याख्या की जाती है, जबकि विज्ञान की बातों का अर्थ वस्तुनिष्ठ होता है, उनका अर्थ देश, जाति या धर्म के अनुसार नहीं बदलता ।

घर्मान्धता, धार्मिक कट्टरता, धर्मभीरु, धार्मिक पाखंड, धर्मिक उन्माद जैसे शब्द धर्म से ही निकले हैं । विज्ञान की दुनिया में ऐसे शब्दों का कोई अस्तित्व नहीं है । किसी  विज्ञानवेत्ता को कट्टर वैज्ञानिक या विज्ञानांध नहीं कहा जाता ।

धर्म अपनी बात मनवाने के लिए आक्रामक भी हो जाता है औ कभी अपनी बात को मान्यता दिलाने के लिए विज्ञान से गवाही भी दिलवाता है । विज्ञान को इसकी आवश्यकता नहीं ।

धर्म कहता है, मैंने सब कुछ जान लिया है विज्ञान कहता है, मैं अभी बहुत कम जान पाया हूं । वह सदैव जिज्ञासु होता है । विज्ञान अहंकार नहीं करता । 

धर्म ‘हारे को हरिनाम’ है, विज्ञान ‘जिन खोजा तिन पाइयां’ है ।

किसी धर्म के सौ-हज़ार पन्नों के ग्रंथ से बहुत अधिक विराट है प्रकृति का ग्रंथ जिसे प्रकृति ने स्वयं लिखा है, विज्ञान इसे ही पढ़ता और समझता है ।

-महेन्द्र वर्मा







भविष्य के संकटों का तारणहार विज्ञान ही है



दुनिया भर के वैज्ञानिक बार-बार यह चेतावनी देते रहे हैं कि निकट भविष्य में पृथ्वी पर जीवन के लिए बुनियादी आवश्यकताओं- शुद्ध वायु, जल और भोजन के अभाव का संकट अवश्यंभावी है । कुछ देशों में इनका अभाव अभी से दिखाई दे रहा है । प्रकृति ने इन बुनियादी आवश्यकताओं की सतत उपलब्धता के लिए स्वचालित व्यवस्था की थी किंतु मनुष्य ने स्वार्थवश इस व्यवस्था को विकृत किया । प्राकृतिक व्यवस्था के विकृतीकरण को नियंत्रित रखने का काम राजनीतिक सत्ता का है किंतु वे इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दे रहे, उल्टे वे वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरुपयोग कर रहे हैं ।

विज्ञान मनुष्य की इस दुश्चेष्टा पर नियंत्रण तो नहीं कर सकता किंतु वह भविष्य के इस संकट से उबरने का उपाय अवश्य खोज सकता है । इसके लिए वैज्ञानिक शोध संस्थाओं को पर्याप्त धन और कार्य करने की स्वतंत्रता चाहिए । साथ ही जन-मानस में विज्ञान के प्रति रुचि और विश्वास जगाने के लिए विज्ञान शिक्षा को प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है । समस्या यह है कि दुनिया भर की सरकारें वैज्ञानिक शोध संस्थाओं  और उच्च शिक्षा संस्थाओं को पर्याप्त आर्थिक सहायता और अवसर उपलब्ध नहीं करा रहे हैं ।

इन्हीं समस्याओं के प्रति सत्ता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए 2017 में भारत सहित दुनिया भर के एक लाख से अधिक वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकीविदों, शिक्षकों, वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं, और वैज्ञानिक सोच के समर्थकों ने विज्ञान और वैज्ञानिक   दृष्टिकोण की रक्षा के लिए दुनिया भर में 600 से अधिक शहरों में ‘मार्च फॉर साइंस’ जैसा महत्वपूर्ण आयोजन किया । अमेरिका के वैज्ञानिकों ने यह प्रयास इसलिए शुरू किया क्योंकि उनकी सरकार वैज्ञानिक साक्ष्यों की अनदेखी कर पेरिस समझौते से हटने वाली थी । अधिकांश देशों के वैज्ञानिकों की प्रतिक्रिया ने संकेत दिया कि लगभग हर जगह विज्ञान पर हमला हो रहा है । राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा वैज्ञानिक सबूतों की अनदेखी करने वाली नीतियां बनाई जा रही हैं और वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए वित्तीय सहायता को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं ।

