सप्ताह के दिनों का नामकरण - कब, कहां, कैसे ?



समय की गणना के लिए सप्ताह एकमात्र ऐसी इकाई है जो किसी प्राकृतिक घटना पर आधारित नहीं है । समय की अन्य सभी इकाइयां जैसे, वर्ष, महीना, दिन, घटी, घंटा, किसी न किसी प्राकृतिक घटना से संबंद्ध हैं । चंद्रमा की घटती-बढ़ती कलाओं के आधार पर दिनों की गणना की प्रक्रिया आदिम लोगों ने प्रारंभ की थी, किसी गणितज्ञ या वैज्ञानिक ने नहीं । दुनिया के अनेक क्षेत्रों में इन 15 दिनों के क्रमसूचक नामों का उपयोग आज भी होता है जैसे, भारत में पूर्णिमा या अमावस्या के बाद प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया और ग्रामीण इलाकों में परिवां, दूज, तीज आदि । तिथियों से दिनों को जानने की परंपरा 50 हज़ार वर्ष पुरानी है । आज दुनिया भर में सप्ताह और इस के सात दिनों के नाम चलन में हैं । ये नाम फलित ज्योतिष में प्रचलित ग्रहों के नामों पर आधारित है। दिनों के नामकरण की प्रक्रिया अतीत में 2000 वर्षों तक क्रमशः विकसित होती रही ।

सप्ताह की अवधारणा की शुरुआत कब और कहां हुई इस का परीक्षण पहले भारत से ही प्रारंभ करते हैं । हमारे देश के सबसे प्राचीन लिखित साहित्य वेदों (रचना काल 2500 ई.पू.) से लेकर महाभारत (रचना काल 500 ई.पू.) तक के विशाल साहित्य में दिनों के नामों का कहीं उल्लेख नहीं है । लगध रचित ऋग्वेदीय वेदांग ज्योतिष में तो सूर्य और चंद्र के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रह का नाम तक नहीं है ।

अथर्ववेदीय वेदांग ज्योतिष (500 ई.पू.) के एक श्लोक में दिनों के स्वामी के रूप में ग्रहों के नामों का उल्लेख है । इसके अतिरिक्त सप्ताह या दिनों के संबंध में और कोई विवरण नहीं है । चौथी शती में रचित याज्ञवल्क्य स्मृति में फलित ज्योतिष के नौ ग्रहों के नाम हैं । इस श्लोक में विशेष बात यह है कि प्रथम सात ग्रहों के नाम उसी क्रम में हैं जिस क्रम में दिनों के नाम आज प्रचलित हैं । प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट ने अपनी पुस्तक आर्यभटीयम् (5वीं शती) में ‘होरा’ के स्वामी ग्रहों का उल्लेख किया है किंतु यह नहीं लिखा है कि यही दिनों के नाम भी हैं । आगे चर्चा करेंगे कि ‘होरा के स्वामी’ से किसी दिन के नाम का निर्धारण कैसे होता है ।

किसी दिवस या दिन के नाम का सर्वप्रथम उल्लेख पांचवी शती के एक शिलालेख में अंकित है । मध्यप्रदेश के सतना ज़िले में एरण एक पुरातात्विक स्थल है । यहां एक पाषाण स्तंभ के लेख में तिथि के साथ ‘सुरगुरुर्दिवसे’ अंकित है जिसका स्पष्ट अर्थ है- गुरुवार के दिन । प्रसिद्ध गणितज्ञ वराहमिहिर (6वीं शती) लिखित पंचसिद्धांतिका के पहले अध्याय में एक श्लोक में सोमदिवस अर्थात सोमवार का उल्लेख है ।

उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि ई.सन् की चौथी-पांचवीं शती के पहले तक भारत में सप्ताह और  उसके दिनों के नाम प्रचलित नहीं थे। पांचवी शती के बाद दिनों के नाम ग्रंथों में मिलने शुरू होते हैं लेकिन हमारे किसी भी प्राचीन ग्रंथ में इस बात का कोई विवरण नहीं मिलता कि सप्ताह की शुरुआत कब और कैसे हुई और दिनों के नाम ग्रहों के नाम पर क्यों रखे गए हैं । ‘भारतीय ज्योतिष’ के विद्वान लेखक शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने लिखा है- ‘‘वारों की उत्पत्ति हमारे देश में नहीं हुई है क्योंकि उनकी उत्पत्ति का संबंध ‘होरा’ नामक अवधारणा से है जो हमारे देश का नहीं है ।’’

