जंगल तरसे पेड़ को, नदिया तरसे नीर,
सूरज सहमा देख कर, धरती की यह पीर ।
मृत-सी है संवेदना, निर्ममता है शेष,
मानव ही करता रहा, मानवता से द्वेष ।
अर्थपिपासा ने किया, नष्ट धर्म का अर्थ,
श्रद्धा की आंखें नहीं, सत्य हुआ असमर्थ ।
‘मैं’ से ‘मैं’ का द्वंद्व भी ,सदा रहा अज्ञेय,
पर सबका ‘मैं’ ही रहा, अपराजित दुर्जेय ।
उर्जा-समयाकाश है, अविनाशी अन्-आदि,
शेष विनाशी ही हुए, जल-थल-नभ इत्यादि ।
अंधकार के राज्य में, दीये का संघर्ष,
त्रास हारता है सदा, विजयी होता हर्ष ।
कहीं खेल विध्वंस का, कहीं सृजन के गीत,
यही सृष्टि का नियम है, यही जगत की रीत ।
-महेन्द्र वर्मा
सूरज सहमा देख कर, धरती की यह पीर ।
मृत-सी है संवेदना, निर्ममता है शेष,
मानव ही करता रहा, मानवता से द्वेष ।
अर्थपिपासा ने किया, नष्ट धर्म का अर्थ,
श्रद्धा की आंखें नहीं, सत्य हुआ असमर्थ ।
‘मैं’ से ‘मैं’ का द्वंद्व भी ,सदा रहा अज्ञेय,
पर सबका ‘मैं’ ही रहा, अपराजित दुर्जेय ।
उर्जा-समयाकाश है, अविनाशी अन्-आदि,
शेष विनाशी ही हुए, जल-थल-नभ इत्यादि ।
अंधकार के राज्य में, दीये का संघर्ष,
त्रास हारता है सदा, विजयी होता हर्ष ।
कहीं खेल विध्वंस का, कहीं सृजन के गीत,
यही सृष्टि का नियम है, यही जगत की रीत ।
-महेन्द्र वर्मा
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ReplyDeleteकहीं खेल विध्वंस का, कहीं सृजन के गीत,
ReplyDeleteयही सृष्टि का नियम है, यही जगत की रीत ।
..सच उपर वाले के नियम को इंसान कभी तोड़ नहीं सकता..वह उसके समझ से पर है ..
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
बहुत सुन्दर और सार्थक दोहे...
ReplyDeleteदोहों में विराट बिंब हैं. यह दोहा विशेषकर पसंद आया-
ReplyDeleteअंधकार के राज्य में, दीये का संघर्ष,
त्रास हारता है सदा, विजयी होता हर्ष ।
एक से बढ़कर एक दोहे आदरणीय
ReplyDeleteअर्थपिपासा ने किया, नष्ट धर्म का अर्थ,
ReplyDeleteश्रद्धा की आंखें नहीं, सत्य हुआ असमर्थ ...
करारी चोट है समाज की गलत मान्यताओं पर ... कमाल के दोने हैं सब ...
अद्भुत दोहे आपके, अद्भुत हैं सन्देश,
ReplyDeleteऐसे उच्च विचार से है महान यह देश!
शाश्वत और सुकूनदायी दोहे .. अति सुन्दर .
ReplyDeleteबेहतरीन दोहे
ReplyDeleteलाजवाब
ReplyDeleteएक से बढ़कर एक दोहे
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.....
ReplyDeleteगणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ।
गहन जीवन-दर्शन की अति सहज अभिव्यक्ति ,वह भी दोहे जैसे लघु छंद में !
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