वाद विवाद काहू सो नाहीं
दादूपंथ के प्रवर्तक संत दादूदयाल का स्थान संत साहित्य में बहुत उच्च है। इनका जन्म फाल्गुन शुक्ल पक्ष 2, वि.सं. 1601 को अहमदाबाद में हुआ था। ग्यारह वर्ष की आयु में इन्हें संत वृद्धानंद या बुड्ढन से दीक्षा प्राप्त हुई थी। तब से ये कुछ समय तक देशाटन, सत्संग, चिंतन-मनन,एवं कतिपय साधनाओं में लगे रहे। लगभग 30 वर्ष की अवस्था में ये सांभर नामक स्थान में आकर रहने लगे थे। वहां पर अपने उपलब्ध अनुभवों के आघार पर ब्रह्म संप्रदाय की स्थापना की जो आगे चलकर दादूपंथ के नाम से विख्यात हुआ। विवाहोपरांत इनके दो पुत्र हुए, गरीबदास और मिस्कीनदास, इनमें से गरीबदास प्रसिद्ध संत हुए। आमेर में रहते समय संत दादूदयाल को बादशाह अकबर ने आध्यात्मिक चर्चा के लिए सीकरी बुला भेजा। संवत् 1643 में उनका यह सत्संग 40 दिनों तक चला।
दादूदयाल अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे किंतु इनकी आध्यात्मिक अनुभूति गहरी और सच्ची थी तथा उसे व्यक्त करने के लिए भाषा के प्रयोग में ये बड़े निपुण थे। इनके द्वारा रचित वाणियों को इनके शिष्यों ने हरडेवाणी नाम से प्रस्तुत किया। इनके प्रमुख शिष्य रज्जब ने अंगबंधु नाम से संशोधित संकलन प्रस्तुत किया। इस संग्रह में 37 अंगों में विभाजित साखियों की संख्या 2658 है और पदों की संख्या 445 है।
अपनी नम्रता, क्षमाशीलता एवं कोमल हृदयता के कारण ये दादू से दादूदयाल कहलाने लगे। सर्वव्यापक परमात्म तत्व के प्रति इनकी अविच्छिन्न विरहासक्ति ने इन्हें प्रेमोन्मक्त सा बना दिया था। इनका देहावसान ज्येष्ठ कृष्ण 8 संवत् 1660 में हुआ।
प्रस्तुत है दादूदयाल जी का एक पद-
भाई रे जैसा पंथ हमारा।
द्वै पख रहित पंथ गहि पूरा, अवरण एक अधारा।
वाद विवाद काहू सो नाहीं, माहिं जगत से न्यारा।
सम दृष्टि सुभाई सहज मैं, आपहि आप विचारा।
मैं तैं मेरी यहु मत नाहीं, निरबैरी निरकारा।
पूरण सबै देखि आपा पर, निरालंब निरधारा।
काहू के संग मोह न ममता, संगी सिरजनहारा।
मन नहि मन सो समझ सयाना, आनंद एक अपारा।
काम कल्पना कदै न कीजै, पूरण ब्रह्म पियारा।
इहि पथ पहुंचि पार गहि दादू, सो तत सहजि संभारा।
द्वै पख रहित- हिंदू मुस्लिम दोनों संप्रदायों से निरपेक्ष
दादूपंथ के प्रवर्तक संत दादूदयाल का स्थान संत साहित्य में बहुत उच्च है। इनका जन्म फाल्गुन शुक्ल पक्ष 2, वि.सं. 1601 को अहमदाबाद में हुआ था। ग्यारह वर्ष की आयु में इन्हें संत वृद्धानंद या बुड्ढन से दीक्षा प्राप्त हुई थी। तब से ये कुछ समय तक देशाटन, सत्संग, चिंतन-मनन,एवं कतिपय साधनाओं में लगे रहे। लगभग 30 वर्ष की अवस्था में ये सांभर नामक स्थान में आकर रहने लगे थे। वहां पर अपने उपलब्ध अनुभवों के आघार पर ब्रह्म संप्रदाय की स्थापना की जो आगे चलकर दादूपंथ के नाम से विख्यात हुआ। विवाहोपरांत इनके दो पुत्र हुए, गरीबदास और मिस्कीनदास, इनमें से गरीबदास प्रसिद्ध संत हुए। आमेर में रहते समय संत दादूदयाल को बादशाह अकबर ने आध्यात्मिक चर्चा के लिए सीकरी बुला भेजा। संवत् 1643 में उनका यह सत्संग 40 दिनों तक चला।