‘मार्च फॉर साइंस’ का आयोजन पूरी दुनिया में अब प्रतिवर्ष होता है। इस बार यह आयोजन 4 मई, 2019 को भारत सहित विश्व भर में सम्पन्न हुआ । भारत में आम चुनाव के कारण विभिन्न संस्थाओं के वैज्ञानिकों को ‘मार्च फॉर साइंस’ की अनुमति नहीं मिली इसलिए मार्च में भाग लेने के बजाय भारत भर के वैज्ञानिकों ने विभिन्न शहरों में सेमिनार और सम्मेलन आयोजित किए।  वैज्ञानिकों ने 9 अगस्त को एक भारतीय मार्च आयोजित करने की योजना बनाई है। पूरे राष्ट्र में आयोजित सम्मेलनों और सेमिनारों में भाग लेने वाले वैज्ञानिकों ने जोर देकर कहा कि विज्ञान एक सशक्त और उन्नत समाज का आधार है। हाल के वर्षों में सरकार वैज्ञानिक खोजों को प्रोत्साहित करने में रुचि नहीं दिखा रही है और पृथ्वी की चिंताजनक स्थिति के संबंध में तैयार किए गए वैज्ञानिक आंकड़ों की अनदेखी कर रही है।

वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व के देश औसत रूप से शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6% से अधिक और वैज्ञानिक अनुसंधान पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 3 % खर्च करते हैं । भारत में ये आंकडे़ क्रमश 3 % और 0.85% हैं । नतीजतन, देश की आबादी का एक बड़ा तबका आजादी के 72 साल बाद भी अनपढ़ या अर्धसाक्षर बना हुआ है । हमारे कॉलेज और विश्वविद्यालय बुनियादी ढांचे, शिक्षण और गैरशिक्षण कर्मचारियों की भारी कमी से जूझ रहे हैं । अनुसंधान करने के लिए  सीएसआईआर और डीएसटी जैसी विज्ञान फंडिंग एजेंसियां तीव्र आर्थिक संकट से जूझ रही हैं । वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि शिक्षा पर जी.डी.पी. का 10 % और वैज्ञानिक शोधों के लिए 3 % राशि का प्रावधान रखा जाना चाहिए ।

उन्होंने इस बात पर भी  चिंता व्यक्त की कि प्राकृतिक संसाधनों का ‘अधिक लाभ के लिए दोहन’ हानिकारक प्रवृत्ति है । ये संसाधन देश-राज्य-धरती  की जरूरतों के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। पिछले कुछ वर्षों से असंवैधानिक तथ्यों का विज्ञान के रूप में प्रचार किया गया जो वास्तविक विज्ञान को नुकसान पहुंचा रहा है। विज्ञान को कमजोर करने के लिए निरंतर कुप्रयास किए जा रहे हैं । मीडिया द्वारा अवैज्ञानिक विचारों और अंधविश्वासों को इस तरह से प्रचारित किया जा रहा है कि लोग उस पर विश्वास करने लगते हैं। मिथक, पौराणिक कथाएं और भारतीय संस्कृति के बारे में विचित्र तथ्य विज्ञान के रूप में प्रचारित कर देश की प्राचीन संस्कृति को ही विकृत किया जा रहा है। इस प्रवृत्ति का विरोध करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51क के अनुसार सभी नागरिकों का कर्तव्य है ।

केवल विज्ञान ही जानता और समझता है कि पृथ्वी का जन्म कैसे हुआ, किस तरह वह जीवित रहती है और कैसे उसकी मृत्यु हो सकती है । इसलिए विज्ञान को बचाएं, विज्ञान को समझें और पृथ्वी को सुरक्षित रखें । पृथ्वी सुरक्षित नहीं होगी तो कोई देश कैसे सुरक्षित रह सकता है ?

