औपनिषदिक ब्रह्म और ऊर्जा



उपनिषदों में ब्रह्म की अवधारणा एक दार्शनिक अवधारणा है, धार्मिक अवधारणा नहीं । वेदों के संहिता खंड में बहुत सी प्राकृतिक शक्तियों के लिए प्रार्थनाओं का उल्लेख है । ब्राह्मण खंड में इन प्राकृतिक शक्तियों की उपासना के लिए कर्मकाण्ड का विधान वर्णित है । इस कर्मकाण्ड की प्रतिक्रिया के रूप में उपनिषदों में ऋषियों ने एक नया विचार प्रस्तुत किया जो आगे चलकर भारतीय दर्शन का मूल बना। इस विचार के अंतर्गत ब्रह्म की अवधारणा प्रस्तुत की गई जो वेदों में उल्लेखित प्राकृतिक शक्तियों का केवल एकीकृत रूप ही नहीं है बल्कि विशाल ब्रह्माण्ड से लेकर सूक्ष्म कण जैसे पदार्थों तक, अमूर्त भौतिक शक्तियों से लेकर भावनाओं तक का समेकित रूप है।

ब्रह्म के वर्णन में विचारणीय बात यह है कि इसमें और आधुनिक विज्ञान की ऊर्जा संबंधी तथ्यों में बहुत अधिक समानता परिलक्षित होती है ।

आधुनिक विज्ञान मुख्य रूप से पदार्थ और ऊर्जा का अध्ययन करता है । संपूर्ण ब्रह्माण्ड इन्हीं दोनों की परस्पर प्रतिक्रिया से संचालित है । ऊर्जा के संबंध में विज्ञान के विचार ये हैं-

1.    ऊर्जा उत्पन्न नहीं की जा सकती और न ही नष्ट की जा सकती है । दूसरे शब्दों में, इस ब्रह्माण्ड में जितनी ऊर्जा है उतनी पहले भी थी और उतनी ही हमेशा रहेगी । यहां जितनी और उतनी शब्दों को अनंत के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है ।
2.    ऊर्जा एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में स्थानांतरित हो जाती है, स्वाभाविक रूप से अथवा प्रयास द्वारा ।
3.    ऊर्जा के द्वारा कार्य संपन्न होता है अर्थात यह प्रत्येक कार्य का कारण है ।
4.    ऊर्जा स्वयं को अनेक रूपों में व्यक्त करती है, स्वाभाविक रूप से या प्रयास द्वारा ।
5.    चूंकि ऊर्जा पदार्थ नहीं है इसलिए इसका कोई रूप-आकार, रंग-गंध, घनत्व-आयतन आदि जैसा  गुण नहीं होता ।
6.    प्रत्येक पदार्थ में ऊर्जा निहित है ।
7.    पदार्थ ऊर्जा में और ऊर्जा पदार्थ में परिवर्तित होती रहती है ।
8.    ऊर्जा वह है जिसके कारण कोई कार्य संपन्न होता है ।
9.    पदार्थ ऊर्जा के कारण ही अस्तित्व में आते हैं, ऊर्जा के कारण ही उनका अस्तित्व बना रहता है और ऊर्जा के कारण ही वे नष्ट होकर पुनः ऊर्जा में रूपांतरित हो जाते हैं ।


उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म संबंधी विचारों में यद्यपि उस समय तक उपलब्ध तार्किक ज्ञान और उस समय की चिंतन शैली और उस समय की काव्यमय भाषा झलकती है फिर भी ब्रह्म के लक्षण संबंधी मूल विचार स्पष्ट हैं, जिन्हें हम तथ्य कह सकते हैं । इन तथ्यों में यदि ब्रह्म के स्थान पर उर्जा रखकर मनन करें तो भी ये कथन ऊर्जा के संदर्भ में सही हैं । इन पर विचार करें और ब्रह्म की ऊर्जा से तुलना करें -

अनाद्यनंतम् महतः परं ध्रुवं । कठोपनिषद, 1।3।15

ब्रह्म अनादि और अनंत है, श्रेष्ठ है और दृढ़ सत्य है ।
ऊर्जा का भी प्रारंभ और अंत नहीं होता ।