दादूदयाल अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे किंतु इनकी आध्यात्मिक अनुभूति गहरी और सच्ची थी तथा उसे व्यक्त करने के लिए भाषा के प्रयोग में ये बड़े निपुण थे। इनके द्वारा रचित वाणियों को इनके शिष्यों ने हरडेवाणी नाम से प्रस्तुत किया। इनके प्रमुख शिष्य रज्जब ने अंगबंधु नाम से संशोधित संकलन प्रस्तुत किया। इस संग्रह में 37 अंगों में विभाजित साखियों की संख्या 2658 है और पदों की संख्या 445 है।
अपनी नम्रता, क्षमाशीलता एवं कोमल हृदयता के कारण ये दादू से दादूदयाल कहलाने लगे। सर्वव्यापक परमात्म तत्व के प्रति इनकी अविच्छिन्न विरहासक्ति ने इन्हें प्रेमोन्मक्त सा बना दिया था। इनका देहावसान ज्येष्ठ कृष्ण 8 संवत् 1660 में हुआ।
प्रस्तुत है दादूदयाल जी का एक पद-
भाई रे जैसा पंथ हमारा।
द्वै पख रहित पंथ गहि पूरा, अवरण एक अधारा।
वाद विवाद काहू सो नाहीं, माहिं जगत से न्यारा।
सम दृष्टि सुभाई सहज मैं, आपहि आप विचारा।
मैं तैं मेरी यहु मत नाहीं, निरबैरी निरकारा।
पूरण सबै देखि आपा पर, निरालंब निरधारा।
काहू के संग मोह न ममता, संगी सिरजनहारा।
मन नहि मन सो समझ सयाना, आनंद एक अपारा।
काम कल्पना कदै न कीजै, पूरण ब्रह्म पियारा।
इहि पथ पहुंचि पार गहि दादू, सो तत सहजि संभारा।
द्वै पख रहित- हिंदू मुस्लिम दोनों संप्रदायों से निरपेक्ष
दादूदयाल जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए आभार ...
ReplyDeleteसंत दादू दयाल जी के कुछ पद पहले सुन रखे हैं। पक्का नहीं मालूम लेकिन शायद गुरू ग्रंथ साहिब में भी संत दादू की कुछ रचनायें शामिल हैं। आपने विस्तृत जानकारी उपलब्ध करवाई, आभार स्वीकारें।
ReplyDelete.
ReplyDeleteThanks for this wonderful information .
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gyanvardhak v upyogi jankari uplabhd karane hetu hardik dhanywad
ReplyDeleteनया अनुभव मेरे लिये..
ReplyDeleteबहुत अच्छा आलेख। इनके बारे में इतनी जानकारे और पद पढकर काफ़ी मनसिक संतोष प्राप्त हुआ। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteपक्षियों का प्रवास-२, राजभाषा हिन्दी पर
फ़ुरसत में ...सबसे बड़ा प्रतिनायक/खलनायक, मनोज पर
और भी पद प्रस्तुत करने की कृपा कीजियेगा - अग्रिम धन्यवाद
ReplyDeleteदादू दयाल जी में के बारे जानकारी..आभार .. वटवृक्ष में मेरी कविता " खुद से खुद की बातें " आपने पसंद कीं और टिपण्णी की - धन्यवाद
ReplyDeleteअच्छी जानकारी के लिए आभार ।
ReplyDeleteसंत दादूदयाल के विषय में विस्तृत जानकारी के लिए आभार....
ReplyDeleteाच्छी जानकारी, धन्यवाद।
ReplyDeleteDadu dayal ji ke vichar aaj bhi prasangik hain .yadi log prashansa nahi amal karne ka sankalp len to uttam rahe .
ReplyDeleteGyaan bantne ke liye aapka aabhar .