-महेन्द्र वर्मा

वैदिक गणित और विद्यालयीन पाठ्यक्रम

(मेरे पिछले पोस्ट का दूसरा भाग, पहला भाग यहां देखें)


दिसंबर 2016, संसद का शीतकालीन सत्र । सदन में भारत शासन से पूछे गए दो दो प्रश्न और संबंधित ‘मिनिस्टर’ द्वारा दिए गए उनके उत्तर-
प्र.1.  क्या यह सच है कि वैदिक गणित परंपरागत विधि से अधिक तीव्र गति से गणितीय प्रश्न हल करने में सक्षम है ?
उ. वैदिक गणित में शीघ्र हल करने के लिए कुछ विधियां दी गई हैं, किंतु ये विधियां गणित में सभी जगह लागू नहीं होतीं ।
पं. 2. क्या सरकार वैदिक गणित को विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में लागू करने के संबंध में विचार कर रही है ?
उ. सरकार इस तरह के किसी प्रस्ताव पर विचार नहीं कर रही  है ।
.......................

इस तरह का प्रस्ताव एक न्यास द्वारा शासन के समक्ष प्रस्तुत किया गया था । एन.सी.ई.आर.टी. ने इस पर काम भी शुरू कर दिया था । यह न्यास  सन् 1992 से इस प्रयास में लगा था कि वैदिक गणित देश भर के स्कूलों में पढ़ाया जाए । इसी न्यास के प्रस्ताव पर कुछ राज्यों के स्कूली पाठ्यक्रमों में वैदिक गणित को सम्मिलित कर लिया गया है ।

उक्त प्रस्ताव को केन्द्र शासन निरस्त नहीं करता यदि देश के जागरूक वैज्ञानिक और गणितज्ञों ने इस की आलोचना नहीं की होती। इन सब का कहना है कि जिसे वैदिक गणित कहा जा रहा है वह गणित नहीं है बल्कि परंपरागत गणित के कुछ प्रारंभिक प्रश्नों के शीघ्र उत्तर बताने की मौखिक विधियां हैं । लेकिन सीखने वाले को यह नहीं बताया जाता कि वह ऐसा क्यों कर रहा है जबकि गणित सीखने का अर्थ यह होता है कि उत्तर प्राप्त करने की प्रक्रिया में हर क्यों का जवाब भी मालूम हो ।

वैदिक गणित के संबंध में सबसे पहले प्राचीन भारतीय गणित और खगोल विज्ञान पर अनेक पुस्तकों के लेखक डॉ.के.एस.शुक्ल का एक आलोचनात्मक लेख Mathematical Education  पत्रिका के जनवरी 1989 अंक में Vedic Mathematics-The illusive title of Swamijis book शीर्षक से प्रकाशित हुआ । उनके अनुसार ‘वैदिक गणित’ शीर्षक भ्रम उत्पन्न करने वाला है क्योंकि इसकी विषय वस्तु वैदिक नहीं है ।

1993 से 2007 के मध्य टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के डॉ. एस.जी.दानी ने Vedic Mathematics-Myths and Reality सहित कई लेख लिखे ।  एक लेख में उन्होंने लिखा है- ‘‘वैदिक गणित को पढ़ाए जाने से कहीं ऐसा न हो कि हमारे देश का बौद्धिक और शैक्षिक जीवन विकृत हो जाए, आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा और इतिहास की प्रवृत्ति ही दूषित हो जाए ।

