प्यार का, अहसास का, ख़ामोशियों का ज़िक्र हो,
महफिलों में अब जरा तन्हाइयों का ज़िक्र हो।
मीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
जो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।
रास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
क्या जरूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।
फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
मौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।
दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
धूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।
-महेन्द्र वर्मा
sundar rachna.....
ReplyDeleteवाह साहब खूबसूरत ग़ज़ल . जरूरत तो यही है की हम मिटटी से जुड़े रहे और इसकी खुशबू को अपने जेहन से कभी ना जाने दे .
ReplyDeleteदोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
ReplyDeleteधूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।
बहुत सुन्दर गज़ल..हरेक शेर दिल को छू जाता है.
महेंद्र जी! अब कौन से शेर को बेहतर कहूँ, हर एक शेर पिछले वाले शेर से बेहतर नज़र आता है... कमाल की गज़ल है!!
ReplyDeleteइस शहर की हर गली में ढेर हैं बारूद के,
ReplyDeleteबुझा देना गर कहीं चिंगारियों का जिक्र हो.
बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
ReplyDeleteबुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।
आपने तो आज कल के हालात को बयां कर दिया, मुबारकबाद
aadar sir
ReplyDeleteaaj ke smay me aapki is rachna ki tarah hi samaj ka swarup ban jaye to kitna achha ho.
फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
मौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
bahut hi shandaar avamprerak prastuti
dhanyvaad
poonam
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ReplyDeleteआपकी रचनाओं में आपका ज्ञान , आपके वृहत अनुभव, तथा आपका सरल एवं spiritual व्यक्तित्व दृष्टिगोचर होता है । उम्दा ग़ज़ल महेंद्र जी ।
तारीफ के लिए शब्द कम हैं मेरे पास।
आभार।
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ekdam bemisaal.shabd hi nahin hain kuch kahne ke liye.
ReplyDeleteमीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
ReplyDeleteजो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
बहुत खूबसूरत गज़ल ...सारे शेर एक से बढ़ कर एक ..
मीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
ReplyDeleteजो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।
रास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
क्या जरूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।
आप बहुत अच्छे ग़ज़लगो हैं. इसमें संदेह नहीं. सभी शे'र उम्दा हैं.
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है, हर एक शेअर ज़बरदस्त है!
ReplyDeleteप्रेमरस.कॉम
दोष ्सूरज का नही उसका ज़िक्र न करो,
ReplyDeleteधूप सेलड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।
बेहतरीन शे'र , ख़ूबसूरत ग़ज़ल।
वर्मा जी अब आपको उपर वाले की रहमत हासिल हो गई है।
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
ReplyDeleteचंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो
waah , har katra laajawab
दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
ReplyDeleteधूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।
गज़ब की गज़ल है हर शेर नायाब्।
mahendrji!
ReplyDeletemukammal gazal..
har sher umda..
atisundar!
आदरणीय महेन्द्र जी, जि़न्दगी के जि़क्र ने गजल को वज़नदार बना दिया है। बधाई स्वीकारें।
ReplyDelete---------
प्रेत साधने वाले।
रेसट्रेक मेमोरी रखना चाहेंगे क्या?
हमेशा की तरह सुन्दर ग़ज़ल.इस शेर के तो कहने ही क्या:-
ReplyDeleteरास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
क्या जरूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो
har nazm behatareen............ magar aapki nazar in par oadi jo kabiletareef hai.......
ReplyDeleteगंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
रास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
ReplyDeleteक्या जरूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।
बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है.
bahut sundar!
ReplyDeletehar pankti baar baar duhrayi jaane wali!!!!
जो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।
waah!
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
ReplyDeleteचंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
बहुत सुंदर रचना ...एक एक शेर बार बार पढने लायक है भाई जी ! हार्दिक शुभकामनायें !
bahut sunder bhavo aur sandesho ko sahej rakha hai ise gazal ne apane har ek sher me......... lajawab.......
ReplyDeleteरास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
ReplyDeleteक्या जरूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
बहुत खूब साहब, लिखते रहिये ....
संक्षेप में गहन बात कहने की आपकी कला अद्भुत है.
ReplyDeleteगंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
ReplyDeleteचंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।
ओह ! क्या कहूँ ! बेहतरीन ग़ज़ल और हर शेर दिल को छुं लेने वाला ...
नमस्कार जी,
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी,सुंदर प्रस्तुति
Very optiistic lines.. i too m inspired to write something positive.. :)
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