नित्यं विभुं सर्वगतं ।
मुंडक 1।1।6

ब्रह्म नित्य है, व्यापक है और सब में विस्तारित है ।
ऊर्जा भी शाश्वत है, सर्वत्र है और सभी पदार्थों में है ।

अक्षरात्संभवतीह विश्वं। मुंडक 1।1।7

अविनाशी ब्रह्म से ही इस सृष्टि में सब कुछ उत्पन्न होता है ।
ऊर्जा से ही पदार्थों की उत्पत्ति होती है, पहले निर्जीव बाद मे क्रमशः सजीव।

सर्वखल्वमिदम् ब्रह्म । छान्दोग्य 3।14।1

यह संपूर्ण विश्व ब्रह्म है ।
चूंकि पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित होता है इसलिए विश्व को ऊर्जामय कह सकते हैं ।

एकं रूपं बहुधा यः करोति । कठ, 2।2।12

ब्रह्म अपने एक रूप को ही विविध रूपों में व्यक्त करता है ।
सभी प्रकार के पदार्थ ऊर्जा के ही रूपांतरण हैं । एक  ही ऊर्जा  विभिन्न  प्रकार की ऊर्जा में रूपांतरित हो सकती है ।

इदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । छांदोग्य 6।2।1

आरंभ में यह एकमात्र अद्वितीय ही था ।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के पहले केवल ऊर्जा ही विद्यमान थी, कृष्ण विवर के रूप में । महाविस्फोट सिद्धांत यही व्यक्त करता है ।

यतो वा इमानिभूताति जायन्ते येन जातानि जीवन्ति,
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, तद्विजिज्ञासत्व ।
तैत्तिरीय, 3।1।1

ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अनंत है, जिनसे ये सम्पूर्ण पदार्थ जन्म लेते, जन्म लेकर जिनसे जीवन धारण करते तथा प्रलय के समय जिनमें पूर्णतः प्रवेश कर जाते हैं, उनको जानने की इच्छा करो ।
पदार्थ ऊर्जा के कारण ही अस्तित्व में आते हैं, ऊर्जा के कारण ही उनका अस्तित्व बना रहता है और ऊर्जा के कारण ही वे नष्ट होकर पुनः ऊर्जा में रूपांतरित हो जाते हैं ।

अस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्नेहमच्छायमतमो अवाय्वनाकाशमसड.गमरसमगन्धमचक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनो अतेजस्कमप्राणममुखममात्रमनन्तरमबाह्यम् बृहदारण्यक 3।8।8

वह ब्रह्म न स्थूल है, न अणु है, न क्षुद्र है, न विशाल है, न अरुण है, न द्रव है, न छाया है, न तम है, न वायु है न आकाश है, न संग है, न रस है, न गंध है, न नेत्र है, न कर्ण है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न माप है, उसमें न अंतर है न बाहर है ।
ऊर्जा के संबंध में भी ये बातें सही हैं ।

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्,
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि ।
केन 1। 5

जिसका मन के द्वारा मनन नहीं होता, जिसकी शक्ति से ही मन मनन करने में समर्थ होता है, उसी को तुम ब्रह्म जानो ।
जब हम सोचते हैं तो भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।

येद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते। केन, 1।4

जो वाणी के द्वारा अभिव्यक्त नहीं होता, जिसके द्वारा वाणी अभिव्यक्त होती है, उसे ही तुम ब्रह्म जानों ।
हम ऊर्जा के कारण ही बोल पाते हैं ।


स आत्मा, तत्वमसि । छांदोग्य 6।8।7

यह आत्मा है, वह तुम हो ।
आत्मा भी ऊर्जा है, तुम ऊर्जा हो । चूंकि तुम कार्य कर सकते हो इसलिए तुम्हारे भीतर ऊर्जा है ।