प्रसिद्ध खगोलभौतिक विज्ञानी प्रो. जयंत विष्णु नारलीकर की एक पुस्तक 1993 में प्रकाशित हुई- The Scientific Edge । इस में भारत के पिछले 3000 वर्षों के विज्ञान और गणित के गौरवपूर्ण अतीत का विस्तृत वर्णन किया गया है ।  इस पुस्तक में उन्होंने आजकल प्रचलित वैदिक गणित के संबंध में भी विस्तार से लिखा है । प्रो.. नारलीकर इसे न तो वैदिक मानते हैं और न ही गणित । वे लिखते हैं- ‘‘वास्तविक गणित केवल संख्याओं का परिकलन नहीं है बल्कि तर्क और विचारों का परस्पर ऐसा  संबंध है जो सरल सिद्धांतों से प्रारंभ हो कर एक गहन निष्कर्ष तक पहुंचता है ।’’

यही कारण है कि बोधायन (ई.पू. 8वीं श.) द्वारा बताई गई समकोण त्रिभुज संबंधी विशेषता को ‘गणित’ नहीं माना गया क्योंकि उन्होंने इस की उपपत्ति नहीं दी और पायथेगोरस (ई.पू. 5वीं श.) को इसका श्रेय इसलिए दिया गया क्योंकि उसने उपपत्ति भी लिखी । प्रमेय का अर्थ ही है, ‘जिसे प्रमाणित किया जाए’ ।

बहुत से लोगों ने वैदिक गणित के समर्थन में कई लेख प्रकाशित करवाया है । इस पर प्रो. नारलीकर लिखते हैं-‘‘उन्हें गणित की समझ नहीं है । आगे वे एक महत्वपूर्ण बात लिखते हैं- ‘‘स्कूली पाठ्यक्रम में वैदिक गणित को सम्मिलित करना गणित के उस वास्तविक और सार्थक स्वरूप से ध्यान भटकाना होगा जिसे वास्तव में पढ़ाए जाने की आवश्यकता है ।’’

आई.आई.टी. चेन्नई में गणित की प्रोफेसर डॉ.(सुश्री) वसंत कांतसामी, जिनकी गणित पर 116 शोध-पुस्तकें लिखी हैं, ने वैदिक गणित पर शोध अध्ययन किया है । यह शोध 220 पृष्ठों के एक पुस्तक Vedic Mathematics -‘Vedic’ or‘Mathematics’:A Fuzzy & Neutrosophic Analysis  शीर्षक से 2006 में प्रकाशित हुई है। इन्होंने वैदिक गणित के संबंध में छात्रों, अध्यापकों, पालकों और उच्च शिक्षित व्यक्तियों के विचारों का एक नई गणितीय विधि से विश्लेषण किया है । इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि 90 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने वैदिक गणित को स्कूलों में अध्ययन-अध्यापन के लिए लाभदायक नहीं माना है ।

इनके अतिरिक्त और भी कई गणितज्ञों एवं वैज्ञानिकों ने वैदिक गणित को पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने के प्रयास की आलोचना की है । उनके अनुसार वैदिक गणित 
में केवल ‘शार्टकट्स’ हैं जो प्रारंभिक कक्षाओं के कुछ ही परिकलनों में लागू होते हैं । उच्च गणित में इनका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं है ।

 इन सब के बावज़ूद यह न्यायालय का प्रकरण बन गया ।

सुप्रीम कोर्ट में स्कूली पाट्यक्रम के संबंध में शासन के विरुद्ध एक अपील दर्ज की गई थी । इस प्रकरण के संदर्भ में कोर्ट द्वारा 12 सितंबर, 2002 को दिए गए निर्णय में यह तथ्य भी है- ‘‘वैदिक गणित को पाठ्यक्रम का भाग नहीं बनाया गया है बल्कि इसे गणना सहायक सामग्री के रूप में उपयोग करने हेतु सुझाव दिया गया है । गणित शिक्षण के दौरान शिक्षक इसका उपयोग करने अथवा न करने के लिए स्वतंत्र है ।’’

इसी संदर्भ में एन.सी.ई.आर.टी. में गणित विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. हुकुम सिंह ने दिसंबर, 2016 में यह विचार व्यक्त किया था- ‘‘वैदिक गणित पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं होना चाहिए, यह निर्णय प्रसिद्ध गणितज्ञों से प्राप्त सुझावों के आधार पर लिया गया था ।’’

