सच को कारावास अभी भी,
भ्रम पर सबकी आस अभी भी ।
पानी ही पानी दिखता पर,
मृग आँखों में प्यास अभी भी ।
मन का मनका फेर कह रहा,
खड़ा कबीरा पास अभी भी ।
बुद्धि विवेक ज्ञान को वे सब,
देते हैं संत्रास अभी भी ।
जीवन लय को साध रहे हैं,
श्वासों का अनुप्रास अभी भी ।
पाने का आभास क्षणिक था,
खोने का अहसास अभी भी ।
पंख हौसलों के ना कटते,
उड़ने का उल्लास अभी भी ।
-महेन्द्र वर्मा
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 27 अप्रैल 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDelete"पंख हौसलों के न कटते,
ReplyDeleteउड़ने का उल्लास अभी भी"
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआपकी कविता के घोड़े दुलकी चाल से दिल में प्रवेश कर जाते हैं.
ReplyDeleteबुद्धि विवेक ज्ञान को वे सब,
देते हैं संत्रास अभी भी ।
जीवन लय को साध रहे हैं,
श्वासों का अनुप्रास अभी भी ।
अनुप्रास श्वासों को साधता है यह गहन फलसफा है.
Bahut sunder
ReplyDeleteवाह ।।बहुत ही सुन्दर ..।
ReplyDeleteवाह ।।बहुत ही सुन्दर ..।
ReplyDeleteश्वासों के अनुप्रास बहुत ही अच्छी रचना बन पड़ी है। प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार।
ReplyDeleteवाह ... बहुत ही मधुर गजाली है .... लाजवाब ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर। आपकी रचना की अंतिम पंक्तियों को पढ़कर अपनी एक ग़ज़ल की कुछ पंक्तियां याद आ गईं जिन्हें यहॉं उद्धृत करना चाहूँगा -
ReplyDeleteपरों ने छोड़ दिया फड़फड़ाना पिंजरे में, मैं बेकरार हूँ अब भी उड़ान रखता हूँ।
पाने का आभास क्षणिक था,
ReplyDeleteखोने का अहसास अभी भी ।
...वाह्ह्ह..बहुत सुन्दर
पंख हौसलों के ना कटते,
ReplyDeleteउड़ने का उल्लास अभी भी ।
बहुत सुंदर, और श्वासों का अनुप्रास कमाल की कल्पना।