अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
शीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।
दरवाजे पर देख मुझे मायूस हुए वो,
शायद उनको इंतज़ार था किसी और का।
बहुत दिनों के बाद कहीं से ख़त इक आया,
नाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।
यादों का इक रेला मन को तरल कर गया,
आंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।
दोस्त हमारे कतरा कर यूं निकल गए,
मेरा चेहरा समझा होगा किसी और का।
जब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।
सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।
-महेन्द्र वर्मा
सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
ReplyDeleteरुका नहीं वह मेहमान था किसी और का
खुबसूरत गज़ल हर शेर दाद के क़ाबिल, मुबारक हो।
महेंद्र जी आप को पढ़ कर बहुत कुछ सिखने का अवसर मिलता है . मन आल्हादित हुआ .
ReplyDelete.
ReplyDeleteजब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
अपना आंगन लगने लगता किसी और का..
When our own folk start behaving like strangers. It hurts ! But either of them has to break the ice .
All the couplets have beautifully defined the important aspects of life .
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खुबसूरत गज़ल हर शेर दाद के क़ाबिल|धन्यवाद|
ReplyDeleteबेहतरीन गजल। हर शेर पर दिल में हलचल होने लगी।
ReplyDeleteमहेन्द्र जी सच में आपके हर शेर में दम है।
यादों का इक रेला मन को तरल कर गया,
ReplyDeleteआंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।
बेहतरीन ..... खूबसूरत गज़ल
गजलों में बहुत बढिया तालमेल "किसी और का".
ReplyDeleteबहुत अच्छी ग़ज़ल .बधाई .
ReplyDeleteसुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
ReplyDeleteरुका नहीं वह मेहमान था किसी और का
आपकी गज़ले दिल मे उतर जाती हैं…………बेहद शानदार लाजवाब गज़ल्।
अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
ReplyDeleteशीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।
bemisaal
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (28-2-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
सरल और सहज तरीके से गहरी बातें करना आप जानते हैं। बहुत अच्छी रचना लगी। कहीं भी हाईपर हुये बिना अपने जज़्बात सब उकेर कर रख दिये।
ReplyDeleteआभार स्वीकार करें।
असलियत को ख़ूबसूरती से संवारा है.
ReplyDeleteबहुत दिन बाद कहीं से ख़त इक आया
ReplyDeleteनाम मगर उसपे लिक्खा था किसी और का।
लाज़वाब शे'र मुबारक बाद वर्मा जी।
अपने भी जैसे लगें पराए.
ReplyDeleteवर्मा सा!
ReplyDeleteसुब्हान अल्लाह!! सादगी के साथ गहरी बात कहने का फ़न आपको हासिल है और आपकी सारी ग़ज़लें इस बात की गवाह हैं.. ग़ज़ल गुफ्तगू का दूसरा रूप हैं यह आपकी ग़ज़ल से जाहिर है.. इस ग़ज़ल के एक शेर के एक लफ्ज़ ने मेरा दिल चुरा लिया..
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यादों का इक रेला मन को तरल कर गया,
आंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।
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मन को तरल कर गया.. अद्भुत प्रयोग है तरल शब्द का! नत हूँ आपके समक्ष!!
वाह जनाव निशाना कहीं और लगाया था और लगा कहीं और । वो कर रहे थे किसी और का इन्तजार और हम पहुंच गये अपनी रोनी सूरत लिये। ये भी बढिया रहीं बहुत दिन बाद तो पत्र आया मगर किसी और के नाम का। विल्कुल सही है एक रोयेगा तो दूसरा भी रोयेगा दिल को दिल से राहत की बात है। दोस्त वाली बात नहीं नहीं जमी साहब माफ करना वे तो हमारी ही सूरत देख कर कतराये होगंे । सही है भाई लोग तो ये कहते भी है कि भाई तू मेरे हिस्से का आंगन भी लेले मगर बीच की ये दीवार गिरादे। अन्तिम शेर बहुत उम्दा । हम गरीवों के घर दिन निकलता नहीं अब तो सूरज भी उंचे मकानों में है। शानदार प्रस्तुति
ReplyDeleteग़ज़ल की प्रशंसा करता हूँ तो शब्द कम पड़ रहे हैं. हर शे'र याद करने को दिल करने लगा है.
ReplyDeleteदरवाजे पर देख मुझे मायूस हुए वो,
ReplyDeleteशायद उनको इंतज़ार था किसी और का।
बहुत दिनों के बाद कहीं से ख़त इक आया,
नाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।
रूमानी खुशबू बिखेरते हुए ये दोनों शेर बेहतरीन हैं. सच कहें तो पूरी ग़ज़ल लाजवाब है.
दरवाजे पर देख मुझे मायूस हुए वो,
ReplyDeleteशायद उनको इंतज़ार था किसी और का।
सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।
हर शेर लाजवाब है महेंद्र जी ... एक एहसास लिए है ग़ज़ल ... मनो कुछ अपना होते होते अचानक पराया हो गया हो ...
बहुत ही सुन्दर रचना, आभार.
ReplyDeleteअच्छी लगी ये गज़ल हर शेर सच्चाई से रुबरु कराता हुआ
ReplyDeleteजब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
ReplyDeleteअपना आंगन लगने लगता किसी और का।
बहुत खूब! बहुत सटीक और सुन्दर गज़ल..
जब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
ReplyDeleteअपना आंगन लगने लगता किसी और का।
वाह...कितनी खरी बात कही आपने....
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल...सभी शेर बेमिसाल...
बहुत दिनों के बाद कहीं से ख़त इक आया,
ReplyDeleteनाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।
वाह..क्या खूब लिखा है आपने।
बहुत अच्छी ग़ज़ल है। साधुवाद!
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!
महेंद्र जी!
ReplyDeleteग़ज़ल का हर शेर लाजवाब है, बहर इतनी दुरुस्त की मज़ा आ गया गुनगुनाने का.. एक शीतल बयार सी है यह ग़ज़ल!!
वर्मा जी,
ReplyDeleteआनंद!आनंद! आनंद!
आशीष
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लम्हा!!!
दरवाजे पर देख मुझे मायूस हुए वो,
ReplyDeleteशायद उनको इंतज़ार था किसी और का ...
Subhaan alla ... kya gaab ka sher hai ...Verma ji mazaa aa gaya ... Poori gazal bahut aasaan shabdon mein door ki baat kahti hai ...
पूरी ग़ज़ल लाजवाब..बेहद शानदार..आभार स्वीकार करें.
ReplyDelete'दोस्त हमारे कतराकर यूँ निकल गए
ReplyDeleteमेरा चेहरा समझा होगा किसी और का '
बेहतरीन शेर.....उम्दा ग़ज़ल
अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
ReplyDeleteशीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।
क्या बात है ....बहुत खूब ....!!
जब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
ReplyDeleteअपना आंगन लगने लगता किसी और का।
सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।
bahut sundar.
अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
ReplyDeleteशीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।
बहुत खुबसूरत रचना हर शब्द जैसे किसी मुजरिम की कहानी सुना रहा हो
वाह..क्या खूब लिखा है आपने।
ReplyDeleteबहुत अच्छी ग़ज़ल है।
बहुत सारी शुभ कामनाएं आपको !!
जब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
ReplyDeleteअपना आंगन लगने लगता किसी और का।
सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।
बहुत ही बढ़िया अंदाजे बयां.
सादगी में बहुत ताजगी है.
सलाम.