श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है और किसी अलौकिक शक्ति के प्रति भी। दोनों में सम्मान और विश्वास का भाव निहित होता है।
किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा की दो स्थितियां हो सकती हैं। प्रथम, लौकिक श्रद्धा- जब श्रद्धालु को यह विश्वास हो जाता है कि श्रद्धेय ने उसके लिए लौकिक कार्यों में निस्स्वार्थ भाव से लौकिक रीति से उपकार किया है। इस विश्वास के संदर्भ में श्रद्धालु के पास पर्याप्त तर्क होते हैं जिसके आधार पर विश्वास की पुष्टि की जा सकती है। ऐसे श्रद्धेय व्यक्ति समाज-परिवार के उपकारी, विद्वान, गुणी व्यक्ति होते हैं।
द्वितीय, अलौकिक श्रद्धा-जब श्रद्धालु को यह विश्वास हो जाता है कि श्रद्धेय ने उसके लौकिक-अलौकिक कार्यों में अलौकिक रीति से उपकार किया है। इस विश्वास के संदर्भ में भी श्रद्धालु के पास पर्याप्त तर्क हो सकते हैं। लेकिन इन तर्कों के आधार पर विश्वास की पुष्टि नहीं की जा सकती। इस श्रेणी के श्रद्धेय व्यक्ति स्वयं को किसी अलौकिक शक्ति का प्रतिनिधि मानते हैं या समूह विशेष के द्वारा मान लिए जाते हैं।
उक्त दोनों स्थितियों के ‘विश्वास‘ में अंतर है। पहली स्थिति के ‘विश्वास‘ की पुष्टि तथ्य और तर्क के द्वारा की जा सकती है। किंतु दूसरी स्थिति के ‘विश्वास‘ की पुष्टि के लिए ऐसे तथ्य प्रस्तुत किए जाते हैं जिसकी पुष्टि तर्क के द्वारा नहीं की जा सकती। रोचक बात यह है कि दूसरी स्थिति का ‘विश्वास‘ प्रमाणित न होने पर भी ‘दृढ विश्वास‘ में बदल जाता है। पह़ली स्थिति के ‘विश्वास‘ को प्रमाणित होने के बावजूद कोई ‘दृढ़ विश्वास‘ नहीं कहता।
प्रमाणित न होने पर भी विश्वास करना सामान्य मनोदशा का कार्य नहीं है। मन की विशेष दशा में ही ऐसा संभव है जिसे विभ्रम hallucination कहते हैं। यद्यपि विभ्रमजनित यह विश्वास भी अधिकांश लोगों के लिए लाभकारी होता है।
श्रद्धा और विश्वास समानुपाती होते हैं, विशेषकर तब, जब विश्वास विभ्रम से उत्पन्न हो। लेकिन ‘विभ्रमित विश्वास से उत्पन्न श्रद्धा‘ और तर्क व्युत्क्रमानुपाती होते हैं। जैसे-जैसे तर्क में कमी होगी, श्रद्धा बढ़ती जाएगी। गणितीय ढंग से कहें तो तर्क के शून्य होने पर श्रद्धा अनंत होगी और श्रद्धा के शून्य होने पर तर्क अनंत होगे।
प्रकृति की घटनाओं का अध्ययन-विश्लेषण करने वालों की विभ्रमित श्रद्धा का शून्य होना आवश्यक है। इसी प्रकार अलौकिक शक्तियों के प्रति श्रद्धा रखने वाले स्वयं को तर्क से दूर रखते हैं।
श्रद्धा और तर्क दो अलग-अलग नाव हैं, दोनों में पांव रखने से डूबना निश्चित है।
-महेन्द्र वर्मा
वर्मा सा.
ReplyDeleteआपकी बातें सदा तर्कसंगत और इतने सहज रूप में अभिव्यक्त होती हैं कि सन्देह की कोई सम्भावना नहीं रहती. श्रद्धा और विश्वास ऐसी मानसिक अवस्थाएँ हैं, जो समाज का एक अविभाज्य अंग हैं और समाज के साथ ही समानांतर रूप से विकसित होती रहती हैं.
इसके विषय में बस एक ही तर्क पर्याप्त है:जिन्हें विश्वास/श्रद्धा है उनके लिये कोई तर्क आवश्यक नहीं.
जिन्हें अश्रद्धा/अविश्वास है उनके लिये कोई भी तर्क पर्याप्त नहीं!
सामयिक आलेख!
विचारणीय और अर्थपूर्ण बिंदु लिए पोस्ट
ReplyDeleteअपनी अपनी जगह पर दोनों ही मानी हैं ...
ReplyDeleteविचार करती पोस्ट ...
तर्क प्रमाण चाहता है और श्रध्दा विश्वास । सुंदर आलेख।
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