श्रद्धा की आंखें नहीं

जंगल तरसे पेड़ को, नदिया तरसे नीर,
सूरज सहमा देख कर, धरती की यह पीर ।

मृत-सी है संवेदना, निर्ममता है शेष,
मानव ही करता रहा, मानवता से द्वेष ।

अर्थपिपासा ने किया, नष्ट धर्म का अर्थ,
श्रद्धा की आंखें नहीं, सत्य हुआ असमर्थ ।

‘मैं’ से ‘मैं’ का द्वंद्व भी
,सदा रहा अज्ञेय,
पर सबका ‘मैं’ ही रहा, अपराजित दुर्जेय ।

उर्जा-समयाकाश है, अविनाशी अन्-आदि,
शेष विनाशी ही हुए, जल-थल-नभ इत्यादि ।

अंधकार के राज्य में, दीये का संघर्ष,
त्रास हारता है सदा, विजयी होता हर्ष ।

कहीं खेल विध्वंस का, कहीं सृजन के गीत,
यही सृष्टि का नियम है, यही जगत की रीत ।
                                                                         -महेन्द्र वर्मा

14 comments:

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  3. कहीं खेल विध्वंस का, कहीं सृजन के गीत,
    यही सृष्टि का नियम है, यही जगत की रीत ।
    ..सच उपर वाले के नियम को इंसान कभी तोड़ नहीं सकता..वह उसके समझ से पर है ..
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति

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  4. बहुत सुन्दर और सार्थक दोहे...

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  5. दोहों में विराट बिंब हैं. यह दोहा विशेषकर पसंद आया-
    अंधकार के राज्य में, दीये का संघर्ष,
    त्रास हारता है सदा, विजयी होता हर्ष ।

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  6. एक से बढ़कर एक दोहे आदरणीय

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  7. अर्थपिपासा ने किया, नष्ट धर्म का अर्थ,
    श्रद्धा की आंखें नहीं, सत्य हुआ असमर्थ ...
    करारी चोट है समाज की गलत मान्यताओं पर ... कमाल के दोने हैं सब ...

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  8. अद्भुत दोहे आपके, अद्भुत हैं सन्देश,
    ऐसे उच्च विचार से है महान यह देश!

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  9. शाश्वत और सुकूनदायी दोहे .. अति सुन्दर .

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  10. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.....
    गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ।

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  11. गहन जीवन-दर्शन की अति सहज अभिव्यक्ति ,वह भी दोहे जैसे लघु छंद में !

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