उक्त तथ्यों से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि विद्यालयों में वैदिक गणित नहीं पढ़ाया जाना चाहिए ।  कई राज्यों के स्कूली पाठ्यक्रमों में यह अभी भी सम्मिलित है, पढ़ाने की अनिवार्यता सहित ।

-महेन्द्र वर्मा







‘वैदिक गणित’ क्या सचमुच वैदिक है






जब मैं ज़िला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान में कार्यरत था तब सेवारत शिक्षकों और प्रशिक्षु शिक्षकों को वैदिक गणित विषय पर प्रशिक्षण देने का अवसर प्राप्त हुआ था । हमें एक पुस्तक दी गई थी-‘वैदिक गणित’ । पुस्तक के शीर्षक से ऐसा ध्वनित होता है कि इस में जिस गणित का वर्णन है वह वेदों में है । कक्षा में प्रशिक्षण देने के पूर्व मैंने उसका अध्ययन किया । मुझे कुछ संदेह हुआ कि क्या यह सचमुच वैदिक है ?

और फिर मैंने अपने स्तर पर इस संदर्भ में खोजबीन करना आरंभ किया । इस प्रक्रिया में मुझे जो जानकारी मिली वह अप्रत्याशित नहीं थी ।

इस विषय की मूल पुस्तक Vedic Mathematics शीर्षक से 1965 में प्रकाशित हुई जिसके लेखक स्व. स्वामी श्री भारतीकृष्ण तीर्थ जी महाराज हैं जिसमें 16 ‘सूत्र’ दिए गए हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन स्वामी जी के स्वर्गारोहण के पश्चात  हुआ था । विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला ‘वैदिक गणित’ इसी पुस्तक पर आधारित है । वर्तमान में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के अतिरिक्त कई राज्यों में स्कूली विद्यार्थियों को ‘वैदिक गणित‘ पढ़ाया जा रहा है लेकिन सर्वप्रथम इस विषय का शिक्षण उत्तरप्रदेश के विद्यालयों में सन् 1992 में प्रारंभ हुआ ।

1993 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के गणितज्ञ डॉ. एस.जी.दानी का अंग्रेज़ी में एक लेख फ्रंटलाइन पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। अपने विस्तृत लेख में एक स्थान पर वे लिखते हैं - ‘‘स्वामी जी की पुस्तक में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वैदिक गणित कहा जाए । यहां तक कि इस में परवर्ती काल की भारतीय गणितीय सिद्धांतों और प्रक्रियाओं की समृद्ध परंपरा का भी वर्णन नहीं है ।’’ डॉ. दानी की इस टिप्पणी ने मुझे मूल पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित किया ।

मैंने मूलतः अंग्रेज़ी में लिखित  Vedic Mathematics का अध्ययन-मनन प्रारंभ किया । स्वामी जी पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं - ‘‘हम यह जान कर आश्चर्यचकित हुए कि अथर्ववेद के परिशिष्ट में उल्लेखित सूत्रों की सहायता से गणित के कठिन प्रश्नों को बहुत आसानी से हल किया जा सकता है ।’’ किंतु इसी पुस्तक में स्वामी जी की एक शिष्या श्रीमती मंजुला त्रिवेदी अपने वक्तव्य में लिखती हैं - ‘‘ये सूत्र अथर्ववेद के किसी परिशिष्ट में नहीं हैं, वास्तव में ये सूत्र अथर्ववेद में  यत्र-तत्र बिखरी हुई सामग्री से  स्वामी जी के द्वारा सहजबोध से पुनर्सृजित किए गए हैं ।’’

श्री वी. एस. अग्रवाल, जो इस पुस्तक के संपादक हैं, अपने संपादकीय लेख में इस से भिन्न बात लिखते हैं-‘‘स्वामी जी की यह कृति अपने आप में एक नया परिशिष्ट माने जाने का अधिकार रखती है और इसीलिए आश्चर्य नहीं कि यहां दिए गए सूत्र वेदों के किसी भी ज्ञात परिशिष्ट में उपलब्ध नहीं होते ।’’
उपर्युक्त तीनों बातों में कोई सामंजस्य नहीं है ।

