छत्तीसगढ़ी में संस्कृत के शब्द




छत्तीसगढ़ के किसानों के लिए इस मौसम में ‘ओल’ महत्वपूर्ण हो जाता है । रबी फसल के लिए खेत की जुताई-बुआई के पूर्व किसान यह अवश्य देखता है कि खेत में ओल की स्थिति क्या है । ओल मूलतः संस्कृत भाषा का शब्द है । विशेष बात यह है कि ओल का जो अर्थ संस्कृत में है ठीक वही अर्थ छत्तीसगढ़ी में भी है । दोनों भाषाओं में ओल का अर्थ नमी है ।


शब्द या़त्रा करते हैं, समय और देश, दोनों के सापेक्ष । इस यात्रा के प्रभाव से अनेक शब्द अपना स्वरूप और अर्थ बदल देते हैं । किंतु कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं जो हज़ारों साल बाद भी अपना चोला नहीं बदलते । हिन्दी सहित भारत की लगभग सभी भाषाओं और बोलियों में संस्कृत के बहुत सारे शब्द हैं ।   छत्तीसगढ़ी में भी कुछ ऐसे शब्द हैं जो संस्कृत के हैं और जिनकी वर्तनी और अर्थ दोनों अभी भी संस्कृत के समान हैं । ऐसे ही कुछ शब्दों के उदाहरण देखिए- पर, दूसरे, पर के जिनिस । समेत, सहित, झउहाँ समेत उठा ले । कपाट, किवाड़, कपाट ल ओधा दे । मरीच, काली मिर्च, सरदी हे त घी मरीच पी ले । लसुन, लहसुन, लसुन मिरचा के चटनी, संस्कृत वर्तनी लशुन है । सङ्ग, साथ, ओकर संग ल झन छोड़बे । हन, मारना, ओतके मा नँगत हन दीस । कुकुर, कुत्ता । संस्कृत शब्दकोषों में कुकुर की दो और वर्तनियाँ हैं- कुर्कर और कुक्कुर, संस्कृत पर्याय श्वान भी है। कूची, चाबी, तारा के कूची गँवागे । नाथ, बैल के नाक में डाली गई रस्सी, बइला ल नाथ दे.......इत्यादि ।


अब छत्तीसगढ़ी के कुछ ऐसे शब्द जो संस्कृत के हैं किंतु जिनकी वर्तनी में छत्तीसगढ़ी में उच्चारण लाघव के कारण ज़रा-सा ही परिवर्तन हुआ है । अङ्गार से अँगरा, गुरु से गरू अर्थात भारी, प्रीत से पिरीत, विष से बिख, वृथा से बिरथा, इह से इही यानी यहीं, मरकी ला इही मेर मढ़ा दे । स्वाद से सेवाद, शाक से साग, वत्सर से बच्छर या बछर किंतु वर्ष से बरस, सर्वस्व से सरबस, अपन सरबस ल दान कर दीस । व्यवहार से बेवहार, सूची से सूजी अर्थात सुई, आदित्यवार से अइतवार, लवङ्ग से लवाँग, दोला से डोला यानी पालकी, अञ्जलि से अँजरी, हृदय से हिरदे, विपत्ति से बिपत, चिक्कण से चिक्कन यानी चिकना, मुहूर्त से मुहरुत, मूक से मुक्का यानी गूँगा, चमस से चम्मस यानी चम्मच, वर्जना से बरजना यानी मना करना, चिह्न से चिनहा, पाण्डर से पँड़रा यानी सफेद, छन्द से छाँदना- घोड़वा ला छांद दे, पाषाण से पखना, प्रस्तर से पथरा, तप्त से तात, तात पानी पीबे के जूड़ पानी ।


