भीड़ में अस्तित्व अपना खोजते देखे गए,
मौन थे जो आज तक वे चीखते देखे गए।
आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।
हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
सुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए।
रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।
लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।
बेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
काँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।
कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।
-महेन्द्र वर्मा
लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
ReplyDeleteऔर जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।
आधुनिक जीवन बोध से सीधा संवाद करती है यह ग़ज़ल.एक परिवेश खडा करती है पाठक के गिर्द .
रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
ReplyDeleteलोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।very nice.
आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ReplyDeleteऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।
हश्र तो यही होता ही है ऐसे लोगों का.अच्छा शेर है और बहुत बढ़िया ग़ज़ल है.
आपका पोस्ट अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट उपेंद्र नाथ अश्क पर आपके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।
ReplyDeleteमहेंद्र जी,!!!!!!बहुत सुंदर गजल लिखी आपने.
ReplyDeleteवाह!!!!!बेहतरीन
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बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteआभार !
कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
ReplyDeleteकाफिले को राह में ही लूटते देखे गए।
हर शेर उम्दा... एकदम जमीनी... मूल से सम्बद्ध...
आदरणीय महेंद्र सर, सादर बधाई स्वीकारें...
आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ReplyDeleteऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।
जड़ों से जुदा होकर जीवन चल नहीं सकता... चाहे वह कोई भी ज़िन्दगी हो... पेड़ की या इंसान की!
सार्थक सूक्तियों सी सुन्दर प्रस्तुति!
आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ReplyDeleteऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।
yahi sach hai...
लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
ReplyDeleteऔर जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।
hr ak sher lajbab ... ap to chhupe rustam nikale ....abhar verma ji.
कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
ReplyDeleteकाफिले को राह में ही लूटते देखे गए।
बहुत ही उम्दा गज़ल.
लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
ReplyDeleteऔर जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।
बहुत खूबसूरत गज़ल ..
यह शेर पढ़ कर रहीम जी का दोहा याद आ गया --
रहिमन निज मन की व्यथा , मन ही राखे गोय |
सुनी अठीलैहैं लोग सब , बाँट न लैहैं कोय ||
हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
ReplyDeleteसुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए ...
वाह महेंद्र जी ... लाजवाब गज़ल है ... और इस शेर के तो क्या कहने सुभान अल्ला ..
बहुत सुंदर ग़ज़ल है महेन्द्र जी, बधाई स्वीकारें
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ReplyDeleteबेशऊरी इस कदर बड़ती गई उनकी कि वे,
ReplyDeleteकाँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।
वर्मा साहब! हमें पहचान है नगीनों की.. वो नगीने जो सदा आपके दर से मिले हैं हमें!! शुक्रिया!
बेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
ReplyDeleteकाँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।
महेंद्र जी , बेहतरीन गज़ल है.हर शेर उम्दा, यह शेर खास तौर पे पसंद आया.
हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
ReplyDeleteसुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए।
aisa kya kiya aapne ...:))
रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।
bahut khoob ....!!
Bahut khoob .
ReplyDeleteBahut khoob .
ReplyDeleteबिलकुल जीवन की सत्यता को उजागर करती पोस्ट.... सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteआधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ReplyDeleteऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।
महेंद्र जी,बहुत सुंदर
वर्मा जी! आज तो आप चुटकी-तमाचा ...थप्पड़-घूँसा ...तोप-तमंचा सब चला रहे हैं .....
ReplyDeleteहीर जी ने कितनी मासूमियत से पूछा है "ऐसा क्या किया आपने?"
ReplyDeleteमगर वर्मा जी ! अभी तक ज़वाब नहीं दिया आपने?
लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
ReplyDeleteऔर जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।
बहुत सुन्दर...सभी रचनाएँ बहुत अच्छी हैं|
Charcha manch pr aj fir apki gazal padhi aur bar bar padhane ki echha hai ... abhar .
ReplyDeleteव्यथा को सुन्दर व सार्थक शब्द दिये हैं आपने ।
ReplyDeleteएक-एक नुक्ता,काबिले-तारीफ़.
ReplyDeleteबहुत अच्छी ग़ज़ल .बारहा पढने को ललचाती सी .
ReplyDeleteबेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
ReplyDeleteकाँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।
बढ़िया हर पंक्ति सुंदर .....
bahooot bahoot aur bahoot khoob likha janab har sher ko dheron daad.
ReplyDeleteअच्छा लिखा है...आधुनिकता के क्या नुक्सान हैं...उसको दर्शाती गज़ल.
ReplyDeleteरूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
ReplyDeleteलोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।
कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।
सभी अशआर में नया रंग. खूबसूरत ग़ज़ल.
शानदार ग़ज़ल महेंद्र जी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...
ReplyDeleteसच्ची बातें..अच्छी गज़ल..
आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ReplyDeleteऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।
...बहुत खूब! आज के यथार्थ को चित्रित करती बहुत ख़ूबसूरत गज़ल ...
नया साल मुबारक ...
ReplyDeleteनव वर्ष शुभ और मंगलमय हो |
ReplyDeleteआशा
अति सुन्दर लाजबाब प्रस्तुति है आपकी.
ReplyDeleteमहेंद्र जी, आपसे ब्लॉग जगत में परिचय होना मेरे लिए परम सौभाग्य
की बात है.बहुत कुछ सीखा और जाना है आपसे.इस माने में वर्ष
२०११ मेरे लिए बहुत शुभ और अच्छा रहा.
मैं दुआ और कामना करता हूँ की आनेवाला नववर्ष आपके हमारे जीवन
में नित खुशहाली और मंगलकारी सन्देश लेकर आये.
नववर्ष की आपको बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ.
सुंदर अभिव्यक्ति बेहतरीन गजल ,.....
ReplyDeleteनया साल सुखद एवं मंगलमय हो,....
मेरी नई पोस्ट --"नये साल की खुशी मनाएं"--
नव वर्ष मंगलमय हो,हार्दिक शुभकामनाएँ!!
ReplyDeleteबहूत हि शानदार गजल है ..
ReplyDeleteहर पंक्ती बेहतरीन है....