एकमात्र सत्य हो
तुम ही
तुम्हारे अतिरिक्त
नहीं है अस्तित्व
किसी और का
सृजन और संहार
तुम्ही से है
फिर भी
कोई जानना नहीं चाहता
तुम्हारे बारे में !
कोई तुम्हें
याद नहीं करता
आराधना नहीं करता
कोई भी तुम्हारी
कितने उपेक्षित-से
हो गए हो तुम
पहले तो
ऐसा नहीं था !!
भले ही तुम
सुख-दुख से परे हो
किंतु,
मैं तुम्हारा दुख
समझ सकता हूं
ऐ ब्रह्म !!!
-महेन्द्र वर्मा
कोई तुम्हें
ReplyDeleteयाद नहीं करता
आराधना नहीं करता
कोई भी तुम्हारी
कितने उपेक्षित-से
हो गए हो तुम
पहले तो
ऐसा नहीं था !!
bilkul yatharth ......lajbab prastuti ke liye sadar abhar Verma ji .
गहन अभिव्यक्ति ....!!
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteसुन्दर एवं गहन रचना....
सादर
अनु
गहन भावों से भरी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया भाई जी -
ReplyDeleteशिक्षा के कारण आजकल हर बात, हर अवधारणा, हर प्रत्यक्ष-परोक्ष चीज़ सवालों के तहत आ गई है. आपकी कविता इसे बखूबी कह गई है.
ReplyDeleteबहुत उत्कृष्ट गहन रचना,,,बधाई
ReplyDeleterecent post : प्यार न भूले,,,
हुई हकीकत खोखली, विकल आत्मा व्यस्त |
ReplyDeleteसमय नहीं आकलन का, मनुज देह भी मस्त |
मनुज देह भी मस्त, धर्म की धीमी धड़कन |
परम ब्रह्म को भूल, दिखाती रहे अकड़पन |
बचा ब्रह्म अस्तित्त्व, नहीं तो होगी दिक्कत |
वंचक दें उपदेश, गालियाँ हुई हकीकत ||
ReplyDeleteबहुत सराहनीय प्रस्तुति.
ब्रह्म का दुख .... सब अपने ही दुख से परेशान होते रहते हैं ... गहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteगहन भाव लिये बहुत ही उत्कृष्ट अभिव्यक्ति
ReplyDeleteभाई साहब अब गली गली भगवान् हो गए हैं .ऐसा तो होना ही था .भाह्वान श्री कोयला जी संसद में बैठे हैं .कुछ तिहाड़ में हैं अपनी महिमा के चलते .
ReplyDeleteभाई साहब अब गली गली भगवान् हो गए हैं .ऐसा तो होना ही था .भगवान श्री कोयला जी संसद में बैठे हैं .कुछ तिहाड़ में हैं अपनी महिमा के चलते .
ReplyDeleteकोई बहुत बड़ा दुःख ही व्यक्ति को , सुख दुःख से परे कर देता है , लेकिन समझने वाले उसकी हंसी में भी झिलमिलाते आंसुओं को पढ़ लेते हैं !
ReplyDeleteगहन भाव लिए अति उत्तम रचना..
ReplyDeleteभले ही तुम
सुख-दुख से परे हो
किंतु,
मैं तुम्हारा दुख
समझ सकता हूं
ऐ ब्रह्म !!!
कमाल की संवेदनशीलता !
वाऽह ! क्या बात है !
बेहतरीन !
महेन्द्र वर्मा जी
व्यापक दृष्टिकोण से उत्पन्न भाव और ओजपूर्ण शब्द !
सुंदर और सार्थक रचना !
…आपकी लेखनी से श्रेष्ठ रचनाओं का सृजन ऐसे ही होता रहे …
शुभकामनाओं सहित…
आपका इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (24-11-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
शब्द ब्रह्म....
ReplyDeleteअच्छी रचना
इतने डूबे हैं सब कि अपने कि अपने से बाहर निकल ही नहीं पाते !
ReplyDeleteकितने उपेक्षित-से
ReplyDeleteहो गए हो तुम
पहले तो
ऐसा नहीं था !!
भले ही तुम
सुख-दुख से परे हो
किंतु,
मैं तुम्हारा दुख
समझ सकता हूं
ऐ ब्रह्म !!!
वाह
बहुत बढ़िया रचना । बहुत गहरे भाव लिए ।
ReplyDeleteमेरी नई पोस्ट-गुमशुदा
एक सच्चा हृदय अपने से छोटे-बड़े सभी के दुख क्लेश की चिंता करता है।
ReplyDeleteबहुत गहन सोच की अभिव्यक्ति बहुत बहुत बधाई आपको
ReplyDeleteदार्शनिक विचारों से ओत -प्रोत सुन्दर कविता |भाई महेंद्र जी आभार |
ReplyDeleteयाद तो करते हैं सब पर मुसीबत में ।
ReplyDeleteब्रह्म को उपेक्षित कर ही नही सकते हम, स्वयं ही उपेक्षित हो जाते हैं ।
गहरे भाव ।
महेंद्र सा.
ReplyDeleteआज मैं कुछ नहीं कहूँगा.. मेरे बदले गुलज़ार साहब बताएँगे कि ये हाल क्यों है:
चिपचिपे दूध से नहलाते हैं
आंगन में खड़ा कर के तुम्हें ।
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुंढाते हैं गिलसियां भर के
औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पांव पर पांव लगाये खड़े रहते हो
इक पथरायी सी मुस्कान लिये
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी ।
जब धुआं देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम,
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो ।
कितने उपेक्षित-से
ReplyDeleteहो गए हो तुम
पहले तो
ऐसा नहीं था !!
भले ही तुम
सुख-दुख से परे हो
किंतु,
मैं तुम्हारा दुख
समझ सकता हूं
ऐ ब्रह्म !!!
param saty
सुंदर सर .....सच ही तो कहा आपने ।
ReplyDeleteभले ही तुम
ReplyDeleteसुख-दुख से परे हो
किंतु,
मैं तुम्हारा दुख
समझ सकता हूं
ऐ ब्रह्म !!!
...लाजवाब अहसास...बहुत गहन और सुंदर अभिव्यक्ति...
behatarin abhivyakti.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteआप मेरे ब्लॉग पर आएं..एक योजना है उसे पढ़े और अवगत कराएं....
सृष्टि निर्माता की भी अपनी मजबूरियां हो सकती हैं।आपका चिंतन सटीक है।
ReplyDeletewah ...kya bat hai ..
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