धूप गरीबी झेलती, बढ़ा ताप का भाव,
ठिठुर रहा आकाश है,ढूँढ़े सूर्य अलाव ।
रात रो रही रात भर, अपनी आंखें मूँद,
पीर सहेजा फूल ने, बूँद-बूँद फिर बूँद ।
सूरज हमने क्या किया, क्यों करता परिहास,
धुआँ-धुआँ सी जि़ंदगी, धुंध-धुंध विश्वास ।
मानसून की मृत्यु से, पर्वत है हैरान,
दुखी घाटियाँ ओढ़तीं, श्वेत वसन परिधान ।
कितनी निठुरा हो गई, आज पूस की रात,
नींद राह तकती रही, सपनों की बारात ।
उम्र नहीं अब देखती, छोटी चादर माप,
मन को ऊर्जा दे रहा, जीवन का संताप ।
बुझी अँगीठी देखती, मुखिया बेपरवाह,
परिजन हुए विमूढ़-से, वाह करें या आह । -महेन्द्र वर्मा
बहुत ही सुंदर रचना।
ReplyDeleteछवियोंं की विविधता में अनुभूतियों की विराटता को समोना आप ही कर सकते हैं. बहुत खूब.
ReplyDeleteउम्दा पंक्तियाँ
ReplyDeleteवाह..बहुत सुन्दर और रोचक दोहे...
ReplyDeleteअद्भुत बिम्ब संयोजन .....
ReplyDeleteबेहद भावपूर्ण दोहे, बधाई.
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली दोहे......बहुत बहुत बधाई.....
ReplyDeleteसुन्दर व सार्थक रचना...
ReplyDeleteनववर्ष मंगलमय हो।
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
वाह! लाजवाब!
ReplyDeleteसुन्दर और रोचक दोहे...
ReplyDeleteअनुपम !
ReplyDeleteबहुत कमाल के दोने .. अनेक जीवन के रंग समेटे हुए ... बेहतरीन ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर दोहे
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