पीयूष या पेयूष से पेंउस, प्रसूता गाय के दूध से बना व्यंजन, देहली से डेहरी, प्रकट से परगट, दलन से दरन- अरन बरन कोदो दरन, जभे देबे तभे टरन । घर्षण से घँसरना, भित्ति से भितिया यानी दीवार, महिषी से भैंसी- भैंसी हा भितिया मा मूड़ी ला घँसरत हे । मुण्ड से मूड़, मसि से मस यानी स्याही, हमारे समय में स्याही की टिकिया आती थी, हम कहते थे- दवात मा मस घोर डरेंव। बर्बटी से बरबट्टी, भृति से भूती, मजदूरी, बनी-भूती, चित्रित से चितरी- चितरी केरा, संलग्न से सरलग, सूत्र से सूत यानी धागा, हड्ड से हाड़ा, हण्डी से हाँड़ी और हँड़िया, शिला से सिल, चटनी पीसने का.......आदि ।


छत्तीसगढ़ी में बहुत से शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत से आए हैं किंतु उनकी वर्तनी में अधिक अंतर हो गया है जबकि अर्थ वही हैं जो संस्कृत में हैं, उदाहरण देखिए- पोष्य से पोंसवा, जिसका पालन और पोषण किया जाए, पोंसवा कुकुर, आश्चर्यचकित से अचानचकरित, स्कन्ध से खाँध यानी कंधा, विलोडन से बिलोना, दही बिलोना, अम्लिका से अमली यानी इमली, स्फुटन से फूटना यानी फटना, फुग्गा फूटगे, विकार से बिगाड़, मित्र से मितान, योक्त्र से जोंता यानी गाड़ी में बैल को युक्त करने की रस्सी, राक्षस से रक्सा, लङ्घ से लाँघन रहना यानी उपवास रहना, वण्ड से बँड़वा यानी जिसमें नोक न हो या कुछ हिस्सा टूट गया हो, प्रतिवेशी से परोसी यानी पड़ोसी । भृङ्गराज से भेंगरा, एक पौधा, पट्टवायक से पटवा, धागे से अनेक प्रकार की शृंगारिक वस्तुएं बनाने वाला, अक्ष से अस्कुड़ यानी बैलगाड़ी का एक्सेल ।


अञ्जन से आँजना, लइका ला काजर झन आँज, अनम्बर से नँगरा यानी बिना कपड़े का, ईर्ष्या से इरखा, पारावत से परेवा यानी कबूतर, मधुरस से मँदरस, बुस से भूँसा, मन्द्र से माँदर, एक अवनद्ध वाद्ययंत्र, विस्मरण से बिसरना,  लाङ्गल से नाँगर यानी हल, राशि से रास यानी ढेर, धान के रास मा दिया बार दे । कुक्कुट से कुकरा, पिष्टान्न से पिसान, पिष्ट अन्न यानी पिसा हुआ अन्न । अन्य से आन यानी दूसरा और अन्यत्र से अन्ते यानी कोई अन्य स्थान, न्याय से नियाव, अत्याचार से अइताचार, आर्द्रा से अदरा, एक नक्षत्र, मृग से मिरगा, नक्षत्र भी हिरण भी । इतस्ततः से एती-तेती यानी इधर-उधर, उच्चारण से उचार, विवाह में शाखोचार होता है, शाखा यानी वेदमंत्र पाठ की विभिन्न परंपराएं, संस्कृत में शाखोच्चारण । गोस्थान से गौठान, उत्साह से उछाह, कोष्ठागार से कोठार, खर्पर से खपरा, छान्ही के खपरा, तर्षण से तरसाना, धवल से धौंरा, धौंरा बइला, वञ्चक से बंचक यानी धोखेबाज, पीताम्बर से पीतामड़ी ......आदि ।


कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो संस्कृत से छत्तीसगढ़ी में आए हैं किंतु उनका उच्चारण तो परिवर्तित हुआ ही, किंचित अर्थ परिवर्तन भी हुआ है, जैसे- विकट का अर्थ भयानक, विकराल, बड़ा है, इस से बना बिक्कट यानी बहुत । षट्कर्म से खटकरम, षट्कर्म का अर्थ छह क्रियाएं जो शास्त्रों में ब्राह्मणों के लिए निर्धारित हैं किंतु इसी से बना खटकरम का अर्थ झंझट है । शून्य से सुन्न और सुन्ना, सुन्न यानी चेतनाहीन और सुन्ना यानी सुनसान । भाषण से बना भँसेड़ना यानी फटकारना, ओ भासन देवइया ला बने भँसेड़ के आबे । कुभार्या से कुभारज और विधुर से बिदुर, पाञ्चाली से पंचाएल, भाण्ड से भड़वा, गाली के लिए प्रयुक्त होते हैं । स्थिर से थिर यानी विश्राम या आराम, थोकन थिरा ले । पूर्ति से पुरती, तोर पुरती तैं लेग जा ।