अहं ब्रह्मास्मि । बृहदारण्यक 1।4।10

मैं ब्रह्म हूं ।
मैं ऊर्जा हूं ।

छान्दोग्य उपपिषद के 7 वें अध्याय में कहा गया है कि नाम, वाक्, मन, संकल्प, चित्त, ध्यान, विज्ञान, बल, अन्न, जल, तेज, आकाश, स्मरण, आशा, प्राण ....ये ब्रह्म हैं ।
हमारे मन की भिन्न-भिन्न दशाएं और भावनाएं भी मानसिक ऊर्जा के कारण प्रदर्शित हो पाती हैं । 
 
ब्रह्म के संबंध में इतना सब वर्णन के पश्चात् भी अंत में उपनिषदों ने उसे 'नेति-नेति ' कहा है अर्थात उसके संबंध में चाहे जितना भी कहा जाए तब भी उसका पूर्ण वर्णन नहीं किया जा सकता  । दुसरे शब्दों में ब्रह्म अपरिभाषेय है । ठीक इसी तरह विज्ञान भी ऊर्जा की निश्चित परिभाषा नहीं दे सका है, ऊर्जा अपरिभाषित है । विद्यालयों में बच्चों को समझाने के लिए बताया जाता है कि 'कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं ', किन्तु यह ऊर्जा का एक अत्यंत सीमित अर्थ है , सम्पूर्ण परिभाषा नहीं ।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि ब्रहम की अवधारणा ऊर्जा की अवधारणा से बिल्कुल मेल खाती है । ब्रह्म के बारे में जो कुछ भी कहा गया है वे सारी बातें ऊर्जा के लिए भी पूर्णतः सही हैं । प्रारंभ में रचे गए 10 मुख्य उपनिषदों में ब्रह्म संबंधी ऐसे ही अनेक उदाहरणों की प्रचुरता है । यहां केवल कुछ ही दिए गए हैं । यह चर्चा दर्शन से संबंधित है। वर्तमान समय में दर्शन के अंतर्गत परंपरागत विषयों पर चर्चा नहीं की जाती क्योंकि जो कभी दर्शन के विषय थे उनमें से अनेक का अब विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन होता है, जैसे सृष्टि की उत्पत्ति और उसका विकास, सृष्टि को संचालित करने वाली शक्ति आदि  । प्रारंभिक उपनिषदों के बाद के विद्वानों ने ब्रह्म को  सगुण और निर्गुण में विभाजित कर दिया । अब निर्गुण ब्रह्म दर्शन के क्षेत्र में आ गया और सगुण ब्रह्म धर्म का विषय हो गया । तब से लोगों ने निर्गुण ब्रह्म को भुला दिया । ब्रह्म के इस विभाजन के फलस्वरूप भ्रमपूर्ण धर्म का विकास हुआ और  भारतीय दर्शन आहत हुआ ।  आस्थावानों के मन की संतुष्टि के लिए कह दिया जाता है  कि दोनों में कोई अंतर नहीं । ब्रह्म का विभाजन दर्शन ने नहीं किया बल्कि धर्म ने किया । औपनिषदिक  दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही सर्वोच्च शक्ति है यानी  ऊर्जा ही सर्वोच्च शक्ति है ......!



-महेन्द्र वर्मा

पांच सुरों का सौंदर्य





ज्योति कलश छलके,
हुए गुलाबी लाल सुनहरे
रंग दल बादल के.....

यह एक पुरानी फ़िल्म का गीत है । यह गीत आपको आज भी अच्छा लगता होगा। इस गीत की कई ख़ूबियों में से एक यह है कि इस गीत की धुन केवल पांच सुरों के मेल से बनी है । इस गीत के कर्णप्रिय होने का एक कारण यही पांच सुर हैं । हम जो गाने सुनते, गाते या बजाते हैं उनमें छह और सात सुरों का उपयोग सामान्य है । कुछ गीतों में तो सभी बारह सुर लगाए गए हैं । संगीत के जानकारों का कहना है कि पांच से कम सुरों से कोई राग नहीं बन सकता । किसी गीत को गाने के लिए कम से कम पांच सुरों की आवश्यकता तो होगी ही ।

