तिक्त हुए संबंध सभी मैं
व्यथित हुआ हूं,
नियति रूठ कर चली गई या,
भ्रमित हुआ हूं।
दुर्दिन में भी बांह छुड़ा कर
चल दे ऐसे,
मित्रों के अपकार भार से
नमित हुआ हूं।
क्षुद्रकाय तृण का बिखरा
साम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
अनुशीलन कर ग्रंथ सहस्त्रों
ज्ञात हुआ तब,
बुद्धि, विवेक, ज्ञान, कौशल से
रहित हुआ हूं।
-महेन्द्र वर्मा
क्षुद्रकाय तृण का बिखरा
ReplyDeleteसाम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
ये सभी अवस्थाएँ विनम्रता की ओर ले जाती हैं. बहुत सुदंर.
दुर्दिन में भी बांह छुड़ा कर
ReplyDeleteचल दे ऐसे,
मित्रों के अपकार भार से
नमित हुआ हूं।
मन की भावनाओं को संवेदनशील मन से लिखा है .
क्षुद्रकाय तृण का बिखरा
ReplyDeleteसाम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
लघुता बोध ही गुरुता की दिशा में मार्ग प्रशस्त करता है.शून्य ही पूर्ण है.
अति गूढ़ भाव .उच्च श्रेणी की कविता.तृप्त कर दिया आपने .
.
ReplyDeleteपतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं....
चकित तो मैं हूँ , आपके ह्रदय को मथ रहे प्रश्नों से। इतने सुन्दर , इतने सजग, इतने संवेदनशील ....
उम्दा !
अद्भुत !
.
क्षुद्रकाय तृण का बिखरा
ReplyDeleteसाम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
अनुशीलन कर ग्रंथ सहस्रों
ज्ञात हुआ तब,
बुद्धि, विवेक, ज्ञान, कौशल से
रहित हुआ हूं।
उम्दा .. लाजवाब... बहुत सुन्दर ...वाह ... जितनी तारीफ करूं कम है...
Simply beautiful !!
ReplyDeleteअनुशीलन कर ग्रंथ सहस्रों
ReplyDeleteज्ञात हुआ तब,
बुद्धि, विवेक, ज्ञान, कौशल से
रहित हुआ हूं।
बहुत ख़ूबसूरत...ख़ासतौर पर आख़िरी की पंक्तियाँ...
बेहतरीन शब्द सामर्थ्य युक्त इस रचना के लिए आभार !!
तिक्त हुए संबंध सभी मैं
ReplyDeleteव्यथित हुआ हूं,
नियति रूठ कर चली गई या,
भ्रमित हुआ हूं।
सारगर्भित रचना , बधाई
sarthak abhivyakti manobhavon ki .aabhar
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (13-6-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
'नियत रूठ कर चली गई या भ्रमित हुआ हूँ'- बढि़या लाइन। इसे पढ़कर जैनेन्द्र के 'भाग्य और पुरुषार्थ' निबन्ध में व्यक्त किये गये विचार याद आ गये। भाग्य तो वहीं है जैसे सूरज। जब हम सूरज की ओर उन्मुख होते हैं तो कहते हैं सूर्योदय हो गया, जब उससे विमुख होते हैं तो कहते हैं कि सूर्यास्त हो गया। वास्तव में भाग्य की ओर उन्मुख होना ही भाग्योदय है। बहुत अच्छी कविता ।
ReplyDeleteक्षुद्रकाय तृण का बिखरा
ReplyDeleteसाम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
sundar abhivyakti.
बहुत ही बढ़िया, मजा आ गया पढ़कर,
ReplyDeleteबधाई- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
क्षुद्रकाय तृण का बिखरा
ReplyDeleteसाम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
अनुशीलन कर ग्रंथ सहस्रों
ज्ञात हुआ तब,
बुद्धि, विवेक, ज्ञान, कौशल से
रहित हुआ हूं।
सुंदर ....अर्थपूर्ण पंक्तियाँ . ....
भाई महेंद्र जी अत्यधिक व्यस्तता के कारण देर से आया हूँ क्षमा कीजियेगा |सुंदर गीत बधाई |जुलाई से नियमित होने की सम्भावना है |
ReplyDeleteक्षुद्रकाय तृण का बिखरा
ReplyDeleteसाम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! बेहद ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना!
अभी बहुत कुछ है चकित होने के लिए। "सोते पर हो प्रहार, देखकर चकित हुआ हूँ"
ReplyDeleteअनुशीलन कर ग्रंथ सहस्रों
ReplyDeleteज्ञात हुआ तब,
बुद्धि, विवेक, ज्ञान, कौशल से
रहित हुआ हूं।
यही तो सच्चे ज्ञानी का निशानी है ... बहुत ही सुन्दर और अलग किस्म की रचना !
क्षुद्रकाय तृण का बिखरा
ReplyDeleteसाम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
बहुत सार्थक और सटीक प्रस्तुति...
अनुपम और यथार्थपरक कविता . आभार .
ReplyDelete@ अनुशीलन कर ग्रंथ सहस्रों
ReplyDeleteज्ञात हुआ तब,
बुद्धि, विवेक, ज्ञान, कौशल से
रहित हुआ हूं।
more I read, more I know that I knew nothing.
24 मात्राओं के संयोजन के साथ गूढ रहस्यों पर प्रकाश डालती छोटी सी, पर सही अर्थों में - सार्थक प्रस्तुति| बधाई मान्यवर|
ReplyDeleteगीत गेयात्मक्ता और भाव -विराग दोनों चकित करते हैं ,शिथलीकरण करतें हैं दिलो -दिमाग का .ऐसा ही तो है सामाजिक और राजनीतिक परिवेश -
ReplyDeleteछुद्र काय तृण का बिखरा साम्राज्य धरा पर ,
पतझर में भी हरा भरा क्यों चकित हुआ हूँ ।
सुन्दर मन भावन लुभावन गीत .
बहुत सार्थक और सटीक प्रस्तुति.
ReplyDeleteपतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
ReplyDeleteचकित हुआ हूं।
बहुत सार्थक और सटीक प्रस्तुति...
कुछ व्यक्तिगत कारणों से पिछले 15 दिनों से ब्लॉग से दूर था
ReplyDeleteइसी कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका !
भ्रमित होना, व्यथित होना ,कभी चकित होजाना यही जिन्दगी है।
ReplyDeleteतिक्त हुए संबंध सभी मैं
ReplyDeleteव्यथित हुआ हूं,
नियति रूठ कर चली गई या,
भ्रमित हुआ हूं...
जीवन की विभिन्न आयामों को एक साथ रख दिया है ... गेयातमान रचना ... लाजवाब ...
'पतझड़ में भी हरा भरा क्यों
ReplyDeleteचकित हुआ हूँ '
..................एक यक्ष प्रश्न सा खड़ी करती हैं ये पंक्तियाँ
....................व्याकुल मनोभावों की सार्थक रचना
तत्सम शब्दावली से युक्त अद्भुत रचना।
ReplyDelete---------
ब्लॉग समीक्षा की 20वीं कड़ी...
आई साइबोर्ग, नैतिकता की धज्जियाँ...
चकित तो नहीं हाँ! पुलकित अवश्य हो रही हूँ आप को पढ़कर..
ReplyDeleteसहज और सम्प्रेषण-युक्त कविता !
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