शिशु ने नामकरण किया मां-बाबा का





सभी जीवों के साथ-साथ मनुष्यों के जीवन के लिए हवा के बाद पानी दूसरा महत्वपूर्ण पदार्थ है । पानी के लिए दुनिया की विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग शब्द हैं, जैसे मलय भाषा में एइर, लैटिन में एक्वा, रूसी में वोदी, तुर्की में सु, अरबी में मान फ़ारसी में आब, अफ़्रीकी भाषा ज़ुलू में अमांन्जी, चीनी में शुइ आदि । इन समानार्थी शब्दों के ध्वनिरूप में कोई समानता नहीं दियाई देती । यह स्वाभाविक है कि किसी एक पदार्थ के लिए अलग-अलग भाषा में अलग-अलग शब्द होते ही हैं । लेकिन यह जानना बहुत रोचक है कि संसार की लगभग सभी भाषाओं और बोलियों में माता-पिता के लिए जो विभिन्न शब्द हैं उनकी ध्वनियों में आश्चर्यजनक रूप से समानता है ।


इन शब्दों के अध्ययन से भाषा के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का अनुमान लगाया जा सकता है। जैसे, मनुष्य ने भाषा की शुरुआत कैसे की होगी, वे कौन से शब्द हैं जो पहले-पहल बनाए गए, इन शब्दों के लिए प्रेरणा कहां से प्राप्त हुई होगी, बोलने के संदर्भ में किसी मनुष्य के लिए कौन-कौन सी ध्वनियां सबसे आसान हैं आदि । इस लेख में इन्हीं प्रश्नों के उत्तर तलाशने का प्रयास किया गया है । पहले हम विभिन्न भाषाओं में माता-पिता के लिए प्रयुक्त शब्दों पर विचार कर लें जिनमें कुछ खास वर्णों या ध्वनियों का प्रयोग हुआ है ।


दुनिया की कुछ भाषाओं में मां के लिए प्रचलित शब्दों के उदाहरण देखिए- अधिकांश भारतीय भाषाओं में मां को मां, अम्मा या अम्मी से संबोधित करते हैं । भोजपुरी और कोंकड़ी जैसी बहुत सी क्षेत्रीय भाषाओं में माई, इया, मइया, मराठी में आई, कुमाउंनी में इजा, डोगरी में म्ये, कश्मीरी में मम्ज, मणिपुरी में इमा, गुजराती में बा, पंजाबी में बेबे, उड़िया में बाउ, हल्बी और बहुत सी आदिवासी बोलियों में माय, छत्तीसगढ़ी में दाई, संस्कृत में मातृ आदि । यूरोप की भाषाएं भारोपीय समूह की भाषाएं हैं इसलिए इन में मां के समरूप शब्द संस्कृत मातृ से मिलते-जुलते हैं किंतु सभी नहीं । विदेशी भाषाओं में उदाहरण- अंग्रेज़ी में मदर, डच में मोएदेर, एस्टोनियाई में एमा, आयरिश में मताइर, पुर्तगाली में माय, अजरबैजानी में अना, हंगेरियाई में आन्या, तुर्की में अन्ने, अरबी में उम, तुर्कमेनी में इजे, वियतनामी में मे, हिब्रू में मु, स्वाहिली में मामा, योरूबा में इया, जुलू में उनिना, स्लोवाक में मात्का, फिनिश में माइती, चीनी में मु किन् आदि ।


मां के समरूप उपर्युक्त शब्दों में अधिकांश में पहला वर्ण म है, कुछ में मध्य या अंतिम वर्ण म है, कुछ के प्रारंभ, मध्य या अंत में स्वर वर्ण अ, इ, ए या उ है, कुछ में त, द या न भी है । कुछ शब्द इन्हीं ध्वनियों के मेल से बने हैं । म हिन्दी वर्णमाला में प वर्ग का अंतिम वर्ण है और त,द,न त वर्ग के वर्ण हैं । निष्कर्ष यह कि मां के लिए जो शब्द हैं उनमें प और त वर्ग के व्यंजन तथा लघु स्वरों की प्रधानता है । क्या ऐसा होने का कोई महत्वपूर्ण कारण है ? इसकी चर्चा कुछ देर बाद करेंगे, पहले पिता के लिए विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त शब्दों पर विचार कर लें । कुछ उदाहरण देखिए-


अधिकांश भारतीय भाषाओं और बोलियों में पिता के लिए बाबा, बप्पा, बाबूजी, अब्बा, बापू, दद्दा, ददा आदि प्रचलित हैं जबकि दक्षिण भारतीय भाषाओं में अप्पा, अन्ना, अच्चन, तन्दी आदि । संस्कृत में पितृ, तात और वाप्ति भी पिता के समानार्थी हैं । भारोपीय समूह की भाषाओं में लैटिन के पतेर और उसके अन्य रूपों के अलावा संबोधन के लिए पापा शब्द प्रचलित है । फिलिपीनी में ताते, हंगेरियन में अपा, चेक में ताता, अफ्रीकी में बाबा, हिब्रू में अब्बाह्, इंडोनेशियाई में बापा, इटैलियन में बब्बू, ग्रीक में बब्बास् आदि जैसे शब्द संसार की प्रायः सभी भाषाओं में पिता के लिए प्रयुक्त होते हैं । इन में भी प, ब, त, द, न और अ वर्णों के अर्थात प और त वर्ग के वर्णों के अलावा अ स्वर के प्रयोग की अधिकता है ।