अब कुछ ऐसे छत्तीसगढ़ी शब्दों के उदाहरण जो संस्कृत शब्दों में कोई प्रत्यय जोड़ने से बने हैं । संस्कृत में भण्ड का अर्थ है- उपहास करना, इसी से छत्तीसगढ़ी में शब्द बना- भड़ौनी, विवाह के अवसर पर गाया जाने वाला एक गीत । मुख से मुखारी और दंत से दतवन, दांत साफ करने हेतु नीम, बबूल आदि की पतली टहनी । वामन से बावनबूटा यानी बौने कद का, यह शब्द स्वयं बुटरा हो गया । मंडलेश यानी सूबेदार, अब अच्छी आर्थिक स्थिति वाले किसान को मंडल कहते हैं । पाण्डुर से पिंड़ौरी यानी पीले रंग का, पिंड़ौरी माटी ।


इसी तरह के सैकड़ों शब्द छत्तीसगढ़ी में हैं जो संस्कृत से आए हैं । ऊपर दिए गए उदाहरणों में उन शब्दों को यथासंभव स्थान नहीं दिया गया है जो संस्कृत के हैं किंतु हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं में एक जैसे या कुछ अंतर के साथ प्रयुक्त होते हैं, जैसे- आश्रय से आसरा, क्षण से छिन, वंश से बाँस, घृणा से घिन, रात्रि से रात, चन्द्र से चंदा, खट्वा से खटिया आदि ।


हमने जाना कि किसी छोटे से क्षेत्र की भाषा के शब्द हज़ारों साल बाद भी जीवित रह सकते हैं। संस्कृति के संरक्षण और विकास से भाषा समृद्ध होती है तथा भाषा संस्कृति को अगली पीढ़ियों तक संचारित करती रहती है । भाषा कमजोर होती है तो संस्कृति का भी क्षरण होता है । इसलिए नई पीढ़ी के लिए यह आवश्यक है कि वे लगभग बिसरा दी गई अपनी समृद्ध भाषायी संस्कृति को जानें और समझें ।


-महेन्द्र वर्मा

औपनिषदिक ब्रह्म और ऊर्जा



उपनिषदों में ब्रह्म की अवधारणा एक दार्शनिक अवधारणा है, धार्मिक अवधारणा नहीं । वेदों के संहिता खंड में बहुत सी प्राकृतिक शक्तियों के लिए प्रार्थनाओं का उल्लेख है । ब्राह्मण खंड में इन प्राकृतिक शक्तियों की उपासना के लिए कर्मकाण्ड का विधान वर्णित है । इस कर्मकाण्ड की प्रतिक्रिया के रूप में उपनिषदों में ऋषियों ने एक नया विचार प्रस्तुत किया जो आगे चलकर भारतीय दर्शन का मूल बना। इस विचार के अंतर्गत ब्रह्म की अवधारणा प्रस्तुत की गई जो वेदों में उल्लेखित प्राकृतिक शक्तियों का केवल एकीकृत रूप ही नहीं है बल्कि विशाल ब्रह्माण्ड से लेकर सूक्ष्म कण जैसे पदार्थों तक, अमूर्त भौतिक शक्तियों से लेकर भावनाओं तक का समेकित रूप है।

ब्रह्म के वर्णन में विचारणीय बात यह है कि इसमें और आधुनिक विज्ञान की ऊर्जा संबंधी तथ्यों में बहुत अधिक समानता परिलक्षित होती है ।