‘होरा’ शब्द मूलतः लैटिन horae और ग्रीक ώρα ओरा है जिसका अर्थ है- एक निश्चित समयावधि । दिन-रात के समय को छोटी इकाइयों में विभाजित करने का प्रयास सब से पहले इज़िप्त में 2400 ई.पूर्व हुआ था लेकिन इसकी जड़ें बेबीलोन, खाल्दिया और सुमेर से जुड़ी हुई थीं। यहां के खगोल विज्ञान में रुचि रखने वाले लोगों ने धूप घड़ी की सहायता से सूर्योदय से सूर्यास्त तक के समय को दस भागों में विभाजित किया । सुबह-शाम के उजाले की अवधि को मिला कर बारह भाग बनाए । रात की अवधि को कुछ विशेष तारा-समूहों के आधार पर बारह विभाग किए । इस प्रकार दिन-रात की अवधि को चौबीस भागों में विभाजित किया । तब ये विभाग समान नहीं थे । बाद में जल घड़ी के द्वारा चौबीस भागों को समान किया गया । समय विभाजन की यह अवधारणा जब ग्रीस पहुंची तो वहां इसे ‘ओरा’ नाम दिया गया जो लैटिन में ‘होरा’ और अंग्रेज़ी में ‘आवर hour’ बना । होरा संस्कृत का शब्द नहीं है । वराहमिहिर जानते थे कि होरा ग्रीक शब्द है, फिर भी उन्होंने ‘वृहद् जातक’ (1.3) में लिखा कि संस्कृत के अहोरात्र शब्द से अ और त्र को विलोपित कर देने से होरा शब्द बना । लेकिन उन्होंने अपने एक और ग्रंथ ‘वृहद् संहिता’ (2.14) में ग्रीक ज्योतिषियों की प्रशंसा करते हुए उन्हें ऋषितुल्य पूज्य माना है । भारत में वेदांग ज्योतिष काल से दिन-रात की अवधि का विभाजन 60 घटी या नाड़ी ही प्रचलित है । आज भी पंचांगों में घटी-पल में समय को दर्शाया जाता है । घंटा, मिनट और सेकंड का प्रचलन तो 17 वीं शताब्दी के अंत में अंग्रेज़ों के शासनकाल में शुरू हुआ ।

महीने को कुछ दिनों के समूहों में बांटने की परंपरा भी मेसोपोटामियाई सभ्यता के बेबीलोन और खाल्दिया से आरंभ होती है । खाल्दियनों ने लगभग 2500 ई.पू. आकाश में आसानी से पहचाने जा सकने वाले 5 ग्रहों और सूर्य-चंद्रमा का एक विशेष क्रम निर्धारित किया था । सूर्य से दूरी के आधार पर इन आकाशीय पिंडों, जिसे उस समय के ज्यातिषियों ने ग्रह कहा,  का क्रम इस प्रकार है- शनि, बृहस्पति, मंगल, चंद्र, शुक्र, बुध और सूर्य। यहां दिए गए ग्रहों के नाम ग्रीक नामों के संस्कृत शब्दार्थ हैं । खाल्दियनों ने इन पिंडों को पृथ्वी से आभासित होने वाली इनकी गतियों के आधार पर आरोही क्रम में इस प्रकार रखा- शनि, बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चंद्रमा। उनकी मान्यता थी कि दिन-रात के 24 होरा भागों में प्रत्येक ग्रह का ‘शासन’ होता है । तदनुसार प्रत्येक होरा के लिए उपरोक्त क्रम से एक-एक ग्रह शासक बनाए गए । फिर यह तय किया गया कि सूर्योदय के समय जिस ग्रह की होरा होगी उसी ग्रह के नाम पर पूरे दिन का नाम होगा ।

पहली बार जब यह नियम लागू हुआ तो उस दिन सूर्योदय के समय की होरा को सूर्य द्वारा शासित ‘मान लिया गया’ क्योंकि सूर्य सबसे बड़ा और सर्वाधिक पूज्य ‘ग्रह’ था । 24 होरों के साथ सूर्य से प्रारंभ कर क्रमशः एक-एक ग्रह रखे जाएं तो पच्चीसवां ग्रह चंद्रमा होगा जो अगले दिन सूर्योदय के समय के होरा का शासक या स्वामी होगा और इसलिए उस पूरे दिन का नाम भी । यही क्रम निरंतर रखे जाने पर दिनों के नामों का अग्रलिखित क्रम बनता है- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि । यही 7 दिनों का समूह या सप्ताह बना । इसके समकालीन प्राचीन सभ्यताओं- मिस्र में 10, ग्रीक और रोमनों में 8  दिनों का समूह प्रचलित था । ग्रीक शासकों ने सबसे पहले इस पद्धति को अपनाया ।