अब इस बात पर विचार करना है कि दुनिया भर में माता-पिता के लिए प्रयुक्त शब्दों में इतनी समानता क्यों है और वह भी कुछ खास वर्णों के साथ ! वास्तव में एक शिशु का जब जन्म होता है तो सबसे पहले वह रोता है । रोने की इस ध्वनि को किसी लिपि में लिखा तो नहीं जा सकता किंतु सुनने से यह समझ आता है कि उस ध्वनि का मूल स्वर नासिक्ययुक्त अ या आ है । कुछ महीने तक शिशु की यही ध्वनि उसके लिए संपूर्ण भाषा बनी रहती है । 5-6 महीने की आयु में शिशु अ की ध्वनि निकालते हुए शिशु जब दोनों होठों को बंद कर लेता है तब यह अम् की ध्वनि होती है । अम् बोलते हुए होंठों को फिर खोलता है तो अम्अअ की की ध्वनि निकलती है । इस दौरान यदि 2-3 बार होंठों को खोलता और बंद करता है तो अम्अम्अ जैसी ध्वनि सुनाई देती है । शिशु को ऐसा करने के लिए किसी ने नहीं सिखाया है, यह अनायास ही उसके मुंह से निकलता है । मां इस ध्वनि को अपने लिए अनायास ही संबोधन मान लेती है । कहा जा सकता है कि इस प्रकार नवजात शिशु ने अपनी जननी का नामकरण किया- मां, अम्मा, मामा आदि। इन्हीं के आधार पर बाद में बड़ों ने देश-काल के अनुसार और भी अनेक संज्ञाएं बनाई ।


एक वर्ष की आयु होते-होते शिशु के मुंह से स्वाभाविक रूप से दो ध्वनियां और निकलने लगती हैं- प और ब । ये दोनों ध्वनियां भी होठों के बंद होने और खुलने पर निकलती हैं । शिशु द्वारा बार-बार की जाने वाली ध्वनि बब्बब्बब् या पप्पप्पप् का संबंध उसके जनक के लिए बाबा और पापा जैसे शब्दों से है जो उनके लिए संज्ञाएं बनी और बाद में विस्तारित होकर अनेक रूपों में परिवर्तित हुई । भाषा शास्त्रियों का अनुमान है कि शिशु की इन ध्वनियों का शब्दविशेष में रूपांतरण की प्रक्रिया लगभ्ग एक लाख वर्ष पहले विकसित होनी शुरू हुई । शिशु द्वारा अनायास इन वर्णों को उच्चारित कर लेने के कारण इन्हें सरलतम वर्ण कहा जाता है ।


प वर्ग के वर्णों के बाद उच्चारण की दृष्टि से सरलता क्रम में त वर्ग के वर्ण हैं। इसीलिए माता-पिता के लिए बने शब्दों में यही ध्वनियां अधिक प्रयुक्त हुई हैं । बच्चे की उम्र जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे उनकी उच्चारण क्षमता बढ़ने लगती है और वे प और त वर्ग की महाप्राण ध्वनियों फ, भ, थ, ध को भी बोलने लगते हैं । भारतीय भाषाओं में परिवार के अन्य सदस्यों के लिए बनी संज्ञाओं में भी यही सारे वर्ण अधिक मिलते हैं, भाई से लेकर फूफा तक और भांजी से लेकर नानी तक। बच्चों की ध्वनि ताता से प्रेरित हो कर संस्कृत का तात और हिंदी का चाचा जैसे शब्द बने ।

4-5 वर्ष के जो बच्चे कठिन वर्णों को उच्चारित नहीं कर पाते वे इन्हीं सरल वर्णों के सहारे तुतलाते हैं । अनुमान किया जा सकता है कि मनुष्य ने जब वाचिक भाषा की शुरुआत की होगी तब ये शब्द उन शब्दों में शामिल रहे होंगे जो पहले-पहल अस्तित्व में आए।



-महेन्द्र वर्मा

वह जो जानता था अनंत को



(श्रीनिवास रामानुजन् की सौवीं पुण्यतिथि पर विशेष)






प्रतिभा और योग्यता प्रायः विषम परिथितियों में ही विकसित होती हैं । रामानुजन् हजारों सूत्रों, सिद्धांतों और विवरणों एक ऐसा खजाना छोड़ गए हैं जो दुनिया के सबसे बड़े हीरे से भी ज्यादा मूल्यवान है ।’’ यह विचार अमेरिका के इमोरी विश्वविद्यालय के जापानी मूल के प्रोफेसर केन ओनो ने एक साक्षात्कार में  प्रसिद्ध भारतीय़ गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् के संबंध में व्यक्त किया था । गणित की दुनिया में भारत का नाम प्रतिष्ठित करने वाले रामानुजन् की पारिवारिक पृष्ठभूमि हर प्रकार से साधारण थी किंतु उसकी जन्मजात गणितीय प्रतिभा विलक्षण थी । 

गणित के संदर्भ में वे स्वशिक्षित थे । जब वे 12 वर्ष के थे एस.एल.लोनी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘त्रिकोणमिति’ के अतिरिक्त उच्च गणित की कुछ और पुस्तकों को पढ़ कर उसके सारे प्रश्नों को हल कर लिया था और स्वयं नए गणितीय सूत्रों की रचना शुरू कर दी थी । वे स्लेट पर प्रश्न हल करते । स्लेट में लिखे हुए को बार-बार साफ करने के कारण उनकी कुहनी खुरदुरी और काली हो गई थी । गणितज्ञ कार की पुस्तक ‘सिनाप्सिस ऑफ प्योर मैथमेटिक्स’ ने रामानुजन् की शक्तियों को और सुदृढ़ किया जो उसे कुंभकोनम के महाविद्यालय से मिली थी ।

रामानुजन् की रुचि गणित के अलावा किसी अन्य विषय में नहीं थी । इसी कारण वे 12वीं की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए। फलस्वरूप उन्हें विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं मिला । वे चाहते थे कि उनके गणितीय कार्यों के आधार पर उन्हें कोई छोटी-सी नौकरी दिला दे । इसी उद्देश्य से रामानुजन् ने अपने सूत्रों को सबसे पहले 1910 में वी. रामास्वामी अय्यर को दिखाया जो ‘इंडियन मैथमेटिकल सोसायटी’ के संस्थापक थे । उसके बाद वे पी.वी. शेषु अय्यर, नेल्लोर के कलेक्टर दीवान बहादुर आर. रामचंद्र राव, मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के अध्यक्ष सर फ्रांसिस स्प्रिंग और मि. ग्रिफिथ, भारत की वेधशालाओं के निदेशक डॉ. जी.टी. वाकर आदि से मिले । इन्होंने रामानुजन् के कार्यों की सराहना की लेकिन उन्हें केवल क्लर्क की नौकरी ही मिल सकी। 1903 से 1914 के मध्य कैम्ब्रिज जाने से पहले तक दो रजिस्टरों के 400 पृष्ठों में वे अपने सूत्रों और सिद्धांतों के बारे में लिख चुके थे । उनका प्रथम शोध पत्र ‘जर्नल ऑफ इंडियन मैथमेटिकल सोसायटी’ में 1911 में प्रकाशित हुआ था । रामानुजन् को सुझाव दिया गया कि उन्हें इंग्लैंड जाना चाहिए क्योंकि उनके गणित को इंग्लैंड के गणितज्ञ ही महत्व दे सकते हैं ।