पुस्तक के संपादक ने अपने संपादकीय में जिन विद्वानों के प्रति आभार व्यक्त किया है उनमें डॉ. ब्रजमोहन का भी नाम है जो उस समय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के गणित विभाग के अध्यक्ष थे । डॉ. ब्रजमाहन ने संपादक के आग्रह पर ‘वैदिक गणित’ की पाण्डुलिपि की गणनाओं की सत्यता की जांच की थी । मैंने डॉ. ब्रजमोहन की 1965 में प्रकाशित पुस्तक ‘गणित का इतिहास’ में इस का संदर्भ खोजना शुरू किया ।

अपनी पुस्तक की भूमिका में डॉ. ब्रजमोहन ने स्वामी जी के वैदिक सूत्रों के संबंध में यह लिखा है- ‘‘स्वामी जी ने अपने व्याख्यानों और व्यक्तिगत वार्ता में अनेक गणितीय सूत्रों की चर्चा की थी । स्वामी जी ने इन सूत्रों का यह अभिदेश दिया था : अथर्ववेद, परिशिष्ट 1 । मुझे अथर्ववेद के जितने भी संस्करण काशी के पुस्तकालयों में मिल सके,  मैंने सब छान मारे । मुझे उपरिलिखित सूत्र कहीं नहीं मिले । मैंने  स्वामी जी को इस विषय में तीन पत्र लिखे । मुझे कोई उत्तर नहीं मिला । तत्पश्चात मैं वेदों के उद्भट विद्वानों से मिला जैसे, पं. गिरधर शर्मा चतुर्वेदी, और पंचगंगा घाट काशी के पं. रामचंद्र भट्ट । उन्होंने बताया कि उपरिलिखित सूत्रों की भाषा ही वैदिक संस्कृत से मेल नहीं खाती अतः ये वैदिक सूत्र नहीं हो सकते ।.....हम उक्त सूत्रों का वास्तविक अभिदेश जानने के लिए उत्सुक हैं । किंतु जब तक यथार्थ अभिदेश न मिल जाए तब तक हम इतनी अप्रमाणित बात अपनी पुस्तक में नहीं दे सकते ।’’

अस्तु, ‘वैदिक गणित’ के संपादक ने डॉ. ब्रजमोहन के उक्त जिज्ञासा का समाधान संपादकीय में यह लिखकर कर दिया था कि ये सूत्र अथर्ववेद के किसी भी परिशिष्ट में उपलब्ध नहीं हैं ।

‘वैदिक गणित’ के वैदिक न होने के संबंध में सन् 1993 से 2000 तक कई गणितज्ञों और वैज्ञानिकों के लेख अंग्रेज़ी अख़बारों में प्रकाशित हुए । इन के प्रत्युत्तर में सन् 2000 में वार्षिक शोध पत्रिका ‘संबोधि’ में संपादक डॉ. एन.एम.कंसारा ने  Vedic Sources of Vedic Mathematics शीर्षक से 30 पृष्ठों का एक लेख लिखा । किंतु इस लेख में वे ‘वैदिक गणित’ को वैदिक सिद्ध नहीं कर सके और लेख के अंत में उन्होंने निष्कर्ष लिखा कि ये सूत्र वेदों में एक स्थान पर नहीं है बल्कि यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं । श्री कंसारा इस ‘यत्र-तत्र’ का एक भी संदर्भ नहीं दे पाए ।

अब यह निश्चित हो गया कि ‘वैदिक गणित’ के किसी भी अंश का वैदिक साहित्य में कोई संदर्भ नहीं है । अब मैंने ‘यत्र-तत्र’ को ध्यान में रखते हुए पांचवी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक के मध्यकालीन भारतीय गणितज्ञों के प्राचीन ग्रंथों में इसका संदर्भ खोजना प्रारंभ किया ।

