एक
उस दिन
आईने में मेरा प्रतिबिंब
कुछ ज्यादा ही अपना-सा लगा
मैंने उससे कहा-
तुम ही हो
मेरे सुख-दुख के साथी
मेरे अंतरंग मित्र !
प्रतिबिंब के उत्तर ने
मुझे अवाक् कर दिया
उसने कहा-
तुम भ्रम में हो
मैं ही तो हूँ
तुम्हारा
सबसे बड़ा शत्रु भी !
दो
इंसान को
इंसान ही रहने दो न
क्यूँ उकसाते हो उसे
बनने के लिए
भगवान या शैतान
अरे, धर्म !
अरी, राजनीति !
-महेन्द्र वर्मा
सटीक बात कही है दोनों रचनाओं में ...
ReplyDeleteसही कहा आपने इन्सान को इन्सान ही रहने दो दोनों कवितायेँ बहुत सुंदर अच्छी लगी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और सार्थक सन्देश देती हुई रचनाएँ ..
ReplyDeleteएक - बिल्कुल सही कहा आपने, आईना सदा सच बोलता है मगर हम भ्रम में रहते हैं.
ReplyDeleteदो - बहुत सटीक बात कही.
दूसरी रचना राह्जनीति पर करारा व्यंग्य है।
ReplyDeleteपहली रचना एक यथार्थ है। खुद के प्रतिबिम्ब से परिचय या मुलाक़ात हो जाए तो वह तो शत्रु लगेगा ही।
दोनो ही रचनाये बेहद गहन और सटीक्।
ReplyDeleteNice poetry
ReplyDeleteVery apt poems...
ReplyDeleteअच्छी कविता
ReplyDeleteइंसानी पक्ष को ख़ूबसूरती से पेश करती कवितायेँ!
ReplyDeleteबहुत सटीक और सार्थक सन्देश लिए कवितायेँ......
ReplyDeleteधर्म और राजनीति सबसे पहले इंसानियत का शिकार करते हैं. अपना प्रतिबिंब अपनी ही दृष्टि में मित्र और शत्रु होता है. बहुत खूब कहा है वर्मा जी.
ReplyDeleteछाई चर्चामंच पर, प्रस्तुति यह उत्कृष्ट |
ReplyDeleteसोमवार को बाचिये, पलटे आकर पृष्ट ||
charchamanch.blogspot.com
दोनों कवितायें अति अर्थ पूर्ण आधुनिक बिम्ब विधान समेटे .
ReplyDeleteमैं ही तो हूँ
ReplyDeleteतुम्हारा
सबसे बड़ा शत्रु भी !
वाह वाह सर... कितने पते की बात कही है....
दोनों ही क्षणिकाएं अद्भुत है...
सादर बधाई....
fully agreed sir !
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट आभार ! मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद।
ReplyDeleteइंसान को
ReplyDeleteइंसान ही रहने दो न
क्यूँ उकसाते हो उसे
बनने के लिए
भगवान या शैतान
अरे, धर्म !
अरी, राजनीति !
साधु-साधु
dono rachnayen bahut badhia ...
ReplyDeletesateek baat kahati hui ....
बढ़िया लिखा है.दोनों रचना बहुत अच्छी लगी. प्रभावी..
ReplyDeletebahut khoob ....
ReplyDeleteMahendr ji apni 10,12 kshnikayein sakshipt parichay aur tasveer bhej dein mujhe saraswati-suman ke liye .....
पहली कविता में छिपा है आईने का सच और दूसरे में जीवन का सच... एक बार दोनों कविताओं का मर्म समझ में आ जाए तो जीवन के प्रति दृष्टिकोण ही बदल जाए!!
ReplyDeleteदोनों ही सुंदर कवितायें !
ReplyDeleteआईने पर की कविता वाक़ई अचंभित कर गई। और दूसरी का 'अरे धर्म - अरी राजनीति' वाक्यांश अपने आप में एक सम्पूर्ण पुस्तक है। बधाई वर्मा जी।
ReplyDeleteतुम भ्रम में हो
ReplyDeleteमैं ही तो हूँ
तुम्हारा
सबसे बड़ा शत्रु भी !...
सच है अभिमान के रूप में यही तो होता है हमारा शत्रु
ReplyDelete♥
आदरणीय महेन्द्र वर्मा जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
बहुत प्रभावशाली कविताएं हैं
आत्म-साक्षात् कराती यह रचना चमत्कृत करती है , जब आईने में से प्रतिबिंब उत्तर देता है -
तुम भ्रम में हो
मैं ही तो हूं
तुम्हारा
सबसे बड़ा शत्रु भी !
…और इस अधिकार के साथ एक ईमानदार ही राजनीति को फटकार सकता है -
इंसान को
इंसान ही रहने दो न
क्यूं उकसाते हो उसे
बनने के लिए
भगवान या शैतान
अरे, धर्म !
अरी, राजनीति !
आपके यहां बहुत संतुष्टि मिलती है … रचना भले ही छंदबद्ध हो चाहे छदमुक्त ।
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
इंसान को
ReplyDeleteइंसान ही रहने दो न
क्यूँ उकसाते हो उसे
बनने के लिए
भगवान या शैतान
अरे, धर्म !
अरी, राजनीति !
bahut sundar..
insaan yadi insaan hi ban jaaye to bahut hai.
महेन्द्र जी नमस्कार, सुन्दर अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteइंसान को
ReplyDeleteइंसान ही रहने दो न
क्यूं उकसाते हो उसे
बनने के लिए
भगवान या शैतान.gahan abhivaykti.
जब तक इंसान रहेगा ये राजनीति उसे बाँट कर ही रहेगी ...
ReplyDeleteप्रतिबिम्ब के बेबाक उत्तर ने अचंभित कर दिया और इस रचना में छिपे आपके चिंतन ने आवाक !
ReplyDeleteअति सुन्दर !
बेहतरीन लिखा है,
ReplyDeletemujhe bhej dein ....
ReplyDeleteharkirathaqeer@gmail.com
बहुत रोचक और सुंदर प्रस्तुति.। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । धन्यवाद ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और रोचक अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteअरे, धर्म !
ReplyDeleteअरी, राजनीति !
बहूत ही अच्छे और सार्थक दोहे है...
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