अब इस बात की चर्चा कर लें कि यह पद्धति भारत में कब और कैसे आई । 326 ई.पू. ग्रीक के शासक अलेक्ज़ेन्डर ने भारत पर आक्रमण किया । इसी के बाद से भारत और ग्रीक में ज्ञान-विज्ञान का आदान-प्रदान प्रारंभ हुआ जिसमें ज्योतिषीय ज्ञान भी था । ई की दूसरी शती में उज्जयनी में स्फुजिध्वज नामक राज्याधिकारी ने यवनजातक नामक ग्रंथ संस्कृत में लिखा था । ग्रीस को संस्कृत में यूनान और वहां से संबंधित बातों और निवासियों को यवन कहते हैं । इस यवनजातक ग्रंथ के एक श्लोक (77.9) का अनुवाद यह है- ‘‘यवन ज्योतिषियों ने सप्ताह के विभिन्न दिनों में लोगों के करने लायक जो-जो कार्य बताए हैं उन्हें प्रत्येक होरा के लिए भी लागू मानना चाहिए ।’’ इसी ग्रंथ के साथ भारत में सप्ताह, दिनों के नाम और होरा का प्रवेश हुआ । अगले 2-3 शताब्दियों के बाद दिनों के नाम के साथ अनेक काल्पनिक बातें लेखकों ने लिखनी शुरू कर दीं जिन्हें आज लोग भ्रमवश वैदिक और धार्मिक मान लेते हैं ।

एक बात और-यदि बेबीलोनवासी होरा से दिनों का नामकरण 1-2 दिन पहले या बाद में शुरू किए होते तो आज के दिन का नाम वह नहीं होता जो आज है !

-महेन्द्र वर्मा

ददरिया में विविध ताल-शैलियों का प्रयोग



छत्तीसगढ़ में आज से 40-50 साल पहले तक ददरिया गीत अपने मौलिक स्वरूप में विद्यमान था । इस मौलिक रूप की कुछ विशेषताएं थीं- खेतों में काम करने वाले श्रमिक इसे गाया करते थे । इस गीत के साथ किसी वाद्य-यंत्र का प्रयोग नहीं होता था । दो अवसरों पर यह गीत अधिक सुनाई देता था- जब श्रमिक जेठ के महीने में रात के समय गाड़ा हांकते हुए धान के खेतों में देशी खाद डालने जाते थे । ये तार सप्तक में बहुत ऊंचे सुर में गाते थे । धान के खेतों में रोपा लगाते समय या निंदाई करते समय ददरिया समूह गीत के रूप में गाया जाता था । नाचा की प्रस्तुति में भी प्रसंगवश ददरिया की दो-चार पंक्तियां गाई जाती थीं ।


ददरिया में भले ही वाद्य यंत्रों का उपयोग नहीं होता था लेकिन उसमें सुर और ताल अवश्य होता था । इसकी लय विलंबित होती थी । गाते समय किसी सुर में देर तक ठहराव बार-बार होता था । पुराने समय के ददरिया का एक आदर्श उदाहरण मुझे इंटरनेट में मिला । भारती भाषाओं का सर्वेक्षण करने वाले प्रसिद्ध विद्वान जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के सहयोगियों ने सन् 1917 ई. में रायपुर के बृजलाल यादव के स्वर में एक ददरिया रिकार्ड किया था । 102 साल पुरानी यह प्रस्तुति निस्संदेह मौलिक ददरिया गायन का श्रेष्ठ उदाहरण है । इसमें ददरिया के चार पद हैं जो आज भी गाए जाते हैं । एक पद यह है-

नइ दिखय रूख राई, नइ दिखय गांव,
नइ दिखय लेवइया, काकर संग जांव ।



गाते समय संगी, रे, दोस, जंवारा, लिए जा और रंगरेली- इन अतिरिक्त शब्दों का प्रयोग हुआ है जो ददरिया की एक और मौलिक विशेषता है ।


