धूप, चांदनी, सीप, सितारे




सच्चाई की बात करो तो, जलते हैं कुछ लोग,
जाने कैसी-कैसी बातें, करते हैं कुछ लोग।

धूप, चांदनी, सीप, सितारे, सौगातें हर सिम्त,
फिर भी अपना दामन ख़ाली, रखते हैं कुछ लोग।

उसके आँगन फूल बहुत है, मेरे आँगन धूल,
तक़दीरों का रोना रोते रहते हैं कुछ लोग।

इस बस्ती से शायद कोई, विदा हुई है हीर,
उलझे-उलझे, खोए-खोए, दिखते हैं कुछ लोग।

ख़ुशियाँ लुटा रहे जीवन भर, लेकिन अपने पास,
कुछ आँसू, कुछ रंज बचाकर, रखते हैं कुछ लोग।

इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैराँ हूँ , यह सुनते ही क्यूँ , हँसते हैं कुछ लोग।

जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।


                                                                -महेंद्र वर्मा

1 comment:

  1. बहुत ही खूबसूरत रचना.

    इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
    हैराँ हूँ , यह सुनते ही क्यूँ , हँसते हैं कुछ लोग।

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