अपने अध्ययन के दौरान मुझे कुछ संदर्भ मिले । ‘वैदिक गणित’ में एक सूत्र है- ‘ऊर्ध्व तिर्यग्भ्याम्’, इस सूत्र का पुस्तक में व्यापक प्रयोग हुआ है । इस सूत्र में जिस एल्गोरिद्म का प्रयोग हुआ है वह महान भारतीय गणितज्ञ महावीराचार्य (9वीं शताब्दी ई).की प्रसिद्ध पुस्तक ‘गणित सार संग्रह’ (2.31) में है ।
स्वामी जी का एक उपसूत्र ‘यावदूनम्’ का एल्गोरिद्म ब्रह्मगुप्त (7 वीं श,) के ‘ब्राह्मस्फुट सिद्धांत’ (12.55,64) में तथा भास्कराचार्य द्वितीय की  प्रसिद्ध पुस्तक ‘लीलावती’ (सू. 13.9) में है । बोधायन के शुल्व सूत्र के प्रसिद्ध प्रमेय, जिसे अब पायथोगोरस का प्रमेय कहा जाता है, की जो उपपत्ति ‘वैदिक गणित’ में दी गई है वह वास्तव में भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा दी गई उपपत्ति है ।

इतना अवश्य है कि स्वामी जी ने अपनी पुस्तक में गणितीय नियमों को ‘ट्रिक्स’ और ‘शार्टकट्स’ में परिवर्तित किया है ।
मेरे संदेह का समाधान हो चुका है । आपको भी इस लेख के शीर्षक-प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो गया होगा ।

-महेन्द्र वर्मा

झूठ का सच



यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति यदा-कदा अनेक कारणों से झूठ बोलता है किंतु जब यह किसी व्यक्ति के लिए आदत या लत बन जाती है तो समाज में वह निंदा का पात्र बन जाता है । कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि कोई उसे झूठ बोलकर धोखा दे । आदतन झूठा वह आदमी होता हे जो पहले भी झूठ बोलता था, अभी भी झूठ बोल रहा है और आगे भी झूठ बोलेगा ।

यदि कोई ऐसी बात कहता है जिसके बारे में बोलने वाले को भी विश्वास नहीं होता कि यह सच है फिर भी इस इरादे से बोलता है कि सुनने वाले उस बात को सच मान लें, झूठ बोलने का यही तात्पर्य है । स्पष्ट है कि झूठ में बेइमानी और धोखा दोनों शामिल हैं ।


चूंकि ‘झूठ बोलना’ मानव व्यवहार से संबंधित है इसलिए मनावैज्ञानिकों ने इस विषय पर भी पर्याप्त अध्ययन किया है । झूठ के संबंध में पहले जो चिंतन था वह नैतिकता और धार्मिकता पर आधारित था और उपदेशपरक था । लेकिन हाल के वर्षों में मनोवैज्ञानिकों ने यह जानने की कोशिश की है कि मनुष्य झूठ बोलता क्यों है और कौन-सी चीज उसे झूठ बोलने के लिए प्रेरित करती है।

झूठ बोलने के संबंध में सबसे पहले व्यवस्थित रूप से अध्ययन कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के समाज मनोविज्ञानी बेला डे पाउलो और उसके साथियों ने दो दशक पहले प्रारंभ किया था । पाउलो ने अपनी पुस्तक The Psychology of Lying में झूठ बोलने के कारणों का उल्लेख किया है ।  A  National Geographic  पत्रिका के जून 2017 के अंक में इस विषय पर कवर स्टोरी प्रकाशित की थी । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार लोग अलग-अलग कारणों से झूठ बोलते हैं -
 1. अपनी गलती और अपराध को छिपाने के लिए, 2. स्वयं को इच्छित मुकाम में प्रतिष्ठित करने के लिए, 3. दूसरों को भ्रमित कर प्रभावित करने के लिए, 4. व्यक्तिगत लाभ के लिए, 5. सच्चाई को उपेक्षित करने के लिए 6. कुछ लोगों को नुकसान पहुंचाने के लिए, 7. मज़ाक करने के  लिए, 8. अन्य कारणों से ।