मित्रों के कहने पर रामानुजन् ने कैम्ब्रिज के प्रोफेसर जी.एच. हार्डी को पत्र लिखा । पहले दो पत्रों का कोई उत्तर नहीं मिला। 16 जनवरी, 1913 को लिखे गए तीसरे पत्र के बाद हार्डी ने रामानुजन् को कैम्ब्रिज आमंत्रित किया किंतु परिवार और बिरादरी वालों ने उनके समुद्र यात्रा करने पर आपत्ति व्यक्त की और जाति से बहिष्कृत करने की धमकी दी। 1914 में कैम्ब्रिज के गणित के प्राध्यापक ई.एच. नेबिल भारत आए । डॉ. हार्डी ने नेबिल को कह दिया था कि वे रामानुजन् से मिलें और उन्हें अपने साथ कैम्ब्रिज ले आएं । नेविल ने मद्रास वि.वि. के अधिकारियों को रामानुजन् को छात्रवृत्ति देने हेतु एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘‘श्री रामानुजन् की प्रतिभा का संसार के समक्ष उद्घाटन गणित संसार में हम लोगों के समय की सर्वोकृष्ट घटना होगी । उनका नाम भी गणित के इतिहास में महान और सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञों में लिखा जाएगा ।’’ तब वि.वि. ने रामानुजन् को वार्षिक छात्रवृत्ति स्वीकृत की । उसी राशि को लेकर 26 वर्षीय रामानुजन्  मि. नेविल के साथ 17 मार्च, 1914 को लंदन के लिए रवाना हुए ।

यहाँ से रामानुजन् के जीवन में एक नए युग का आरंभ हुआ और इसमें डॉ. हार्डी की बड़ी भूमिका थी । उनके गणितीय शोध से इंग्लैंड के गणितज्ञ बहुत प्रभावित हुए । वे 6 वर्ष वहाँ रहे । इस अवधि में रामानुजन् ने हार्डी के साथ मिलकर 21 शोधपत्र प्रकाशित किए । जी. एच. हार्डी ने लिखा  हैं- ‘‘यह अत्यंत विस्मयजनक प्रतीत होता है कि श्रीनिवास रामानुजन् ने इतनी छोटी अवस्था में इतने महत्वपूर्ण और कठिन प्रश्नों को सिद्ध कर दिया है । इन्हीं प्रश्नों को हल करने में यूरोप के बड़े से बड़े गणितज्ञों को सौ वर्ष से अधिक लग गए और उनमें से बहुत से तो आज भी हल नहीं किए जा सके हैं । मैं उनके जैसे किसी और गणितज्ञ से नहीं मिला हूं, रामानुजन् की तुलना केवल जैकोबी या आयलर से की जा सकती है ।’’

जून, 1914 में उनको कैम्ब्रिज में अध्ययन हेतु प्रवेश दिया गया था । 16 मार्च, 1916 को उनके द्वारा किए गए एक विशेष शोधकार्य के आधार पर उन्हें बी.ए. की उपाधि प्रदान की गई । 28 फरवरी, 1918 को ‘रायल सोसायटी’ के सदस्य नामित किए गए । रायल सोसायटी के पूरे इतिहास में  इतने कम उम्र का कोई सदस्य नहीं हुआ । इसके बाद 2 मई, 1918 को ट्रिनिटी कालेज का सदस्य बनने वाले वे पहले भारतीय बने । उन्हें 6 वर्षों के लिए 250 पाउंड वार्षिक की फेलोशिप राशि प्रदान की गई जिसका लाभ लेना उनके भाग्य में नहीं था । अस्वस्थ होने के कारण 27 मार्च, 1919 को वे भारत वापस आ गए । रामानुजन् के भारत लौटने पर प्रो. हार्डी ने कहा था- ‘‘रामानुजन् इतने महान और प्रतिष्ठित गणितज्ञ हो कर भारत लौटेंगे जितना आज तक कोई भारतीय नहीं हुआ । मुझे आशा है कि भारत इन्हें अपनी अमूल्य संपत्ति समझ कर इनका उचित सम्मान करेगा ।’’ उनके लिए मद्रास वि. वि. में प्राचार्य का विशेष पद सृजित किया गया किंतु अधिक समय तक इस पद पर कार्य नहीं कर सके । उनका रोग असाध्य हो चुका था । 26 अप्रेल, 1920 को लगभग 4 हजार गणितीय सूत्रों के रूप में अपनी बौद्धिक संपत्ति छोड़ कर अनंत को जानने वाला रामानुजन् स्वयं अनंत की ओर चले गए । प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ ने उनके निधन पर जो लेख प्रकाशित किया था, उस का यह अंश रामानुजन् के कार्यों की श्रेष्ठता को व्यक्त करता है- ‘‘इस समय से 20 वर्ष पश्चात जब रामानुजन् के कार्यों पर शोध कार्य पूरे हो जाएंगे तब उनका कार्य आज की अपेक्षा और अधिक महत्वपूर्ण और आश्चर्यजनक प्रतीत होगा ।’’

रामानुजन् का कार्य  क्षेत्र मूल रूप से शुद्ध गणित था । संख्या सिद्धांत और अनंत श्रेणियों पर उन्होंने अति महत्वपूर्ण और मौलिक सूत्र प्रस्तुत किए । उनके द्वारा संख्या 1729 के कुछ विशिष्ट गुण बताए जाने के कारण इसे ‘रामानुजन् संख्या’ कहा जाता है । रामानुजन् ने संख्या 139 का एक जादुई वर्ग बनाया जिसमें उनकी जन्म तिथि की संख्याएं 22,12,18 और 87 का प्रयोग किया गया था। उन्होंने जादुई वर्गों को हल करने का एक सूत्र भी बनाया ।