आधुनिक विज्ञान मुख्य रूप से पदार्थ और ऊर्जा का अध्ययन करता है । संपूर्ण ब्रह्माण्ड इन्हीं दोनों की परस्पर प्रतिक्रिया से संचालित है । ऊर्जा के संबंध में विज्ञान के विचार ये हैं-

1.    ऊर्जा उत्पन्न नहीं की जा सकती और न ही नष्ट की जा सकती है । दूसरे शब्दों में, इस ब्रह्माण्ड में जितनी ऊर्जा है उतनी पहले भी थी और उतनी ही हमेशा रहेगी । यहां जितनी और उतनी शब्दों को अनंत के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है ।
2.    ऊर्जा एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में स्थानांतरित हो जाती है, स्वाभाविक रूप से अथवा प्रयास द्वारा ।
3.    ऊर्जा के द्वारा कार्य संपन्न होता है अर्थात यह प्रत्येक कार्य का कारण है ।
4.    ऊर्जा स्वयं को अनेक रूपों में व्यक्त करती है, स्वाभाविक रूप से या प्रयास द्वारा ।
5.    चूंकि ऊर्जा पदार्थ नहीं है इसलिए इसका कोई रूप-आकार, रंग-गंध, घनत्व-आयतन आदि जैसा  गुण नहीं होता ।
6.    प्रत्येक पदार्थ में ऊर्जा निहित है ।
7.    पदार्थ ऊर्जा में और ऊर्जा पदार्थ में परिवर्तित होती रहती है ।
8.    ऊर्जा वह है जिसके कारण कोई कार्य संपन्न होता है ।
9.    पदार्थ ऊर्जा के कारण ही अस्तित्व में आते हैं, ऊर्जा के कारण ही उनका अस्तित्व बना रहता है और ऊर्जा के कारण ही वे नष्ट होकर पुनः ऊर्जा में रूपांतरित हो जाते हैं ।


उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म संबंधी विचारों में यद्यपि उस समय तक उपलब्ध तार्किक ज्ञान और उस समय की चिंतन शैली और उस समय की काव्यमय भाषा झलकती है फिर भी ब्रह्म के लक्षण संबंधी मूल विचार स्पष्ट हैं, जिन्हें हम तथ्य कह सकते हैं । इन तथ्यों में यदि ब्रह्म के स्थान पर उर्जा रखकर मनन करें तो भी ये कथन ऊर्जा के संदर्भ में सही हैं । इन पर विचार करें और ब्रह्म की ऊर्जा से तुलना करें -

अनाद्यनंतम् महतः परं ध्रुवं । कठोपनिषद, 1।3।15

ब्रह्म अनादि और अनंत है, श्रेष्ठ है और दृढ़ सत्य है ।
ऊर्जा का भी प्रारंभ और अंत नहीं होता ।

नित्यं विभुं सर्वगतं ।
मुंडक 1।1।6

ब्रह्म नित्य है, व्यापक है और सब में विस्तारित है ।
ऊर्जा भी शाश्वत है, सर्वत्र है और सभी पदार्थों में है ।

अक्षरात्संभवतीह विश्वं। मुंडक 1।1।7

अविनाशी ब्रह्म से ही इस सृष्टि में सब कुछ उत्पन्न होता है ।
ऊर्जा से ही पदार्थों की उत्पत्ति होती है, पहले निर्जीव बाद मे क्रमशः सजीव।

सर्वखल्वमिदम् ब्रह्म । छान्दोग्य 3।14।1

यह संपूर्ण विश्व ब्रह्म है ।
चूंकि पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित होता है इसलिए विश्व को ऊर्जामय कह सकते हैं ।

एकं रूपं बहुधा यः करोति । कठ, 2।2।12

ब्रह्म अपने एक रूप को ही विविध रूपों में व्यक्त करता है ।
सभी प्रकार के पदार्थ ऊर्जा के ही रूपांतरण हैं । एक  ही ऊर्जा  विभिन्न  प्रकार की ऊर्जा में रूपांतरित हो सकती है ।

इदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । छांदोग्य 6।2।1

आरंभ में यह एकमात्र अद्वितीय ही था ।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के पहले केवल ऊर्जा ही विद्यमान थी, कृष्ण विवर के रूप में । महाविस्फोट सिद्धांत यही व्यक्त करता है ।

यतो वा इमानिभूताति जायन्ते येन जातानि जीवन्ति,
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, तद्विजिज्ञासत्व ।
तैत्तिरीय, 3।1।1

ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अनंत है, जिनसे ये सम्पूर्ण पदार्थ जन्म लेते, जन्म लेकर जिनसे जीवन धारण करते तथा प्रलय के समय जिनमें पूर्णतः प्रवेश कर जाते हैं, उनको जानने की इच्छा करो ।
पदार्थ ऊर्जा के कारण ही अस्तित्व में आते हैं, ऊर्जा के कारण ही उनका अस्तित्व बना रहता है और ऊर्जा के कारण ही वे नष्ट होकर पुनः ऊर्जा में रूपांतरित हो जाते हैं ।

अस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्नेहमच्छायमतमो अवाय्वनाकाशमसड.गमरसमगन्धमचक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनो अतेजस्कमप्राणममुखममात्रमनन्तरमबाह्यम् बृहदारण्यक 3।8।8

वह ब्रह्म न स्थूल है, न अणु है, न क्षुद्र है, न विशाल है, न अरुण है, न द्रव है, न छाया है, न तम है, न वायु है न आकाश है, न संग है, न रस है, न गंध है, न नेत्र है, न कर्ण है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न माप है, उसमें न अंतर है न बाहर है ।
ऊर्जा के संबंध में भी ये बातें सही हैं ।

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्,
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि ।
केन 1। 5

जिसका मन के द्वारा मनन नहीं होता, जिसकी शक्ति से ही मन मनन करने में समर्थ होता है, उसी को तुम ब्रह्म जानो ।
जब हम सोचते हैं तो भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।

येद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते। केन, 1।4

जो वाणी के द्वारा अभिव्यक्त नहीं होता, जिसके द्वारा वाणी अभिव्यक्त होती है, उसे ही तुम ब्रह्म जानों ।
हम ऊर्जा के कारण ही बोल पाते हैं ।


स आत्मा, तत्वमसि । छांदोग्य 6।8।7

यह आत्मा है, वह तुम हो ।
आत्मा भी ऊर्जा है, तुम ऊर्जा हो । चूंकि तुम कार्य कर सकते हो इसलिए तुम्हारे भीतर ऊर्जा है ।

अहं ब्रह्मास्मि । बृहदारण्यक 1।4।10

मैं ब्रह्म हूं ।
मैं ऊर्जा हूं ।

छान्दोग्य उपपिषद के 7 वें अध्याय में कहा गया है कि नाम, वाक्, मन, संकल्प, चित्त, ध्यान, विज्ञान, बल, अन्न, जल, तेज, आकाश, स्मरण, आशा, प्राण ....ये ब्रह्म हैं ।
हमारे मन की भिन्न-भिन्न दशाएं और भावनाएं भी मानसिक ऊर्जा के कारण प्रदर्शित हो पाती हैं । 
 