पांच सुरों से सजा केवल ‘ज्योति कलश छलके’ ही नहीं है, हज़ारों गीत हैं । ‘पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में’, ‘जाने कहां गए वो दिन’, ‘नीले गगन के तले धरती का प्यार पले’, ‘तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है’, ‘कोई सागर दिल को बहलाता नहीं’ आदि फ़िल्मी गीतों के अलावा अनेक गैरफिल्मी गीत, ग़ज़ल, भजन आदि भी हैं । लोक गीत भी हैं, शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन पांच सुरों वाले रागों में भी होता ही है । केवल हमारे देश में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर क्षेत्र में पांच सुर वाले गीत-संगीत  लोकप्रिय हैं । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि छह या सात सुर वाले गीत-संगीत कम लोकप्रिय हैं । संगीत प्रिय ही होता है, चाहे लोक का हो या शास्त्र का ।

पांच सुरों वाले गीतों की कर्णप्रियता प्राकृतिक और आदिम है । इस बात को पचास हज़ार वर्ष हो गए जब मनुष्य ने नैसर्गिक रूप से गुनगुनाना सीख लिया था या कहें, विकसित कर लिया था। मां जब अपने शिशु को सुला रही होती है तो वह सहसा गुनगुनाने भी लगती है । यह गुनगुनाना वही आदिम गुनगुनाना है । वही भावना और वही स्वर। इस गुनगुनाने में स्वाभाविक रूप से तीन, चार या अधिकतम पांच सुरों का प्रयोग होता है। बच्चों के खेल गीतों में भी प्रायः तीन से पांच सुरों का प्रयोग होता है ।

अतीत के गीत-संगीत में पांच सुरों के प्रयोग का एक पुरातात्विक प्रमाण भी मिला है । दक्षिण जर्मनी की पहाड़ियों की एक गुफा में एक बांसुरी जैसा वाद्ययंत्र मिला है । यह किसी पक्षी की हड्डी से बना है । इसमें चार छेद हैं जो यह दर्शाते हैं कि इससे पांच स्वर उत्पन्न किए जाते थे । पुरातत्वविदों ने इसे चालीस-पचास हज़ार साल पुराना माना है । पांच सौ ई.पू. के तमिल संगम साहित्य में पांच सुरों के समूह ‘पन्’ का उल्लेख है । पांच सुर वाले रागों की परंपरा यहीं से प्रारंभ हुई ।

प्राचीन गीतों में सात सुरों में से शुरू के लगातार तीन, चार या पांच सुरों की प्रधानता होती थी । बाद के विकास क्रम में जब मनुष्य में सुरों का सौंदर्यबोध थोड़ा और विकसित हुआ तो उसने अनुभव किया कि नैसर्गिक सात सुरों में से बीच के दो सुरों (जैसे ग और नि) को छोड़ दें तो केवल पांच सुरों के गाने में कहीं अधिक मधुरता होती है। विश्व के अनेक भागों में आज भी पांच सुरों वाला गीत-संगीत उनकी संस्कृति की पहचान है । अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, यूरोप और एशिया के अनेक देशों में पांच सुर वाले गीत लोकप्रिय हैं । चीन और जापान के संगीत विधान में तो पांच सुरों की ही प्रधानता है । हिंदी फ़िल्म ‘लव इन टोकियो’ के गीत ‘सायोनारा सायोनारा’ को जापानी संगीत में ढालने की कोशिश की गई है।

भारत के अनेक राज्यों के लोकगीतों में पांच सुर मिलते हैं । हिमाचल और उत्तरांचल के पारंपरिक लोकगीतों में पांच सुरों की मधुरता स्पष्ट झलकती है । शास्त्रीय राग दुर्गा का विकास यहीं के लोकगीत से हुआ है । गुजरात का गरबा गीत भी पांच सुरों का है । ‘पंखिड़ा ओ पंखिड़ा’ आपने ज़रूर सुना होगा । असम के बिहू नृत्य के साथ गाए जाने वाले गीत भी पांच सुरों से सजे होते हैं।