रामानुजन् के अधिकांश प्रमेय उच्च गणित से संबंधित हैं जो आज कम्प्यूटर विज्ञान, इंजीनियरिंग, भौतिकी और गणित के विविध क्षेत्रों में उपयोगी हैं । अमेरिका के इमोरी वि.वि. के प्रोफेसर केन ओनो कहते है- ‘‘ब्लैक होल संबंधी एक समस्या को हमने रामानुजन् के अंतिम दिनों के सूत्रों से ही हल किया जबकि 1920 में ब्लैक होल के बारे में वैज्ञानिकों को कोई जानकारी नहीं थी ।’’ प्रकृति के गुणों और रहस्यों को समझने में गणित की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । रामानुजन् के निधन के बाद से ही उनके कार्यों का गणितज्ञों द्वारा निरंतर विस्तृत अध्ययन किया जा रहा है । उनके कुछ अनुमानों और कथनों ने अध्ययन के नए क्षेत्रों का सृजन किया है । दुनिया भर के गणितज्ञ और वैज्ञानिक 100 सालों के बाद भी उनके कार्यों पर शोध कर रहे हैं । गणितज्ञ फ्रीमैन डायसन ने ठीक ही कहा था- ‘‘रामानुजन् के उद्यान से जो बीज हवा में बिखरे हैं वे अब पूरी दुनिया में अंकुरित होने लगे हैं ।’’


उनके सभी प्रकाशित 21 शोध पत्रों का संग्रह 355 पृष्ठों के ग्रंथ के रूप में उनके निधन के 7 साल बाद 1927 में ‘द कलेक्टेड पेपर्स’ नाम से कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुआ । उन्होंने अपने जीवन काल में गणित के 3884 प्रमेयों का सृजन किया । 1985 में उनके मूल नोट बुक्स ‘रामानुजन् नोट बुक्स’ शीर्षक से 5 खंडों में प्रकाशित हुआ । उनका एक पुराना रजिस्टर जिसमें वे प्रमेयों और सूत्रों को लिखा करते थे, 1976 में अचानक ट्रिनिटी कालेज के पुस्तकालय में मिला जिसे रामानुजन् की ‘द लॉस्ट बुक’  के नाम से जाना गया । यह पुस्तक उनकी जन्म शताब्दी वर्ष 1987 में प्रकाशित हुआ । रामानुजन् के हस्तलिखित 3 नोटबुक मद्रास वि.वि. के पुस्तकालय में हैं । उनके द्वारा लिखे गए कुछ पत्र राष्ट्रीय अभिलेखागार में है और कुछ अन्य दस्तावेज कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज के पुस्तकालय में है ।

रामानुजन् की जीवनी से संबंधित पुस्तकों में राबर्ट कैनिगेल लिखित ‘द मैन हू नो इन्फिनिटी’, ‘द इंडियन क्लर्क’ और ‘द फर्स्ट वन’ प्रमुख हैं । उनके नाम पर 3 जर्नल भी प्रकाशित हो रहे हैं ।
विदेशों में उन पर बहुत से नाटक भी मंचित हुए हैं जिनमें ‘द ओपेरा-रामानुजन्, पार्टीशन’, ‘फर्स्ट क्लास मैन’ और ‘ए डिस्अपीयरिंग नंबर’ उल्लेखनीय हैं । उनके जीवन पर देश-विदेश में कई डाक्यूमेंटरी फिल्में बनीं । दो फीचर फिल्में भी बनीं- 1914 में ‘रामानुजन’ और 2015 में ‘द मैन हू नो इन्फिनिटी’। भारत सरकार ने वर्ष 1962, 2011, 2012 और 2016 में रामानुजन् की स्मृति में डाक टिकिट जारी किए । उनकी 125 वीं जयंती पर वर्ष 2012 को ‘राष्ट्रीय गणित वर्ष’ घोषित किया गया था जबकि उनकी जन्मतिथि 22 दिसंबर  को ‘राष्ट्रीय गणित दिवस’ घोषित किया गया है । लेकिन अब समय है कि हम  प्रसिद्ध वैज्ञानिक पद्मविभूषण रोदम नरसिम्हा के इस गूढ़ कथन पर भी ध्यान दें- ‘‘भारतीय विश्वविद्यालयों में अभी भी रामानुजन् को प्रवेश नहीं मिला है !’’


एक महान बौद्धिक व्यक्तित्व होने के बावजूद रामानुजन् का स्वभाव अत्यंत सरल था । वे आस्तिक थे किंतु रूढ़ियों और कुरीतियों को स्वीकार नहीं करते थे । उनकी धारणा थी कि जात-पाँत और छुआछूत के नियम ईश्वरीय नहीं हैं और इनका पालन करना भी अनिवार्य नहीं है । रामानुजन् का जीवन अल्प समय का रहा, लगभग 33 वर्ष, किंतु उनकी कीर्ति दुनिया भर के गणितज्ञों और वैज्ञानिकों की स्मृति में चिरकाल तक स्पंदित होती रहेगी ।

-महेन्द्र वर्मा  



ममतामयी प्रकृति








कभी छलकती रहती थीं ,
बूँदें अमृत की धरती पर,
दहशत का जंगल उग आया ,
कैसे अपनी धरती पर ।

सभी मुसाफिर  इस सराय के , 
आते-जाते रहते हैं,
आस नहीं मरती लोगों की ,
बस जीने की  धरती पर ।

ममतामयी प्रकृति को चिंता ,
है अपनी संततियों की,
सबके लिए जुटा कर रक्खा ,
दाना -पानी धरती पर ।

पूछ  रहे  हो  हथेलियों  पर,
कैसे   रेखाएँ   खींचें,
चट्टानों पर ज़ोर लगा, 
हैं बहुत नुकीली धरती पर ।

रस्म निभाने सबको मरना, 
इक दिन लेकिन उनकी सोच,
जो हैं  अनगिन  बार  मरा ,
करते  जीते -जी  धरती पर ।

जब से पैसा दूध-सा हुआ,  
महल बन गए बाँबी-से,
नागनाथ औ’ साँपनाथ की,
भीड़ है बढ़ी धरती पर ।