ब्रह्म के संबंध में इतना सब वर्णन के पश्चात् भी अंत में उपनिषदों ने उसे 'नेति-नेति ' कहा है अर्थात उसके संबंध में चाहे जितना भी कहा जाए तब भी उसका पूर्ण वर्णन नहीं किया जा सकता  । दुसरे शब्दों में ब्रह्म अपरिभाषेय है । ठीक इसी तरह विज्ञान भी ऊर्जा की निश्चित परिभाषा नहीं दे सका है, ऊर्जा अपरिभाषित है । विद्यालयों में बच्चों को समझाने के लिए बताया जाता है कि 'कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं ', किन्तु यह ऊर्जा का एक अत्यंत सीमित अर्थ है , सम्पूर्ण परिभाषा नहीं ।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि ब्रहम की अवधारणा ऊर्जा की अवधारणा से बिल्कुल मेल खाती है । ब्रह्म के बारे में जो कुछ भी कहा गया है वे सारी बातें ऊर्जा के लिए भी पूर्णतः सही हैं । प्रारंभ में रचे गए 10 मुख्य उपनिषदों में ब्रह्म संबंधी ऐसे ही अनेक उदाहरणों की प्रचुरता है । यहां केवल कुछ ही दिए गए हैं । यह चर्चा दर्शन से संबंधित है। वर्तमान समय में दर्शन के अंतर्गत परंपरागत विषयों पर चर्चा नहीं की जाती क्योंकि जो कभी दर्शन के विषय थे उनमें से अनेक का अब विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन होता है, जैसे सृष्टि की उत्पत्ति और उसका विकास, सृष्टि को संचालित करने वाली शक्ति आदि  । प्रारंभिक उपनिषदों के बाद के विद्वानों ने ब्रह्म को  सगुण और निर्गुण में विभाजित कर दिया । अब निर्गुण ब्रह्म दर्शन के क्षेत्र में आ गया और सगुण ब्रह्म धर्म का विषय हो गया । तब से लोगों ने निर्गुण ब्रह्म को भुला दिया । ब्रह्म के इस विभाजन के फलस्वरूप भ्रमपूर्ण धर्म का विकास हुआ और  भारतीय दर्शन आहत हुआ ।  आस्थावानों के मन की संतुष्टि के लिए कह दिया जाता है  कि दोनों में कोई अंतर नहीं । ब्रह्म का विभाजन दर्शन ने नहीं किया बल्कि धर्म ने किया । औपनिषदिक  दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही सर्वोच्च शक्ति है यानी  ऊर्जा ही सर्वोच्च शक्ति है ......!



-महेन्द्र वर्मा

पांच सुरों का सौंदर्य





ज्योति कलश छलके,
हुए गुलाबी लाल सुनहरे
रंग दल बादल के.....

यह एक पुरानी फ़िल्म का गीत है । यह गीत आपको आज भी अच्छा लगता होगा। इस गीत की कई ख़ूबियों में से एक यह है कि इस गीत की धुन केवल पांच सुरों के मेल से बनी है । इस गीत के कर्णप्रिय होने का एक कारण यही पांच सुर हैं । हम जो गाने सुनते, गाते या बजाते हैं उनमें छह और सात सुरों का उपयोग सामान्य है । कुछ गीतों में तो सभी बारह सुर लगाए गए हैं । संगीत के जानकारों का कहना है कि पांच से कम सुरों से कोई राग नहीं बन सकता । किसी गीत को गाने के लिए कम से कम पांच सुरों की आवश्यकता तो होगी ही ।

पांच सुरों से सजा केवल ‘ज्योति कलश छलके’ ही नहीं है, हज़ारों गीत हैं । ‘पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में’, ‘जाने कहां गए वो दिन’, ‘नीले गगन के तले धरती का प्यार पले’, ‘तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है’, ‘कोई सागर दिल को बहलाता नहीं’ आदि फ़िल्मी गीतों के अलावा अनेक गैरफिल्मी गीत, ग़ज़ल, भजन आदि भी हैं । लोक गीत भी हैं, शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन पांच सुरों वाले रागों में भी होता ही है । केवल हमारे देश में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर क्षेत्र में पांच सुर वाले गीत-संगीत  लोकप्रिय हैं । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि छह या सात सुर वाले गीत-संगीत कम लोकप्रिय हैं । संगीत प्रिय ही होता है, चाहे लोक का हो या शास्त्र का ।

पांच सुरों वाले गीतों की कर्णप्रियता प्राकृतिक और आदिम है । इस बात को पचास हज़ार वर्ष हो गए जब मनुष्य ने नैसर्गिक रूप से गुनगुनाना सीख लिया था या कहें, विकसित कर लिया था। मां जब अपने शिशु को सुला रही होती है तो वह सहसा गुनगुनाने भी लगती है । यह गुनगुनाना वही आदिम गुनगुनाना है । वही भावना और वही स्वर। इस गुनगुनाने में स्वाभाविक रूप से तीन, चार या अधिकतम पांच सुरों का प्रयोग होता है। बच्चों के खेल गीतों में भी प्रायः तीन से पांच सुरों का प्रयोग होता है ।