भारतीय शास्त्रीय संगीत में पांच सुर वाले 30 से अधिक राग हैं । हिंदी फिल्मों के अनेक गीत इन्हीं रागों पर आधारित हैं । कुछ उदाहरण देखिए- ‘चंदा है तू मेरा सूरज है तू’, ‘जा तोसे नहीं बोलूं कन्हैया’, ‘मन तड़पत हरि दरसन को आज’, ‘आ लैट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’, ‘बहारों फूल बरसाओ’, ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’, ‘देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए’, ‘मेरे नैना सावन भादों’ आदि ।

इन गीतों की मधुरता के कई कारणों में एक यह है कि इनके सभी पांच सुर परस्पर सुसंगत होते हैं। दो सुर अनुपस्थित होने के कारण जो ‘गेप’ बनता है वह गीत में विशेष प्रभाव उत्पन्न करता है । लेकिन ये सुर सभी गीतों में एक जैसे नहीं हैं । कुल बारह सुरों में से कोई पांच ऐसे सुर चुने जाते हैं जो सुनने में रंजक लगे । एक शोध का निष्कर्ष है कि इन से जो राग बने हैं उनको सुनने से मस्तिष्क को शांत और प्रसन्न रखने वाले रसायन ‘डोपामाइन’ के स्तर में वृद्धि होती है ।

-महेन्द्र वर्मा

सप्ताह के दिनों का नामकरण - कब, कहां, कैसे ?



समय की गणना के लिए सप्ताह एकमात्र ऐसी इकाई है जो किसी प्राकृतिक घटना पर आधारित नहीं है । समय की अन्य सभी इकाइयां जैसे, वर्ष, महीना, दिन, घटी, घंटा, किसी न किसी प्राकृतिक घटना से संबंद्ध हैं । चंद्रमा की घटती-बढ़ती कलाओं के आधार पर दिनों की गणना की प्रक्रिया आदिम लोगों ने प्रारंभ की थी, किसी गणितज्ञ या वैज्ञानिक ने नहीं । दुनिया के अनेक क्षेत्रों में इन 15 दिनों के क्रमसूचक नामों का उपयोग आज भी होता है जैसे, भारत में पूर्णिमा या अमावस्या के बाद प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया और ग्रामीण इलाकों में परिवां, दूज, तीज आदि । तिथियों से दिनों को जानने की परंपरा 50 हज़ार वर्ष पुरानी है । आज दुनिया भर में सप्ताह और इस के सात दिनों के नाम चलन में हैं । ये नाम फलित ज्योतिष में प्रचलित ग्रहों के नामों पर आधारित है। दिनों के नामकरण की प्रक्रिया अतीत में 2000 वर्षों तक क्रमशः विकसित होती रही ।

सप्ताह की अवधारणा की शुरुआत कब और कहां हुई इस का परीक्षण पहले भारत से ही प्रारंभ करते हैं । हमारे देश के सबसे प्राचीन लिखित साहित्य वेदों (रचना काल 2500 ई.पू.) से लेकर महाभारत (रचना काल 500 ई.पू.) तक के विशाल साहित्य में दिनों के नामों का कहीं उल्लेख नहीं है । लगध रचित ऋग्वेदीय वेदांग ज्योतिष में तो सूर्य और चंद्र के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रह का नाम तक नहीं है ।

अथर्ववेदीय वेदांग ज्योतिष (500 ई.पू.) के एक श्लोक में दिनों के स्वामी के रूप में ग्रहों के नामों का उल्लेख है । इसके अतिरिक्त सप्ताह या दिनों के संबंध में और कोई विवरण नहीं है । चौथी शती में रचित याज्ञवल्क्य स्मृति में फलित ज्योतिष के नौ ग्रहों के नाम हैं । इस श्लोक में विशेष बात यह है कि प्रथम सात ग्रहों के नाम उसी क्रम में हैं जिस क्रम में दिनों के नाम आज प्रचलित हैं । प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट ने अपनी पुस्तक आर्यभटीयम् (5वीं शती) में ‘होरा’ के स्वामी ग्रहों का उल्लेख किया है किंतु यह नहीं लिखा है कि यही दिनों के नाम भी हैं । आगे चर्चा करेंगे कि ‘होरा के स्वामी’ से किसी दिन के नाम का निर्धारण कैसे होता है ।