ददरिया के उक्त उदाहरण में जो सुर प्रयोग में लाए गए हैं वे एक ही सप्तक के भीतर हैं । इसमें राग पीलू की झलक मिलती है । इसके साथ कोई भी वाद्य-यंत्र प्रयुक्त नहीं हुआ है इसलिए गीत किस ताल में है यह तत्काल नहीं पहचाना जा सकता । गीत की लय को ध्यान से सुनने और स्वरों पर बलाघात को गिनने से पता चलता है कि यह कहरवा ताल में गाया गया है । ददरिया नाम के कारण प्रायः यह समझा जाता है कि इसमें दादरा ताल का प्रयाग होता है । लेकिन ऐसा नहीं है, ददरिया में कहरवा का भी प्रयोग होता है । ताल की चर्चा इसलिए क्योंकि ददरिया के लोक-शैली के तालों में जो विशेषता है वह कहीं और नहीं है । तालों के मध्यलय और दु्रत में वादन की शैली मोहक है ।


1965 में निर्मित पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘कहि देबे संदेश’ में एक ददरिया गीत है । इसमें गाने के दौरान किसी ताल-वाद्य का प्रयोग नहीं किया गया है। 1971 में  दूसरी छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘घर द्वार’ में एक ददरिया है- ‘गोंदा फुलगे मोरे राजा ’, इस गीत में कहरवा ताल प्रयुक्त हुआ है । लेकिन इन दोनों गीतों में छत्तीसगढ़ की लोक-अनुभूति अनुपस्थित है । 1971 के आसपास ही आकाशवाणी रायपुर में स्व. शेख हुसैन के ददरिया गीतों की रिकार्डिंग की गई । इनके गाए हुए सभी ददरिया गीत 6 मात्रा के दादरा ताल में है। अपने समय के ये मशहूर गीत थे ।


इसके बाद प्रसिद्ध लोक कलामंच ‘चंदैनी गोंदा’ ने तो ददरिया को खेतों से आमंत्रित कर मंच पर स्थापित कर दिया । स्व. खुमान साव द्वारा संगीतबद्ध किए गए इसके ददरिया गीतों में लय-सुर-ताल का बिल्कुल नया किंतु कर्णप्रिय समन्वय हुआ । पहली बार छत्तीसगढ़ी लोक-तालों का सुंदर प्रयोग उनके गीतों में सुनाई देता है । प्रसिद्ध ददरिया ‘मंगनी म मांगे मया नइ मिले’ इसी तरह का एक नया प्रयोग था जो अत्यंत लोकप्रिय हुआ । इस गीत में द्रुत कहरवा की एक विशिष्ट लोकशैली का प्रयोग किया गया है जिसे प्रायः देवार कलाकार मांदर में बजाते हैं ।


 ‘चंदैनी गोंदा’ का एक और ददरिया गीत उल्लेखनीय है ।किस्मत बाई देवार की खनकती आवाज़ ने ‘चौंरा म गोंदा रसिया मोर बारी म पताल’ जैसे पारंपरिक ददरिया के एक बहुत कम सुने गए रूप को छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधि गीत बना दिया । इस गीत में प्रयुक्त ताल 16 मात्रा का है जिसे देवार कलाकारों के द्वारा मांदर पर बजाया जाता है । इसे तीनताल की लोकशैली कहा जा सकता है । इस गीत में 8 और 16 मात्रा के 3 अलग-अलग ‘बाज’ का प्रयोग किया गया है । इस ददरिया में राग भैरवी की झलक दिखती है । लक्ष्मण मस्तुरिहा का एक ददरिया गीत ‘बखरी के तूमा नार बरोबर मन झुमे रे’ बहुत लोकप्रिय हुआ था । इस गीत में जिस ताल का प्रयोग किया गया है वह छत्तीसगढ़ के बजगरी समुदाय के द्वारा बजाया जाने वाला 12 मात्रा का एकताल है । गाने के मध्य की धुन में सामान्य दादरा ताल का प्रयोग हुआ है ।


‘सोनहा बिहान’ के कलाकारों, ममता चंद्राकर और मिथिलेश साहू के ददरिया गीत ‘चिरइया ला के गोंटी मारंव’ में 12 मात्रा के देवार शैली के मंदरहा ताल के साथ मध्य के इंटरल्यूड में मध्यद्रुत एकताल की लोक शैली का सुंदर प्रयोग किया गया है । स्व. केदार यादव ने लोकप्रिय ददरिया गीत ‘मोर झूल तरी गेंदा इंजन गाड़ी’ में 12 मात्रा के बजगरी शैली के ताल का प्रयोग किया है । 6 मात्रा वाले दादरा ताल के गीत द्रुत एकताल के साथ गाए जा सकते हैं । केदार यादव स्वयं गाते हुए इस ताल को ख़ूबसूरती से बजाते थे । ममता चंद्राकर द्वारा गाया ददरिया ‘तोर मन कइसे लागे राजा’ बिल्कुल अलग तरह की मौलिक रचना है । इसमें सीमित और पारंपरिक वाद्यों का उपयोग किया गया है । ताल-वाद्य के रूप में डफली का कहरवा ताल में सुंदर प्रयोग इस गीत को विशिष्ट बना देता है ।


