ममतामयी प्रकृति








कभी छलकती रहती थीं ,
बूँदें अमृत की धरती पर,
दहशत का जंगल उग आया ,
कैसे अपनी धरती पर ।

सभी मुसाफिर  इस सराय के , 
आते-जाते रहते हैं,
आस नहीं मरती लोगों की ,
बस जीने की  धरती पर ।

ममतामयी प्रकृति को चिंता ,
है अपनी संततियों की,
सबके लिए जुटा कर रक्खा ,
दाना -पानी धरती पर ।

पूछ  रहे  हो  हथेलियों  पर,
कैसे   रेखाएँ   खींचें,
चट्टानों पर ज़ोर लगा, 
हैं बहुत नुकीली धरती पर ।

रस्म निभाने सबको मरना, 
इक दिन लेकिन उनकी सोच,
जो हैं  अनगिन  बार  मरा ,
करते  जीते -जी  धरती पर ।

जब से पैसा दूध-सा हुआ,  
महल बन गए बाँबी-से,
नागनाथ औ’ साँपनाथ की,
भीड़ है बढ़ी धरती पर ।

मौसम रूठा रूठी तितली ,
रूठी दरियादिली  यहाँ,
जाने किसकी नज़र लग गई, 
आज हमारी धरती पर ।

                                                                                                              -महेन्द्र वर्मा

तीन सौ धर्मों के तीन सौ ईश्वर




प्रकृति और उसकी शक्तियाँ शाश्वत हैं । मनुष्य ने सर्वप्रथम प्राकृतिक शक्तियों को ही विभिन्न देवताओं के रूप में प्रतिष्ठित किया । मनुष्य के अस्तित्व के लिए जो शक्तियाँ सहायक हैं, उन को देवता माना गया । भारत सहित विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं- सुमेर, माया, इंका, हित्ती, आजतेक, ग्रीक, मिस्री आदि में प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की जाती थी । चीन और ग्रीस के प्राचीन धर्मग्रंथों में भी आकाश को पिता और पृथ्वी को माता माना गया है । हवा, जल, बादल, वर्षा, नदी, पर्वत के अतिरिक्त दैनिक जीवन में व्यवहार में आने वाली वस्तुओं, विशेषतया अन्न उपजाने और भोजन से संबंधित वस्तुओं को भी पवित्र समझने का मानव स्वभाव रहा है ।

लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व कबीलाई समाज में धर्म की अवधारणा का बीजारोपण इसी तरह हुआ । आज भी गाँवों में अन्न, जल, पेड़-पौधे, चूल्हा, चक्की, सूप, बर्तन, मिट्टी, आग, दीपक आदि को पवित्र माना जाता है । लोकधर्म की यही सहज परंपराएँ अनेक सदियों तक बार-बार परिवर्तित होती हुई हज़ारों वर्षों पश्चात संगठित धर्म का रूप ग्रहण कर लेती हैं और  फिर लिपिबद्ध हो कर शास्त्र बन जाती हैं ।

प्राचीन युग के मनुष्यों के द्वारा प्रकृति के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना सहज और स्वाभाविक था । पाँच हज़ार वर्ष पूर्व लिखे गए प्रारंभिक धार्मिक शास्त्रों में यह भाव यथावत् है । समय के साथ-साथ प्रकृति पूजा की अवधारणा में बदलाव होता गया । तदनुसार नए-नए शास्त्र लिखे जाते रहे । मूल अवधारणा को लोग भूलते गए । अब तक इतने परिवर्तन हो चुके हैं कि यह अवधारणा  अब प्रकृति की सहज विशिष्टताओं के विरुद्ध हो चुकी है ।

पहले संपूर्ण विश्व में धर्म संबंधी अवधारणा एक समान थी । अब लगभग 300 संगठित धर्मों के 300 प्रकार के विचार हैं । प्रत्येक धर्म अपने ईश्वर को ही वास्तविक ईश्वर मानता है । इस प्रकार अब ईश्वर एक नहीं बल्कि 300  हैं । आज के लोकधर्मों को भी सम्मिलित कर लें तो ईश्वरों की संख्या लगभग आठ हज़ार हो जाती है ।

दुनिया का सबसे प्राचीन माना जाने वाला धार्मिक शास्त्र आज भी उपलब्ध है । इसमें प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर उन के प्रति प्रार्थनाएँ की गई हैं । इसे ईश्वरकृत भी कहा जाता है । किंतु इसके बाद के ग्रंथों में प्रकृति के वे देवता कहीं भी नज़र नहीं आते । कुछ के स्वरूप और स्वभाव बदले हुए है और कुछ नए देवताओं के वर्णन हैं ।