अतीत के गीत-संगीत में पांच सुरों के प्रयोग का एक पुरातात्विक प्रमाण भी मिला है । दक्षिण जर्मनी की पहाड़ियों की एक गुफा में एक बांसुरी जैसा वाद्ययंत्र मिला है । यह किसी पक्षी की हड्डी से बना है । इसमें चार छेद हैं जो यह दर्शाते हैं कि इससे पांच स्वर उत्पन्न किए जाते थे । पुरातत्वविदों ने इसे चालीस-पचास हज़ार साल पुराना माना है । पांच सौ ई.पू. के तमिल संगम साहित्य में पांच सुरों के समूह ‘पन्’ का उल्लेख है । पांच सुर वाले रागों की परंपरा यहीं से प्रारंभ हुई ।

प्राचीन गीतों में सात सुरों में से शुरू के लगातार तीन, चार या पांच सुरों की प्रधानता होती थी । बाद के विकास क्रम में जब मनुष्य में सुरों का सौंदर्यबोध थोड़ा और विकसित हुआ तो उसने अनुभव किया कि नैसर्गिक सात सुरों में से बीच के दो सुरों (जैसे ग और नि) को छोड़ दें तो केवल पांच सुरों के गाने में कहीं अधिक मधुरता होती है। विश्व के अनेक भागों में आज भी पांच सुरों वाला गीत-संगीत उनकी संस्कृति की पहचान है । अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, यूरोप और एशिया के अनेक देशों में पांच सुर वाले गीत लोकप्रिय हैं । चीन और जापान के संगीत विधान में तो पांच सुरों की ही प्रधानता है । हिंदी फ़िल्म ‘लव इन टोकियो’ के गीत ‘सायोनारा सायोनारा’ को जापानी संगीत में ढालने की कोशिश की गई है।

भारत के अनेक राज्यों के लोकगीतों में पांच सुर मिलते हैं । हिमाचल और उत्तरांचल के पारंपरिक लोकगीतों में पांच सुरों की मधुरता स्पष्ट झलकती है । शास्त्रीय राग दुर्गा का विकास यहीं के लोकगीत से हुआ है । गुजरात का गरबा गीत भी पांच सुरों का है । ‘पंखिड़ा ओ पंखिड़ा’ आपने ज़रूर सुना होगा । असम के बिहू नृत्य के साथ गाए जाने वाले गीत भी पांच सुरों से सजे होते हैं।

भारतीय शास्त्रीय संगीत में पांच सुर वाले 30 से अधिक राग हैं । हिंदी फिल्मों के अनेक गीत इन्हीं रागों पर आधारित हैं । कुछ उदाहरण देखिए- ‘चंदा है तू मेरा सूरज है तू’, ‘जा तोसे नहीं बोलूं कन्हैया’, ‘मन तड़पत हरि दरसन को आज’, ‘आ लैट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’, ‘बहारों फूल बरसाओ’, ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’, ‘देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए’, ‘मेरे नैना सावन भादों’ आदि ।

इन गीतों की मधुरता के कई कारणों में एक यह है कि इनके सभी पांच सुर परस्पर सुसंगत होते हैं। दो सुर अनुपस्थित होने के कारण जो ‘गेप’ बनता है वह गीत में विशेष प्रभाव उत्पन्न करता है । लेकिन ये सुर सभी गीतों में एक जैसे नहीं हैं । कुल बारह सुरों में से कोई पांच ऐसे सुर चुने जाते हैं जो सुनने में रंजक लगे । एक शोध का निष्कर्ष है कि इन से जो राग बने हैं उनको सुनने से मस्तिष्क को शांत और प्रसन्न रखने वाले रसायन ‘डोपामाइन’ के स्तर में वृद्धि होती है ।

-महेन्द्र वर्मा