मौसम रूठा रूठी तितली ,
रूठी दरियादिली  यहाँ,
जाने किसकी नज़र लग गई, 
आज हमारी धरती पर ।

                                                                                                              -महेन्द्र वर्मा

तीन सौ धर्मों के तीन सौ ईश्वर




प्रकृति और उसकी शक्तियाँ शाश्वत हैं । मनुष्य ने सर्वप्रथम प्राकृतिक शक्तियों को ही विभिन्न देवताओं के रूप में प्रतिष्ठित किया । मनुष्य के अस्तित्व के लिए जो शक्तियाँ सहायक हैं, उन को देवता माना गया । भारत सहित विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं- सुमेर, माया, इंका, हित्ती, आजतेक, ग्रीक, मिस्री आदि में प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की जाती थी । चीन और ग्रीस के प्राचीन धर्मग्रंथों में भी आकाश को पिता और पृथ्वी को माता माना गया है । हवा, जल, बादल, वर्षा, नदी, पर्वत के अतिरिक्त दैनिक जीवन में व्यवहार में आने वाली वस्तुओं, विशेषतया अन्न उपजाने और भोजन से संबंधित वस्तुओं को भी पवित्र समझने का मानव स्वभाव रहा है ।

लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व कबीलाई समाज में धर्म की अवधारणा का बीजारोपण इसी तरह हुआ । आज भी गाँवों में अन्न, जल, पेड़-पौधे, चूल्हा, चक्की, सूप, बर्तन, मिट्टी, आग, दीपक आदि को पवित्र माना जाता है । लोकधर्म की यही सहज परंपराएँ अनेक सदियों तक बार-बार परिवर्तित होती हुई हज़ारों वर्षों पश्चात संगठित धर्म का रूप ग्रहण कर लेती हैं और  फिर लिपिबद्ध हो कर शास्त्र बन जाती हैं ।

प्राचीन युग के मनुष्यों के द्वारा प्रकृति के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का भाव प्रदर्शित करना सहज और स्वाभाविक था । पाँच हज़ार वर्ष पूर्व लिखे गए प्रारंभिक धार्मिक शास्त्रों में यह भाव यथावत् है । समय के साथ-साथ प्रकृति पूजा की अवधारणा में बदलाव होता गया । तदनुसार नए-नए शास्त्र लिखे जाते रहे । मूल अवधारणा को लोग भूलते गए । अब तक इतने परिवर्तन हो चुके हैं कि यह अवधारणा  अब प्रकृति की सहज विशिष्टताओं के विरुद्ध हो चुकी है ।

पहले संपूर्ण विश्व में धर्म संबंधी अवधारणा एक समान थी । अब लगभग 300 संगठित धर्मों के 300 प्रकार के विचार हैं । प्रत्येक धर्म अपने ईश्वर को ही वास्तविक ईश्वर मानता है । इस प्रकार अब ईश्वर एक नहीं बल्कि 300  हैं । आज के लोकधर्मों को भी सम्मिलित कर लें तो ईश्वरों की संख्या लगभग आठ हज़ार हो जाती है ।

दुनिया का सबसे प्राचीन माना जाने वाला धार्मिक शास्त्र आज भी उपलब्ध है । इसमें प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को देवता मान कर उन के प्रति प्रार्थनाएँ की गई हैं । इसे ईश्वरकृत भी कहा जाता है । किंतु इसके बाद के ग्रंथों में प्रकृति के वे देवता कहीं भी नज़र नहीं आते । कुछ के स्वरूप और स्वभाव बदले हुए है और कुछ नए देवताओं के वर्णन हैं ।

यदि पहले के शास्त्र ईश्वरकृत हैं तो उसमें वर्णित विचारों को बदल कर मनुष्यों द्वारा नए शास्त्र क्यों रचे गए, इसका उत्तर किसी के पास नहीं है । उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म संबंधी विचार एक उत्कृष्ट विचार था क्योंकि यह प्रकृति की समस्त शक्तियों का एकीकृत रूप अर्थात ऊर्जा का ही दूसरा नाम था ।  यह विडंबना ही है कि ब्रह्म की यह अवधारणा  आज  विलुप्त हो चुकी है ।

सभी धर्मां के बाद में रचे गए शास्त्रों की विचारभिन्नता ने लोगों के बीच द्वेष की भावना में वृद्धि ही की फलस्वरूप धर्म के नाम पर अनेक युद्ध हुए । लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा गया । आज भी यह युद्ध अघोषित रूप से जारी है । धर्म के इस परिवर्तित होते स्वरूप में एक विशेष क्रम दिखाई देता है- पहले इसमें केवल कृतज्ञता और सम्मान का भाव था, फिर आस्था और श्रद्धा का भाव प्रबल हुआ और अब केवल मन-हृदयविहीन प्रदर्शन की भावना है ।

आजकल एक शब्दयुग्म बहुत प्रचलन में है- धार्मिक कट्टरता । धर्म जैसी अवधारणा के साथ कट्टर शब्द का कोई मेल नहीं है । आपने ‘कट्टर दुश्मन’ सुना होगा, क्या कभी ‘कट्टर मित्र’ सुना है ! कट्टर नकारात्मक अर्थ वाला शब्द है, मित्र के साथ उसका प्रयोग नहीं किया जा सकता । जो धर्म में भी नकारात्मकता खोज लेते हैं वे ही कट्टर धार्मिक कहे जा सकते हैं । मनुष्य के स्वभाव की यह विशेषता है कि वह नकारात्मक बातों को आसानी से समझ जाता है और उस पर अमल भी करने लगता है। अपवादस्वरूप कुछ ही लोग अच्छी बातों को समझ पाते हैं ।

एक धार्मिक ग्रंथ में इसमें ‘ईश्वर’ का कथन है- ‘‘ चार प्रकार के लोग मुझे प्रिय हैं, आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी । इनमें भी जिज्ञासु और ज्ञानी मुझे विशेष प्रिय हैं ।’’ जिज्ञासु अर्थात जानने की इच्छा रखने वाला । जिज्ञासु वही होते है जो तार्किक होते हैं, इसीलिए वे प्रकृति के गुणों के कारणों को खोजते रहते हैं और कभी-न-कभी पा भी लेते हैं अर्थात वे जान भी जाते हैं और जो जान लेता है वही ज्ञानी है ।

