अपने हिस्से की बूँदें

तूफ़ाँ बनकर वक़्त उमड़ उठता है अक्सर,
खोना ही है जो कुछ भी मिलता है अक्सर ।

उसके माथे पर कुछ शिकनें-सी दिखती हैं,
मेरी  साँसों  का  हिसाब रखता है अक्सर ।

वक़्त ने गहरे हर्फ़ उकेरे जिस किताब पर,
उस के सफ़्हे वो छू कर पढ़ता है अक्सर ।

सहरा  हो  या  शहर  तपन  है  राहों में,
जख़्मी पाँवों से चलना पड़ता है अक्सर ।

अपने  हिस्से  की  बूँदों  को  ढूँढ  रहा  हूँ,
दरिया का ही नाम लिखा दिखता है अक्सर ।

 


-महेन्द्र वर्मा

11 comments:

  1. http://bulletinofblog.blogspot.in/2017/02/blog-post_28.html

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  2. दिनांक 02/03/2017 को...
    आप की रचना का लिंक होगा...
    पांच लिंकों का आनंदhttps://www.halchalwith5links.blogspot.com पर...
    आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
    आप की प्रतीक्षा रहेगी...

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  3. दिखा भी तो दरिया नाम ही केवल.
    अपने हिस्से की बूँदों को ढूँढ रहा हूँ,
    दरिया का ही नाम लिखा दिखता है अक्सर ।
    ये पंक्तियां टीस छोड़ जाती हैं.

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  4. अपने हिस्से की बूँदों को ढूँढ रहा हूँ,
    दरिया का ही नाम लिखा दिखता है अक्सर ।

    >>>वाह...लाज़वाब। बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...

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  5. अपने हिस्से की बूँदों को ढूँढ रहा हूँ,
    दरिया का ही नाम लिखा दिखता है अक्सर ।

    बहुत खूबसूरत

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  6. वाह
    बहुत सुन्दर

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  7. bahut khoob ... lajawab gazal hai ... har sher kamaal ka ...

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  8. सहरा हो या शहर तपन है राहों में,
    जख़्मी पाँवों से चलना पड़ता है अक्सर ।

    अपने हिस्से की बूँदों को ढूँढ रहा हूँ,
    दरिया का ही नाम लिखा दिखता है अक्सर ।


    बहुत शानदार ग़ज़ल आदरणीय

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  9. साथॆक प्रस्तुतिकरण......
    मेरे ब्लाॅग की नयी पोस्ट पर आपके विचारों की प्रतीक्षा....

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  10. सहरा हो या शहर तपन है राहों में,
    जख़्मी पाँवों से चलना पड़ता है अक्सर ।

    खूबसूरत बहुत शानदार ग़ज़ल

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  11. पढ़ना अच्छा लग रहा है ।

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