यदि पहले के शास्त्र ईश्वरकृत हैं तो उसमें वर्णित विचारों को बदल कर मनुष्यों द्वारा नए शास्त्र क्यों रचे गए, इसका उत्तर किसी के पास नहीं है । उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म संबंधी विचार एक उत्कृष्ट विचार था क्योंकि यह प्रकृति की समस्त शक्तियों का एकीकृत रूप अर्थात ऊर्जा का ही दूसरा नाम था ।  यह विडंबना ही है कि ब्रह्म की यह अवधारणा  आज  विलुप्त हो चुकी है ।

सभी धर्मां के बाद में रचे गए शास्त्रों की विचारभिन्नता ने लोगों के बीच द्वेष की भावना में वृद्धि ही की फलस्वरूप धर्म के नाम पर अनेक युद्ध हुए । लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा गया । आज भी यह युद्ध अघोषित रूप से जारी है । धर्म के इस परिवर्तित होते स्वरूप में एक विशेष क्रम दिखाई देता है- पहले इसमें केवल कृतज्ञता और सम्मान का भाव था, फिर आस्था और श्रद्धा का भाव प्रबल हुआ और अब केवल मन-हृदयविहीन प्रदर्शन की भावना है ।

आजकल एक शब्दयुग्म बहुत प्रचलन में है- धार्मिक कट्टरता । धर्म जैसी अवधारणा के साथ कट्टर शब्द का कोई मेल नहीं है । आपने ‘कट्टर दुश्मन’ सुना होगा, क्या कभी ‘कट्टर मित्र’ सुना है ! कट्टर नकारात्मक अर्थ वाला शब्द है, मित्र के साथ उसका प्रयोग नहीं किया जा सकता । जो धर्म में भी नकारात्मकता खोज लेते हैं वे ही कट्टर धार्मिक कहे जा सकते हैं । मनुष्य के स्वभाव की यह विशेषता है कि वह नकारात्मक बातों को आसानी से समझ जाता है और उस पर अमल भी करने लगता है। अपवादस्वरूप कुछ ही लोग अच्छी बातों को समझ पाते हैं ।

एक धार्मिक ग्रंथ में इसमें ‘ईश्वर’ का कथन है- ‘‘ चार प्रकार के लोग मुझे प्रिय हैं, आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी । इनमें भी जिज्ञासु और ज्ञानी मुझे विशेष प्रिय हैं ।’’ जिज्ञासु अर्थात जानने की इच्छा रखने वाला । जिज्ञासु वही होते है जो तार्किक होते हैं, इसीलिए वे प्रकृति के गुणों के कारणों को खोजते रहते हैं और कभी-न-कभी पा भी लेते हैं अर्थात वे जान भी जाते हैं और जो जान लेता है वही ज्ञानी है ।

ऋग्वैदिककालीन देवताओं- द्युः, आपः, मरुत्, इन्द्र, अग्नि, पर्जन्य, ऊषा, सविता, पृथ्वी आदि की विशेषताओं को उन लोगों ने जाना जिन्हें आज हम वैज्ञानिक कहते हैं । ऐसे महान वैज्ञानिक ही सच्चे अर्थों में धार्मिक और आस्तिक हैं क्योंकि वे सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता ऊर्जा की निरंतर ‘उपासना’ करते हैं । इनमें केवल आधुनिक युग के वैज्ञानिक ही नहीं है बल्कि वे अनाम-अज्ञात वैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं जिन्होंने लाखों-हज़ारों वर्ष पूर्व आग, पहिया, नाव, वस्त्र, रोटी, भाषा, कृषि आदि की खोज और आविष्कार किया । शेष लोग तो जानने का प्रयास ही नहीं करते, जानने का प्रयास किए बिना ही कुव्याख्यायित कथ्यों को मान लेते हैं ।

