ठिठके-से तारों की ऊँघती लड़ी,
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
होनी के हाथों में जकड़न-सी आई
सूरज की किरणों को ठंडक क्यों भाई,
झींगुर को फाँस रही नन्ही मकड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
पश्चिम के माथे पर सुकवा की बिंदी,
आलिंगन को आतुर गंगा कालिंदी
संध्या नक्षत्रों की खोलती कड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
वर्तुल में घूमता है सप्तर्षि मन,
चंदा की जुगनू से कैसी अनबन,
सर्पिल नीहारिका में दृष्टि जा गड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
-महेन्द्र वर्मा
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
होनी के हाथों में जकड़न-सी आई
सूरज की किरणों को ठंडक क्यों भाई,
झींगुर को फाँस रही नन्ही मकड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
पश्चिम के माथे पर सुकवा की बिंदी,
आलिंगन को आतुर गंगा कालिंदी
संध्या नक्षत्रों की खोलती कड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
वर्तुल में घूमता है सप्तर्षि मन,
चंदा की जुगनू से कैसी अनबन,
सर्पिल नीहारिका में दृष्टि जा गड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
-महेन्द्र वर्मा
सुंदर गीत
ReplyDeleteवर्मा सा. आज आपकी सृष्टि की घड़ी ने बच्चन जी की सोन मछरी की याद दिला दी! आपकी कविताएँ, गीत या गज़ल अपनी अलग पहचान रखते हैं और यह गीत किसी भी संगीतकार के सुरों को छूकर कंचन बना सकने का सामर्थ्य रखता है! प्रणाम स्वीकारें!
ReplyDeleteअति सुन्दर सृजन.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना !
ReplyDelete: शम्भू -निशम्भु बध --भाग १
बहुत ही सुन्दर गीत्। स्वयं शून्य
ReplyDeleteवाह महेन्द्र जी आपने संपूर्ण जीवन को कुछ शब्दों में ही कह दिया। हर आयाम को छू लिया। हर बात कह दिया। शायद इसी को गागर में सागर कहते हैं। बहुत खुब। भाषा की शुद्धता भी प्रशंसनीय है। स्वयं शून्य
ReplyDeleteपथराई लगती है सृष्टि की घडी.......
ReplyDeleteउम्दा पंक्तियाँ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत .... नव सृजन शब्दों का ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसर्पिल नीहारिका में दृष्टि जा गड़ी।
ReplyDeleteपथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
......उम्दा पंक्तियाँ बहुत सुन्दर गीत...महेन्द्र वर्मा जी
मजा आ गया
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteविजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें!
जिस अवस्था में आपने यह गीत लिखा है वहाँ समय ठहरा सा दिखता है. बहुत सुंदर गीत.
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