किसी दिवस या दिन के नाम का सर्वप्रथम उल्लेख पांचवी शती के एक शिलालेख में अंकित है । मध्यप्रदेश के सतना ज़िले में एरण एक पुरातात्विक स्थल है । यहां एक पाषाण स्तंभ के लेख में तिथि के साथ ‘सुरगुरुर्दिवसे’ अंकित है जिसका स्पष्ट अर्थ है- गुरुवार के दिन । प्रसिद्ध गणितज्ञ वराहमिहिर (6वीं शती) लिखित पंचसिद्धांतिका के पहले अध्याय में एक श्लोक में सोमदिवस अर्थात सोमवार का उल्लेख है ।

उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि ई.सन् की चौथी-पांचवीं शती के पहले तक भारत में सप्ताह और  उसके दिनों के नाम प्रचलित नहीं थे। पांचवी शती के बाद दिनों के नाम ग्रंथों में मिलने शुरू होते हैं लेकिन हमारे किसी भी प्राचीन ग्रंथ में इस बात का कोई विवरण नहीं मिलता कि सप्ताह की शुरुआत कब और कैसे हुई और दिनों के नाम ग्रहों के नाम पर क्यों रखे गए हैं । ‘भारतीय ज्योतिष’ के विद्वान लेखक शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने लिखा है- ‘‘वारों की उत्पत्ति हमारे देश में नहीं हुई है क्योंकि उनकी उत्पत्ति का संबंध ‘होरा’ नामक अवधारणा से है जो हमारे देश का नहीं है ।’’

‘होरा’ शब्द मूलतः लैटिन horae और ग्रीक ώρα ओरा है जिसका अर्थ है- एक निश्चित समयावधि । दिन-रात के समय को छोटी इकाइयों में विभाजित करने का प्रयास सब से पहले इज़िप्त में 2400 ई.पूर्व हुआ था लेकिन इसकी जड़ें बेबीलोन, खाल्दिया और सुमेर से जुड़ी हुई थीं। यहां के खगोल विज्ञान में रुचि रखने वाले लोगों ने धूप घड़ी की सहायता से सूर्योदय से सूर्यास्त तक के समय को दस भागों में विभाजित किया । सुबह-शाम के उजाले की अवधि को मिला कर बारह भाग बनाए । रात की अवधि को कुछ विशेष तारा-समूहों के आधार पर बारह विभाग किए । इस प्रकार दिन-रात की अवधि को चौबीस भागों में विभाजित किया । तब ये विभाग समान नहीं थे । बाद में जल घड़ी के द्वारा चौबीस भागों को समान किया गया । समय विभाजन की यह अवधारणा जब ग्रीस पहुंची तो वहां इसे ‘ओरा’ नाम दिया गया जो लैटिन में ‘होरा’ और अंग्रेज़ी में ‘आवर hour’ बना । होरा संस्कृत का शब्द नहीं है । वराहमिहिर जानते थे कि होरा ग्रीक शब्द है, फिर भी उन्होंने ‘वृहद् जातक’ (1.3) में लिखा कि संस्कृत के अहोरात्र शब्द से अ और त्र को विलोपित कर देने से होरा शब्द बना । लेकिन उन्होंने अपने एक और ग्रंथ ‘वृहद् संहिता’ (2.14) में ग्रीक ज्योतिषियों की प्रशंसा करते हुए उन्हें ऋषितुल्य पूज्य माना है । भारत में वेदांग ज्योतिष काल से दिन-रात की अवधि का विभाजन 60 घटी या नाड़ी ही प्रचलित है । आज भी पंचांगों में घटी-पल में समय को दर्शाया जाता है । घंटा, मिनट और सेकंड का प्रचलन तो 17 वीं शताब्दी के अंत में अंग्रेज़ों के शासनकाल में शुरू हुआ ।