ऋग्वैदिककालीन देवताओं- द्युः, आपः, मरुत्, इन्द्र, अग्नि, पर्जन्य, ऊषा, सविता, पृथ्वी आदि की विशेषताओं को उन लोगों ने जाना जिन्हें आज हम वैज्ञानिक कहते हैं । ऐसे महान वैज्ञानिक ही सच्चे अर्थों में धार्मिक और आस्तिक हैं क्योंकि वे सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता ऊर्जा की निरंतर ‘उपासना’ करते हैं । इनमें केवल आधुनिक युग के वैज्ञानिक ही नहीं है बल्कि वे अनाम-अज्ञात वैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं जिन्होंने लाखों-हज़ारों वर्ष पूर्व आग, पहिया, नाव, वस्त्र, रोटी, भाषा, कृषि आदि की खोज और आविष्कार किया । शेष लोग तो जानने का प्रयास ही नहीं करते, जानने का प्रयास किए बिना ही कुव्याख्यायित कथ्यों को मान लेते हैं ।

-महेन्द्र वर्मा

भूतविद्या, मनोरोग और अंधविश्वास




पिछले दिनों भूतविद्या समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनी रही । कुछ ने इसे भूत-प्रेत से संबंधित बताया तो कुछ ने इसे मनोचिकित्सा से संबंधित विद्या कहा । कुछ अतिउत्साही लोगों ने तो इसे पंचमहाभूतों की विद्या भी बता दिया । चूंकि भूतविद्या आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति से संबंधित है इसलिए सही अर्थ और तथ्य जानने के लिए मैंने आयुर्वेद के प्राचीन मूलग्रंथों में ही संदर्भ खोजना प्रारंभ किया । महर्षि चरक और महर्षि सुश्रुत आयुर्वेद के जनक माने जाते हैं । मैंने इनके द्वारा रचित ग्रंथ ‘चरक संहिता’ और ‘सुश्रुत संहिता’ के अतिरिक्त वाग्भट्ट के ‘अष्टाङ्ग हृदयम्’ में भी भूतविद्या के संबंध में तथ्य खोजना प्रारंभ किया । इन तीनों ग्रंथों की जो प्रतियाँ मुझे प्राप्त हुईं उन में मूल संस्कृत पाठ के साथ हिंदी टीका भी दी गई है । चरक संहिता के टीकाकार अत्रिदेव गुप्त, सुश्रुत संहिता के डॉ. अंबिका दत्त शास्त्री और अष्टाङ्ग हृदयम् के पं. राधारमण त्रिपाठी हैं ।

उक्त ग्रंथों में भूतविद्या से संबंधित अध्यायों का अध्ययन करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि सभी प्राचीन तथ्य सदैव प्रासंगिक नहीं होते । एक और महत्वपूर्ण तथ्य ज्ञात हुआ कि जिन बातों को अधिकांश लोग, जिनमें प्राच्यविद्याग्रही भी सम्मिलित हैं,  आज अंधविश्वास कहते हैं, उनकी जड़ें इन प्राचीन ग्रंथों में हैं । यह भी पता चला कि लोक परंपराएँ और रूढ़ियाँ किस तरह शास्त्रों में दर्ज हो कर ज्ञान का स्वरूप ग्रहण कर लेती हैं और सदियों बाद विज्ञान के आलोक में वही  तथाकथित  ज्ञान  पुनः  किस तरह अंधविश्वास की श्रेणी में पड़ा नज़र आने लगता है ।
भूतविद्या से संबंधित कुछ तथ्यों को उदाहरण के रूप में यहाँ उद्धरित किया गया है ताकि इस संबंध में आपकी जिज्ञासा जागृत हो सके और मूल ग्रंथों से उन अंशों का आप भी अध्ययन करें । उद्धरित अंशों का केवल हिंदी अनुवाद दिया जा रहा है, कोष्ठक में अध्याय और श्लोक संख्या का उल्लेख है । अनुवाद की भाषा यथावत है ।

सबसे पहले सुश्रुत संहिता के अनुसार भूतविद्या की परिभाषा देखिए-

‘‘देव, दैत्य, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पितर, पिशाच, नाग ग्रहादि से पीड़ित चित्त वाले लोगों के दोष की शांति के लिए हवन, बलि आदि उपायों के लिए जो  अंग (आयुर्वेद का विषय) होता है उसे भूतविद्या कहते हैं।’’(सु.सं.,भाग1,1.8.4)

अष्टाङ्गहृदयम् के टीकाकार ने इसे और स्पष्ट किया है-

‘‘ग्रहचिकित्सा (भूतविद्या)- इस में देव, असुर, पूतना आदि ग्रहों से गृहीत प्राणियों के लिए शांतिकर्म की व्यवस्था की जाती है । इन में बालग्रह तथा स्कंदग्रहों का भी समावेश है, साथ ही इनकी भी शांति के उपायों की चर्चा की गई है ।’’(अ.हृ., 1.5)

चरक संहिता में भूतविद्या या ग्रहचिकित्सा को उन्माद या मनोरोग की चिकित्सा बताते हुए इसके कारणों का भी उल्लेख किया गया  है । उन में से एक प्रकार का उन्माद और उसका कारण यह भी है-

‘‘आगंतुक उन्माद- देवता, ऋषि, गंधर्व, पिशाच, यक्ष, राक्षस और ब्रह्मराक्षस, पितर आदि ग्रहों का तिरस्कार करना, नियमपूर्वक व्रतादि का आचरण न करना और पूर्वजन्म में उत्तम कर्म न होना, ये आगंतुक उन्माद रोग के कारण हैं ।’’(च.सं.,9.16)