-महेन्द्र वर्मा

भूतविद्या, मनोरोग और अंधविश्वास




पिछले दिनों भूतविद्या समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनी रही । कुछ ने इसे भूत-प्रेत से संबंधित बताया तो कुछ ने इसे मनोचिकित्सा से संबंधित विद्या कहा । कुछ अतिउत्साही लोगों ने तो इसे पंचमहाभूतों की विद्या भी बता दिया । चूंकि भूतविद्या आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति से संबंधित है इसलिए सही अर्थ और तथ्य जानने के लिए मैंने आयुर्वेद के प्राचीन मूलग्रंथों में ही संदर्भ खोजना प्रारंभ किया । महर्षि चरक और महर्षि सुश्रुत आयुर्वेद के जनक माने जाते हैं । मैंने इनके द्वारा रचित ग्रंथ ‘चरक संहिता’ और ‘सुश्रुत संहिता’ के अतिरिक्त वाग्भट्ट के ‘अष्टाङ्ग हृदयम्’ में भी भूतविद्या के संबंध में तथ्य खोजना प्रारंभ किया । इन तीनों ग्रंथों की जो प्रतियाँ मुझे प्राप्त हुईं उन में मूल संस्कृत पाठ के साथ हिंदी टीका भी दी गई है । चरक संहिता के टीकाकार अत्रिदेव गुप्त, सुश्रुत संहिता के डॉ. अंबिका दत्त शास्त्री और अष्टाङ्ग हृदयम् के पं. राधारमण त्रिपाठी हैं ।

उक्त ग्रंथों में भूतविद्या से संबंधित अध्यायों का अध्ययन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि सभी प्राचीन तथ्य सदैव प्रासंगिक नहीं होते । एक और महत्वपूर्ण तथ्य ज्ञात हुआ कि जिन बातों को अधिकांश लोग, जिनमें प्राच्यविद्याग्रही भी सम्मिलित हैं,  आज अंधविश्वास कहते हैं, उनकी जड़ें इन प्राचीन ग्रंथों में हैं । यह भी पता चला कि लोक परंपराएँ और रूढ़ियाँ किस तरह शास्त्रों में दर्ज हो कर ज्ञान का स्वरूप ग्रहण कर लेती हैं और सदियों बाद विज्ञान के आलोक में वही  तथाकथित  ज्ञान  पुनः  किस तरह अंधविश्वास की श्रेणी में पड़ा नज़र आने लगता है ।
भूतविद्या से संबंधित कुछ तथ्यों को उदाहरण के रूप में यहाँ उद्धरित किया गया है ताकि इस संबंध में आपकी जिज्ञासा जागृत हो सके और मूल ग्रंथों से उन अंशों का आप भी अध्ययन करें । उद्धरित अंशों का केवल हिंदी अनुवाद दिया जा रहा है, कोष्ठक में अध्याय और श्लोक संख्या का उल्लेख है । अनुवाद की भाषा यथावत है ।

सबसे पहले सुश्रुत संहिता के अनुसार भूतविद्या की परिभाषा देखिए-

‘‘देव, दैत्य, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पितर, पिशाच, नाग ग्रहादि से पीड़ित चित्त वाले लोगों के दोष की शांति के लिए हवन, बलि आदि उपायों के लिए जो  अंग (आयुर्वेद का विषय) होता है उसे भूतविद्या कहते हैं।’’(सु.सं.,भाग1,1.8.4)

अष्टाङ्गहृदयम् के टीकाकार ने इसे और स्पष्ट किया है-

‘‘ग्रहचिकित्सा (भूतविद्या)- इस में देव, असुर, पूतना आदि ग्रहों से गृहीत प्राणियों के लिए शांतिकर्म की व्यवस्था की जाती है । इन में बालग्रह तथा स्कंदग्रहों का भी समावेश है, साथ ही इनकी भी शांति के उपायों की चर्चा की गई है ।’’(अ.हृ., 1.5)

चरक संहिता में भूतविद्या या ग्रहचिकित्सा को उन्माद या मनोरोग की चिकित्सा बताते हुए इसके कारणों का भी उल्लेख किया गया  है । उन में से एक प्रकार का उन्माद और उसका कारण यह भी है-

‘‘आगंतुक उन्माद- देवता, ऋषि, गंधर्व, पिशाच, यक्ष, राक्षस और ब्रह्मराक्षस, पितर आदि ग्रहों का तिरस्कार करना, नियमपूर्वक व्रतादि का आचरण न करना और पूर्वजन्म में उत्तम कर्म न होना, ये आगंतुक उन्माद रोग के कारण हैं ।’’(च.सं.,9.16)

चरक संहिता में ही बताया गया है कि उन्माद रोग का आरंभ कैसे होता है-

‘‘उन्माद उत्पन्न करने वाले भूतों की उन्माद आरंभ करने की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न होती है, यथा- देव आंखों से देख कर, गुरु. व्द्ध, सिद्ध और ऋषिजन शाप दे कर, गंधर्वगण स्पर्श कर, यक्ष शरीर में प्रवेश कर, राक्षस सड़े मांस का गंध सुँघा कर और पिशाच शरीर पर सवार हो कर उन्माद रोग उत्पन्न करते हैं ।’’(च.सं.,खंड1,निदान.,7.14)
ग्रहपीड़ित या उन्माद रोग की चिकित्सा के लिए अनेक उपचारों का उल्लेख इन ग्रंथों में है । मंत्रयुक्त शांति पाठ, हवन, बलि, नस्य, अभ्यंग, दान, व्रत, औषधियों के विभिन्न योग के अतिरिक्त ग्रहोपचार के लिए कुछ विचित्र विधियों का भी उल्लेख है । सुश्रुत संहिता में ऐसी ही एक विधि यह है-