ददरिया गीतों की ये ताल-शैलियां बाद के लोक गायकों के लिए प्रेरणादायी बनीं और अब अक्सर इन्हीं लोक-तालों में वर्षों तक ददरिया गीत गाए-बजाए जाते रहे। इन गीतों में पारंपरिक ताल-वाद्यो जैसे, ढोलक, मांदर, तबला, डफली, दफड़ा और निसान तक का उपयोग किया गया है । लेकिन अंत में एक और ददरिया की बात कर ही लें । फ़िल्म दिल्ली 6 में ए. आर. रहमान ने  एक पारंपरिक ददरिया गीत में 4 मात्रा के पश्चिमी ताल का प्रयोग किया है जो आजकल की भाषा में फ़्यूज़न ही कहा जाएगा। आजकल के छत्तीसगढ़ी वीडियो एल्बमों और फ़िल्मों में पारंपरिक वाद्यों के स्थान पर इलेक्ट्र्रानिक ताल-वाद्यों के प्रयोग के कारण ददरिया गीतों की गमक लुप्त होती जा रही है । ऐसे प्रयोगों में छत्तीसगढ़ की माटी की सुगंध नहीं आती।

-महेन्द्र वर्मा
                              
                    


प्राचीन उन्नत सभ्यताओं का ऐसा पतन !



विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में सिंधु घाटी, मिस्र, मेसोपोटामिया, बेबीलोन, यूनान और सुमेर की सभ्यताएं सबसे अधिक विकसित थीं । 3-4 हज़ार ईस्वी पूर्व में ये सभ्यताएं ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, कला, साहित्य दर्शन और गणित के क्षेत्र में शिखर पर थीं। भारत में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य आदि जैसे गणितज्ञ और कपिल, जैमिनी, व्यास, कणाद, पतंजलि और  गौतम जैसे महान दार्शनिक हुए । यूनान और अरब में यूक्लिड, पाइथोगोरस, उमर खय्याम, अल ख़्वारिज़्मी आदि जैसे गणितज्ञ और सुकरात, अरस्तू, अल ग़ज़ाली, अल मआरी जैसे अनेक दार्शनिक हुए । इन्हीं स्थानों के विद्वानों ने सर्वप्रथम यह प्रदर्शित किया कि मनुष्य एक बौद्धिक प्राणी है । ये सभी स्थान दक्षिण-मध्य एशिया और मध्य-पूर्व में स्थित हैं । लेकिन अब ऐसा प्रतीत होता है कि ये स्थान बौद्धिकता के तिरस्कार के केन्द्र बन गए हैं । ऐसा कहने का कुछ आधार है ।

पिछले 118 वर्षों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व भर के विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों को नोबल पुरस्कार दिए जाते रहे हैं । इन पुरस्कारों को बौद्धिकता और विद्वता का मापक माना जा सकता है । अब तक के नोबल पुरस्कार विजेताओं की सूची पर ध्यान  दें तो एक चौंकाने वाला परिणाम सामने आता है । दुनिया के जो स्थान 3-4 हज़ार वर्ष पूर्व विद्वानों के गढ़ थे उन स्थानों से नोबल विजेताओं की संख्या उंगलियों में गिने जाने लायक हैं । जबकि दुनिया के उन स्थानों से जहां की प्राचीन सभ्यता का कोई इतिहास नहीं है, अब तक सैकड़ों विद्वान नोबल पुरस्कार पा चुके हैं ।

इसका कारण क्या हो सकता है ? एक बात तो तय है कि जहां अशिक्षा होगी वहां बौद्धिकता और विद्वता का कोई मूल्य नहीं होगा । अशिक्षा का एक और उपउत्पाद है- धार्मिक अनुदारता। इन कथनों को ये आंकड़े सिद्ध करते हैं-