American Journal of Forensic Psychiatry  में प्रकाशित एक लेख और टेक्सास यूनीवर्सिटी की मनावैज्ञानिक जैकलीन इवान्स और उनके सहयोगियों के अनुसार झूठ बोलने वालों के कुछ लक्षण इस प्रकार हैं -
1.उनकी सोच अस्थिर होती है, 2. स्वयं के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हैं या छिपाते हैं, 3.‘क्यों’ का उत्तर देने से बचते हैं, 4. उत्तर देने के पूर्व सवाल को दुहराते हैं, 5. बोलते समय ‘पिच’ में असाधारण परिवर्तन होता रहता है,  6.ऐसा प्रदर्शित करते हैं जैसे वे बहुत परिश्रम करते हैं, 5. उनके कथन निरर्थक और विरोधाभासी होते हैं, 7. वे चिंतित और तनावग्रस्त रहते हैं, 6. उनमें हीन भावना होती है ।

मनोविज्ञानी शेली टेलर के अनुसार, झूठ बोलने वाले आत्ममुग्ध होते हैं । भाषा पैटर्न पर शोध करने वाले मनोविज्ञानी डायना बेरी के अनुसार झूठ बोलने और लिखने वाले प्रायः अपनी बातों में ‘प्रथम पुरुष’ का प्रयोग करते हैं । डे पाउलो ने अपने शोध में पाया कि ऐसे लोग अक्सर विवादित रहते हैं । हार्वर्ड में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ. ग्राम्ज़ो के अनुसार झूठ बोलना मूल रूप से स्वयं को एक लक्ष्य की ओर स्वयं को प्रोजेक्ट करने और अपनी इच्छाओं को पोषित करने की कवायद है ।

Nature Neuroscience  में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि झूठ बोलते समय व्यक्ति के मस्तिष्क का ‘प्रोत्साहन केन्द्र’ सक्रिय हो जाता है । इससे प्रेरित होकर वह अपने व्यवहार में निरंतर झूठ बोलने या धोखा देने का पैटर्न जारी रखता है । टेक्सास विश्वविद्यालय की विभागीय पत्रिका Personality and Social Psychology  की एक रिपोर्ट के अनुसार झूठे लोग जोड़-तोड़ करने वाले और ‘मेकियावेलियन’ होते हैं । मनोविज्ञान में ‘मेकियावेलियन’ शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए किया जाता है जो स्वयं की इच्छा और लक्ष्य की पूर्ति के लिए दूसरों के साथ धोखा, छल-कपट और हिंसा तक का व्यवहार करता है ।

चिकित्सा मनोविज्ञान में Pseudologia Fantastica मनुष्य की ऐसी असामान्य मनःस्थिति को कहा जाता है जब व्यक्ति झूठ बोलने का आदी हो या बाध्य हो । इसी तरह की एक और स्थिति को Mitomanía  कहते हैं जिसमें व्यक्ति की अतिशयोक्तिपूर्ण झूठ बोलने की असामान्य प्रवृत्ति होती है । मनोचिकित्सकों के अनुसार ये मानसिक रोग कुण्ठा और हीनभावनाग्रस्त व्यक्ति को होने की अधिक संभावना होती है। ऐसे लोग स्वयं की झूठी प्रतिष्ठा के लिए चतुराई से इस तरह बार-बार झूठ बोलते हैं कि लोग उसका विश्वास करें ।

लगभग 200 वर्ष पूर्व आयरलैंड के प्रसिद्ध साहित्यकार जोनाथन स्विफ्ट ने  Essay on the Art of Political Lying   में एक विचित्र बात लिखी है- ‘‘ जिस प्रकार एक बड़ा लेखक अपने पाठकों को नापसंद करता है उसी प्रकार एक बड़ा झूठा अपने ही विश्वासियों को नापसंद करता है ।’’

-महेन्द्र वर्मा