महीने को कुछ दिनों के समूहों में बांटने की परंपरा भी मेसोपोटामियाई सभ्यता के बेबीलोन और खाल्दिया से आरंभ होती है । खाल्दियनों ने लगभग 2500 ई.पू. आकाश में आसानी से पहचाने जा सकने वाले 5 ग्रहों और सूर्य-चंद्रमा का एक विशेष क्रम निर्धारित किया था । सूर्य से दूरी के आधार पर इन आकाशीय पिंडों, जिसे उस समय के ज्यातिषियों ने ग्रह कहा,  का क्रम इस प्रकार है- शनि, बृहस्पति, मंगल, चंद्र, शुक्र, बुध और सूर्य। यहां दिए गए ग्रहों के नाम ग्रीक नामों के संस्कृत शब्दार्थ हैं । खाल्दियनों ने इन पिंडों को पृथ्वी से आभासित होने वाली इनकी गतियों के आधार पर आरोही क्रम में इस प्रकार रखा- शनि, बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चंद्रमा। उनकी मान्यता थी कि दिन-रात के 24 होरा भागों में प्रत्येक ग्रह का ‘शासन’ होता है । तदनुसार प्रत्येक होरा के लिए उपरोक्त क्रम से एक-एक ग्रह शासक बनाए गए । फिर यह तय किया गया कि सूर्योदय के समय जिस ग्रह की होरा होगी उसी ग्रह के नाम पर पूरे दिन का नाम होगा ।

पहली बार जब यह नियम लागू हुआ तो उस दिन सूर्योदय के समय की होरा को सूर्य द्वारा शासित ‘मान लिया गया’ क्योंकि सूर्य सबसे बड़ा और सर्वाधिक पूज्य ‘ग्रह’ था । 24 होरों के साथ सूर्य से प्रारंभ कर क्रमशः एक-एक ग्रह रखे जाएं तो पच्चीसवां ग्रह चंद्रमा होगा जो अगले दिन सूर्योदय के समय के होरा का शासक या स्वामी होगा और इसलिए उस पूरे दिन का नाम भी । यही क्रम निरंतर रखे जाने पर दिनों के नामों का अग्रलिखित क्रम बनता है- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि । यही 7 दिनों का समूह या सप्ताह बना । इसके समकालीन प्राचीन सभ्यताओं- मिस्र में 10, ग्रीक और रोमनों में 8  दिनों का समूह प्रचलित था । ग्रीक शासकों ने सबसे पहले इस पद्धति को अपनाया ।

अब इस बात की चर्चा कर लें कि यह पद्धति भारत में कब और कैसे आई । 326 ई.पू. ग्रीक के शासक अलेक्ज़ेन्डर ने भारत पर आक्रमण किया । इसी के बाद से भारत और ग्रीक में ज्ञान-विज्ञान का आदान-प्रदान प्रारंभ हुआ जिसमें ज्योतिषीय ज्ञान भी था । ई की दूसरी शती में उज्जयनी में स्फुजिध्वज नामक राज्याधिकारी ने यवनजातक नामक ग्रंथ संस्कृत में लिखा था । ग्रीस को संस्कृत में यूनान और वहां से संबंधित बातों और निवासियों को यवन कहते हैं । इस यवनजातक ग्रंथ के एक श्लोक (77.9) का अनुवाद यह है- ‘‘यवन ज्योतिषियों ने सप्ताह के विभिन्न दिनों में लोगों के करने लायक जो-जो कार्य बताए हैं उन्हें प्रत्येक होरा के लिए भी लागू मानना चाहिए ।’’ इसी ग्रंथ के साथ भारत में सप्ताह, दिनों के नाम और होरा का प्रवेश हुआ । अगले 2-3 शताब्दियों के बाद दिनों के नाम के साथ अनेक काल्पनिक बातें लेखकों ने लिखनी शुरू कर दीं जिन्हें आज लोग भ्रमवश वैदिक और धार्मिक मान लेते हैं ।

एक बात और-यदि बेबीलोनवासी होरा से दिनों का नामकरण 1-2 दिन पहले या बाद में शुरू किए होते तो आज के दिन का नाम वह नहीं होता जो आज है !

-महेन्द्र वर्मा