चरक संहिता में ही बताया गया है कि उन्माद रोग का आरंभ कैसे होता है-

‘‘उन्माद उत्पन्न करने वाले भूतों की उन्माद आरंभ करने की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न होती है, यथा- देव आंखों से देख कर, गुरु. व्द्ध, सिद्ध और ऋषिजन शाप दे कर, गंधर्वगण स्पर्श कर, यक्ष शरीर में प्रवेश कर, राक्षस सड़े मांस का गंध सुँघा कर और पिशाच शरीर पर सवार हो कर उन्माद रोग उत्पन्न करते हैं ।’’(च.सं.,खंड1,निदान.,7.14)
ग्रहपीड़ित या उन्माद रोग की चिकित्सा के लिए अनेक उपचारों का उल्लेख इन ग्रंथों में है । मंत्रयुक्त शांति पाठ, हवन, बलि, नस्य, अभ्यंग, दान, व्रत, औषधियों के विभिन्न योग के अतिरिक्त ग्रहोपचार के लिए कुछ विचित्र विधियों का भी उल्लेख है । सुश्रुत संहिता में ऐसी ही एक विधि यह है-

‘‘उन्मादे भयविस्मापनादि चिकित्सा- उन्माद के रोगी को जो वस्तु उस ने अपने जीवन में न देखी हो, ऐसी अद्भुत वस्तुएँ दिखानी चाहिए । जैसे, उसके मन और मष्तिष्क पर एकदम प्रभाव पटकने के लिए उसकी स्त्री, माता, पिता, आदि अत्यंत प्रिय व्यक्ति के मरने की मिथ्या खबर देनी चाहिए । इस के अतिरिक्त उसे भीषण आकार वाले राक्षस स्वरूपी मनुष्यों से अथवा बड़े-इड़े दाँत वाले सिखाए गए हाथियों से या विषरहित सर्पों से डराना चाहिए । पाशों तथा रस्सियों से उन्माद रोगी को सुनियंत्रित कर कोड़ों से मारना चाहिए । उसे रस्सी से बांध कर तथा अग्न्यावरोधी कवचादि से सुरक्षित कर घास की अग्नि से डराना चाहिए । गर्म पानी में डुबाने की चेष्टा या धमकी से डराना चाहिए । हृदयादिक मर्मों की चोट से बचाते हुए उसके शरीर में मोटी सुइुर् चुभो के पीड़ा उत्पन्न करनी चाहिए । रोगी को किसी घर के भीतर प्रविष्ट कराके उस की रक्षा का ध्यान रखते हुए उस घर के अंदर अथवा बाहर चारों तरफ आग लगा देनी चाहिए । जल से रहित ढक्कन वाले कुएं में उसे निरंतर कुछ समय तक रखना चाहिए ।’’(सु.सं.,उ.तं.,60.18-21)

चरक संहिता में भी इसी प्रकार की चिकित्सा का उल्लेख है-

‘‘शोधन करने पर भी यदि रोगी में आचार की अपवित्रता हो तो तीक्ष्ण नस्य, तीक्ष्ण अंजन, दण्ड आदि से पीटना, मन, बुद्धि और शरीर को उद्विग्न करने वाले कार्य करना हितकारी है ।’’(च.सं.,चि, 9.36)
‘‘उन्माद रोगी के शरीर पर सरसों का तेल लगाकर, हाथ पांव बाँध कर पीठ के भार धूप में लिटा दें । फिर गर्म लोहे, गर्म तेल या गर्म जल से स्पर्श करे । कोड़ों से पीटे, बाँधे, एकांत घर में बंद रखे । ऐसा करने से रोगी का विक्षिप्त चित्त शांत हो जाता है ।‘‘(च.सं.,चि, 9.87-88)

उक्त उद्धरणों को पढ़ कर किसी भी विवेकी का मन सिहर उठेगा । संभव है कि ये विधियाँ उस समय के मनोरोगों के लिए कारगर रही हों किंतु आज के संदर्भ में क्या यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि तब निश्चित ही मनोरोग संबंधी ज्ञान बहुत सीमित था ? मनोरोग की जो अवधारणा पहले थी वह आज चिकित्साविज्ञानिकों द्वारा खारिज की जा चुकी है । आश्चर्य है कि आज से दो हजा़र वर्ष पूर्व की तथाकथित मनोचिकित्सा आज भी ओझाओं और बाबाओं द्वारा जारी है । इन के इलाज से कई बार रोगी की मृत्यु भी हो जाती है । मनोरोग को भूतबाधा बता कर रोगी को तरह-तरह के कष्ट देना किसी भी स्थिति में उचित नहीं है ।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने मनोचिकित्सा के क्षेत्र में आशातीत प्रगति की है । प्रत्येक बड़े अस्पताल में मनोचिकित्सा आधुनिक विधियों से होती है । हम सब को प्रयास करना चाहिए कि मनोरोग चिकित्सा के इन प्राचीन क्रूर तरीकों से हमारा समाज छुटकारा पा सके ।


(टीप-  यह लेख मनोरोग के कारण संबंधी प्राचीन भ्रम को दूर करने और जन-जागरूकता के लिए लिखा गया है । चिकित्सा संबंधी दिए  गए  उदाहरण  विषय  को स्पष्ट  करने के लिए हैं । इन्हें किसी भी स्थिति में व्यवहार में      न    लाएँ ।)


-महेन्द्र वर्मा

खुला मस्तिष्क या बंद मस्तिष्क



क्या आपको किसी ने कभी कहा है कि ‘ज़रा खुले दिमाग़ से सोचो’ या क्या यही बात आपने किसी से कभी कही है ?  इस बात से ऐसा लगता है कि सोचने वाला अब तक ‘बंद दिमाग़’ से सोच रहा था । क्या बंद दिमाग़ से भी सोचा जा सकता है ? सोचते होंगे कुछ लोग ! तभी तो कहने की ज़़रूरत पड़ी कि ‘खुले दिमाग से सोचो’ !

हर एक व्यक्ति अपने आस-पास की दुनिया और उसमें घटित होने वाली घटनाओं को अलग तरह से ‘देखता’ है, उसके बारे में अलग तरह से सोचता है, अलग तरह से निष्कर्ष निकालता है और अंत में अलग तरह से अपनी प्रतिक्रिया देता है । ऐसा इसलिए क्योंकि प्रत्येक की बौद्धिक क्षमता अन्य से अलग होती है । किसी घटना या विचारधारा के प्रति दो व्यक्तियों की राय बिल्कुल विपरीत भी हो सकती है । विचित्र स्थिति तब पैदा होती है जब दोनों अपनी-अपनी बात को सही होने का दावा करते हैं । प्रश्न उठता है कि उन दोनों में सही कौन है ? क्या इस तरह की बातों के बारे में सही या गलत का निर्णय करने का कोई पैमाना, कोई आधार होता है ?

इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के पहले यह जान लेना आवश्यक होगा कि लोगों के साथ जीवन में वास्तव में औसत रूप से क्या होता है । एक बात जो सर्वमान्य है कि प्रत्येक के जीवन में उतार-चढ़ाव होता रहता है लेकिन यह भी सही है कि कुछ लोग लगातार अपने कार्यक्षेत्र में सफल होते रहते हैं जबकि कुछ को लगातार असफलता का सामना करना पड़ता है । यह स्पष्ट कर दें कि यहां सफलता का संबंध परिश्रम, ईमानदारी, लगन और प्रतिभा जैसी विशेषताओं से है न कि भ्रष्टाचार, बेईमानी, झूठ आदि से । पहले प्रकार के लोग प्रायः ज़़्यादा ग़लतियां नहीं करते वहीं दूसरे प्रकार के लोग बार-बार ग़लतियां करते हैं । जाहिर है, इस सफलता-असफलता के पीछे लोगों की सोच ज़िम्मेदार है, घटनाओं को देखने-समझने का, सामना करने का उनका नज़़रिया जिम्मेदार है । दूसरे शब्दों में, इन सबका संबंध बौद्धिक क्षमता से है, मानसिकता से है ।

मनुष्य के व्यवहारों का अध्ययन करने वाले ‘पढ़े-लिखे लोगों’ यानी मनोवैज्ञानिकों ने  उपर कही गई बातों पर भी बहुत सारा अध्ययन किया है, शोध किया है और फिर कुछ निष्कर्ष निकाले हैं । इस विषय पर विशेषज्ञों ने किताबें भी लिखी गई हैं । उन्होंने पहले समूह के लोगों को ‘खुली मानसिकता वाले लोग’ और दूसरे समूह वाले लोगों को ‘बंद मानसिकता वाले लोग’ कहा है। यानी, दुनिया भर में यही दो तरह के लोग  हैं । आप ने महसूस किया होगा कि पहले प्रकार के लोगों की संख्या दूसरे प्रकार के लोगों की संख्या की तुलना में बहुत कम है ।

उक्त अध्ययनों में दोनों समूह के लोगों की कुछ विशेषताएं बताई गई हैं । खुली मानसिकता वाले लोग उदार सोच वाले होते हैं । ये ये नए विचारों को जानने के प्रति उत्सुक होते हैं । ये रूढ़ियों से बंधे रहना ज़रूरी नहीं समझते । जबकि बंद मानसिकता वाले लोग संकीर्ण सोच वाले होते हैं । ये नए विचारों को बिल्कुल नहीं जानना चाहते और उसका विरोध करते है। अपनी अपने वर्षों पुराने विचारों पर ही कायम रहना चाहते हैं । रूढ़ियों से बंधे रहना इन्हें पसंद होता है ।

पहले समूह के लोगों में सीखने के प्रति ललक होती है । अपनी ग़लतियों को स्वीकारते हैं । वे अपने विचारों पर सवाल उठाए जाने से दूसरों को नहीं रोकते । दूसरों की असहमति को अपने ज्ञान को बढ़ाने का साधन के रूप में देखते हैं । इस से इनकी रचनात्मकता में वृद्धि होती है । इसके विपरीत दूसरे समूह के लोगों को कुछ नया सीखने में कोई रुचि नहीं होती । ये कभी नहीं मानते कि इन से कोई गलती हो सकती है । ऐसे लोग बिल्कुल नहीं चाहते कि दूसरे लोग उनके विचारों पर सवाल उठाएं ।  सवाल उठाए जाने पर ये नाराज हो जाते हैंं । दूसरों के विचारों के खंडन में अधिक रुचि रखते हैं । अपनी बात मनवाने के लिए दूसरो पर दबाव भी डालते हैं । ये कुछ नया करने से झिझकते हैं । इसीलिए इनमें रचनात्मकता का अभाव होता है ।

खुली मानसिकता वालों का एक स्वाभाविक गुण है कि ये अहंकारी नहीं होते । इनमें किसी अज्ञात डर की भावना नहीं होती । ये दूसरों को समझाने की बजाय स्वयं समझने की कोशिश करते हैं, दूसरों के विचारों को धैर्य से सुनते हैं। बंद मानसिकता वाले लोग स्वभाव से अहंकारी होते हैं। इनमें डर और असुरक्षा की भावना प्रबल होती है इसीलिए ये दूसरों पर हावी होने की कोशिश लगातार करते रहते हैं । ये लोग नहीं चाहते कि कोई दूसरा उन्हें समझाए, दूसरों की बातों को सुनना इन्हें पसंद नहीं ।

खुली मानसिकता वाले लोग तथ्यों और तर्कों को साथ लेकर आगे बढ़ते हैं । ये अपनी राय देने के पहले जानना और सीख लेना जरूरी समझते हैं । इन में एक से अधिक परस्पर विरोधी विचारों की समझ होती है । ये दूसरों के नज़रिए से भी चीजों को देखना जानते हैं । जबकि बंद मानसिकता वाले लोग कुतथ्य और कुतर्क जैसी बैसाखियों के सहारे आगे बढ़ना चाहते हैं । निराधार बातें करना इन्हें अच्छा लगता है । इन के मस्तिष्क में केवल खुद का ही विचार होता है, उस विचार से अलग किसी अन्य विचार के बारे में ये कुछ जानना भी नहीं चाहते । यदि कोई बताना भी चाहे तो ये जोर देकर कहते हैं-‘चुप रहो’ । दूसरों के नजरिए से इन्हें कोई मतलब नहीं ।

और....सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बंद मानसिकता वाले लोग स्वयं को कभी भी ‘बंद मानसिकता वाला’ नहीं मानते ।

(एंटिनोरी, स्टेनोविच, कार्टर, रे डालिओ, सिमिली आदि मनोवैज्ञानिको के अध्ययनों पर आधारित)