‘‘उन्मादे भयविस्मापनादि चिकित्सा- उन्माद के रोगी को जो वस्तु उस ने अपने जीवन में न देखी हो, ऐसी अद्भुत वस्तुएँ दिखानी चाहिए । जैसे, उसके मन और मष्तिष्क पर एकदम प्रभाव पटकने के लिए उसकी स्त्री, माता, पिता, आदि अत्यंत प्रिय व्यक्ति के मरने की मिथ्या खबर देनी चाहिए । इस के अतिरिक्त उसे भीषण आकार वाले राक्षस स्वरूपी मनुष्यों से अथवा बड़े-इड़े दाँत वाले सिखाए गए हाथियों से या विषरहित सर्पों से डराना चाहिए । पाशों तथा रस्सियों से उन्माद रोगी को सुनियंत्रित कर कोड़ों से मारना चाहिए । उसे रस्सी से बांध कर तथा अग्न्यावरोधी कवचादि से सुरक्षित कर घास की अग्नि से डराना चाहिए । गर्म पानी में डुबाने की चेष्टा या धमकी से डराना चाहिए । हृदयादिक मर्मों की चोट से बचाते हुए उसके शरीर में मोटी सुइुर् चुभो के पीड़ा उत्पन्न करनी चाहिए । रोगी को किसी घर के भीतर प्रविष्ट कराके उस की रक्षा का ध्यान रखते हुए उस घर के अंदर अथवा बाहर चारों तरफ आग लगा देनी चाहिए । जल से रहित ढक्कन वाले कुएं में उसे निरंतर कुछ समय तक रखना चाहिए ।’’(सु.सं.,उ.तं.,60.18-21)

चरक संहिता में भी इसी प्रकार की चिकित्सा का उल्लेख है-

‘‘शोधन करने पर भी यदि रोगी में आचार की अपवित्रता हो तो तीक्ष्ण नस्य, तीक्ष्ण अंजन, दण्ड आदि से पीटना, मन, बुद्धि और शरीर को उद्विग्न करने वाले कार्य करना हितकारी है ।’’(च.सं.,चि, 9.36)
‘‘उन्माद रोगी के शरीर पर सरसों का तेल लगाकर, हाथ पांव बाँध कर पीठ के भार धूप में लिटा दें । फिर गर्म लोहे, गर्म तेल या गर्म जल से स्पर्श करे । कोड़ों से पीटे, बाँधे, एकांत घर में बंद रखे । ऐसा करने से रोगी का विक्षिप्त चित्त शांत हो जाता है ।‘‘(च.सं.,चि, 9.87-88)

उक्त उद्धरणों को पढ़ कर किसी भी विवेकी का मन सिहर उठेगा । संभव है कि ये विधियाँ उस समय के मनोरोगों के लिए कारगर रही हों किंतु आज के संदर्भ में क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि तब निश्चित ही मनोरोग संबंधी ज्ञान बहुत सीमित था ? मनोरोग की जो अवधारणा पहले थी वह आज चिकित्साविज्ञानिकों द्वारा खारिज की जा चुकी है । आश्चर्य है कि आज से दो हजा़र वर्ष पूर्व की तथाकथित मनोचिकित्सा आज भी ओझाओं और बाबाओं द्वारा जारी है । इन के इलाज से कई बार रोगी की मृत्यु भी हो जाती है । मनोरोग को भूतबाधा बता कर रोगी को तरह-तरह के कष्ट देना किसी भी स्थिति में उचित नहीं है ।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने मनोचिकित्सा के क्षेत्र में आशातीत प्रगति की है । प्रत्येक बड़े अस्पताल में मनोचिकित्सा आधुनिक विधियों से होती है । हम सब को प्रयास करना चाहिए कि मनोरोग चिकित्सा के इन प्राचीन क्रूर तरीकों से हमारा समाज छुटकारा पा सके ।


(टीप-  यह लेख मनोरोग के कारण संबंधी प्राचीन भ्रम को दूर करने और जन-जागरूकता के लिए लिखा गया है । चिकित्सा संबंधी दिए  गए  उदाहरण  विषय  को स्पष्ट  करने के लिए हैं । इन्हें किसी भी स्थिति में व्यवहार में      न    लाएँ ।)


-महेन्द्र वर्मा