पिछले 118 वर्षों में कुल 935 नोबल पुरस्कार दिए गए हैं, जिनमें सामान्यतया दुनिया के हर प्रमुख धर्म और  संप्रदाय के विद्वान हैं । मुस्लिम धर्म को मानने वालों की संख्या विश्व में दूसरे क्रम में सबसे अधिक है, लगभग 1 अरब 80 करोड़, उस समुदाय के केवल 12 विद्वानों को यह पुरस्कार मिला है । इन 12 पुरस्कारों में भी 7 केवल शांति के लिए है, साहित्य के लिए 2 और विज्ञान के लिए केवल 3 ।

तीसरा सबसे बड़ा धर्म हिंदू है जिसे मानने वालों की संख्या 1 अरब 10 करोड़ है । अब तक इस समुदाय के केवल 7 विद्वानों को ही नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ है । शांति के लिए 1, साहित्य के लिए 1, अर्थशास्त्र के लिए 1 और विज्ञान के लिए 4 । विज्ञान के लिए जिन 4 विद्वानों को यह पुरस्कार मिला है उनमें से 3 विदेशी नागरिकता ले चुके थे ।

विश्व का पहले क्रम का सबसे बड़ा धर्म इसाई धर्म है । इसके अनुयायियों की संख्या लगभग 2 अरब 40 करोड़ है । इस समूह के विद्वान अब तक दिए गए 935 नोबल पुरस्कारों में से कुल 654 पुरस्कार जीत चुके हैं । विश्व में इनकी जनसंख्या केवल 30 प्रतिशत है लेकिन 70 प्रतिशत नोबल पुरस्कार इन्होंने ही प्राप्त किया है ।

इससे भी आश्चर्यजनक एक और तथ्य है । दुनिया में यहूदी धर्म के मानने वालों की संख्या मात्र 1 करोड़ 45 लाख है जो हमारे गोवा प्रदेश की जनसंख्या के बराबर है । किंतु इसके अनुयायियों ने अब तक कुल 198 नोबल पुरस्कार जीता है । यह कुल दिए गए पुरस्कार का 22 प्रतिशत है जबकि इनकी जनसंख्या विश्व की जनसंख्या का केवल 0.2 प्रतिशत है ।

उक्त आंकड़ों से कुछ निष्कर्ष निकलते हैं । जो समुदाय 118 वर्षां में भी अपनी जनसंख्या के अनुपात में नोबल पुरस्कार प्राप्त नहीं कर सके हैं वे ऐसे समुदाय हैं जो उच्च शिक्षा और शोधकार्यों में पीछे हैं और जो धार्मिक रूप से उदार नहीं हैं । पुरस्कार प्राप्त करने वाले समुदायों में ज्ञान-विज्ञान के प्रति आकर्षण है और वे धर्म के प्रति उदार दृष्टिकोण रखते हैं । इस संदर्भ में जापान एक अच्छा उदाहरण है ।
वहां धार्मिक पाखंड, धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवादिता जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है । वे तार्किक ज्ञान पर विश्वास करते हैं । इसीलिए इस छोटे और कम जनसंख्या वाले देश ने अब तक कुल 25 नोबल पुरस्कार प्राप्त किए हैं ।

ऐसा नहीं है कि नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले व्यक्ति बिल्कुल भी धार्मिक नहीं होते । 90 प्रतिशत पुरस्कार विजेता किसी सर्वोच्च सत्ता पर विश्वास करते हैं लेकिन वे कट्टर धार्मिक नहीं हैं । उनका धर्म केवल मानवता है । वे सच्चे अर्थों में मानवतावादी होते हैं । वास्तव में उन्होंने जो कार्य किया है वह केवल अपने ही धर्म के लिए नहीं बल्कि समूची मानवता के लिए है ।

जहां से हमने बात शुरू की थी वहीं लौट जाएं । मध्य-पूर्व और दक्षिण-मध्य एशिया की वर्तमान स्थिति पर विचार कीजिए । इतिहास की वे महान बौद्धिक और तार्किक कही जाने वाली सभ्यताएं जिनके ज्ञान-विज्ञान ने बाकी दुनिया को राह दिखाई , आज इसीलिए पीछे हो गईं क्योंकि उनकी परवर्ती पीढ़ियों ने ज्ञान-विज्ञान और धर्म के मूल तत्वों की संकीर्ण व्याख्या की , अशिक्षा और धार्मिक अनुदारता को प्रश्रय दिया । इन्होंने ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसे मानवतावादी मंत्रों को भुला दिया ।

-महेन्द्र वर्मा