शब्दों से बिंधे घाव
उम्र भर छले,
आस-श्वास पीर-धीर
मिल रहे गले।
सुधियों के दर्पण में
अलसाये-से साये,
शुष्क हुए अधरों ने
मूक छंद फिर गाए,
हृद के नेहांचल में
स्वप्न-सा पले।
उज्ज्वल हो प्रात-सा
युग का नव संस्करण,
चिंतन के सागर में
सुलझन का अवतरण,
रावण के संग-संग
कलुष सब जले।
-महेन्द्र वर्मा
सुंदर भाव ...अच्छी सोच !
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!
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ReplyDeleteबढ़िया नवगीत |
ReplyDeleteबधाई महेंद्र भाई जी ||
बढिया, बहुत सुंदर
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteआपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 22-10-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1040 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ
वाह...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर नवगीत...
सादर
अनु
अति प्रवाहमयी रचना..
ReplyDeleteशब्दों से बिंधे घाव
ReplyDeleteउम्र भर छले,
आस-श्वास पीर-धीर
मिल रहे गले।
बहुत ही सुन्दर भावों की लड़ी
बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteआस-श्वास पीर-धीर..
ReplyDeleteयह पंक्ति बहुत अच्छी लगी
और नवगीत बहुत ही बढ़िया भावों को लिए हुए
उज्ज्वल हो प्रात-सा
ReplyDeleteयुग का नव संस्करण,
चिंतन के सागर में
सुलझन का अवतरण,
रावण के संग-संग
कलुष सब जले।
नव गीत नव बयार लेकर आया है .तंज भी सकारात्मक भाव भी लिए आया है यह गीत नव आस भी ,उजास भी .बधाई .
bahut badhiya .....
ReplyDeleteनवगीत की यह छटा अच्छी लगी.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर नवगीत
ReplyDeleteसुंदर....
:-)
बढ़िया ज़मीन तोड़ी है नवगीत की आभार आपकी द्रुत टिपण्णी का .
ReplyDeleteबढ़िया ज़मीन तोड़ी है नवगीत की आभार आपकी द्रुत टिपण्णी का .
ReplyDeleteसुन्दर गीत दशहरे की हार्दिक शुभकामनायें |
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना ..... बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteकृपया आप इसे अवश्य देखें और अपनी अनमोल टिप्पणी दें
यात्रा-वृत्तान्त विधा को केन्द्र में रखकर प्रसिद्ध कवि, यात्री और ब्लॉग-यात्रा-वृत्तान्त लेखक डॉ. विजय कुमार शुक्ल ‘विजय’ से लिया गया एक साक्षात्कार
Virendra Kumar Sharma said...
ReplyDeleteहास्य
हार गया तो क्या हुआ, टेंशन गोली मार।
कोचिंग सेंटर खोल ले, सिखला भ्रष्टाचार।।
......महेंद्र वर्मा जी .
कभी अकेला ना रहूं, मेरा अपना ढंग।
घिरा हुआ एकांत से, सन्नाटों के संग।।
सीख
संगति उनकी कीजिए, जिनका हृदय पवित्र।
कभी-कभी एकांत ही, सबसे उत्तम मित्र।।
बहुत बढ़िया नीति और सीख पढ़ाते दोहे .दोहों में गद्य की तरह विस्तार की गुंजाइश नहीं रहती ,कम शब्दों में एक परिवेश एक भाव ,एक मानसिक कुन्हासा उड़ेलना होता है ,महेंद्र जी के दोहे इस कसौटी पर खरे उतरते हैं .
Tue Oct 23, 06:55:00 PM 2012
ram ram bhai
मुखपृष्ठ
मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012
गेस्ट पोस्ट ,गज़ल :आईने की मार भी क्या मार है
http://veerubhai1947.blogspot.com/
उज्ज्वल हो प्रात-सा
ReplyDeleteयुग का नव संस्करण,
चिंतन के सागर में
सुलझन का अवतरण,
रावण के संग-संग
कलुष सब जले।
यही तो दिक्कत है ,रावण लीला से तंत्र लोक फले ,जन मन को नित नित छले .बढिया नवगीत अपनी अलग धाक लिए लायें हैं आप .
ram ram bhai
मुखपृष्ठ
मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012
गेस्ट पोस्ट ,गज़ल :आईने की मार भी क्या मार है
http://veerubhai1947.blogspot.com/
रावण के संग-संग
ReplyDeleteकलुष सब जले...
लाजवाब म बहुत शानदार रचना के लिए बधाई ।
प्रतीकात्मक रावण दहन के पीछे उद्देश्य तो यही रहा होगा लेकिन हम उत्सवप्रेमियों ने पुतले जलाना ही उद्देश्य मान लिया।
ReplyDeleteतदापि विजयादशमी पर्व की हार्दिन बधाई।
रावण के संग संग कलुष सब जले । तथास्तु ।
ReplyDeleteविजया दशमी पर शुभेच्छाएं ।
दशहरा मुबारक भाई साहब !
ReplyDeleteनवगीत के माध्यम से जो सन्देश आपने दिया है वह हम तक पहुंचा.. शुभकामनाएँ!!
ReplyDeleteअच्छी एवं भावमय कविता । मेरे नए पोस्ट पर पधारें।
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति ...सार्थक संदेश देती रचना
ReplyDeleteसुधियों के दर्पण में
ReplyDeleteअलसाये-से साये,
शुष्क हुए अधरों ने
मूक छंद फिर गाए,
...बहुत भावपूर्ण सुन्दर रचना..
रावण के संग-संग
ReplyDeleteकलुष सब जले।
सच्ची कामना. सुंदर प्रस्तुति.
बहुत सुंदर गीत.
ReplyDeleteअद्भुत नवगीत!
ReplyDeleteमूक छंद फिर गाए,
इस प्रयोग ने मन को छुआ।
lajbab prastuti sir .....abhar .
ReplyDeletebahut sundar navgeet..
ReplyDeleteचिंतन के सागर में
ReplyDeleteसुलझन का अवतरण,
रावण के संग-संग
कलुष सब जले।
बहुत सुंदर नवगीत ।
वाह बहुत युंदर रचना है
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