चींटी के पग





सहमी-सी है झील शिकारे बहुत हुए,
और उधर तट पर मछुवारे बहुत हुए ।

चाँद सरीखा कुछ तो टाँगो टहनी पर,
जलते-बुझते जुगनू तारे बहुत हुए ।

चींटी के पग नेउर को भी सुनता हूँ,,
ढोल मँजीरे औ’जयकारे बहुत हुए ।

आओ अब मतलब की बातें भी  कर लें,
जुमले वादे भाषण नारे बहुत हुए ।

कुदरत यूँ ही ख़फ़ा नहीं होती हमसे,
समझाने के लिए इशारे बहुत हुए ।

-महेन्द्र वर्मा

7 comments:

  1. वाह वाह - अति सुंदर

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  2. इंसान ने वातावरण को ऐसा बना लिया है कि शोर बहुत चलता रहता है और मुद्दा खो जाता है. जो करना चाहिए वह बहुत पीछे छूट रहा है या कहें कि बहुत ही पीछे छूट चुका है.

    आओ अब मतलब की बातें भी कर लें,
    जुमले वादे भाषण नारे बहुत हुए।
    कुदरत यूँ ही ख़फ़ा नहीं होती हमसे,
    समझाने के लिए इशारे बहुत हुए।

    हर पंक्ति ज़िंदा अहसास है.

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  3. चाँद सरीखा कुछ तो टाँगो टहनी पर,
    जलते-बुझते जुगनू तारे बहुत हुए ।
    ....वाह्ह्ह्ह...क्या खूब कहा है...लाज़वाब प्रस्तुति..

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  4. कुदरत यूँ ही ख़फ़ा नहीं होती हमसे,
    समझाने के लिए इशारे बहुत हुए ।

    सुंदर सी गज़ल में पर्यावरण संकट का भी जिक्र बहुत बढिया।

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  5. सच है कुदरत का इशारा समझने में ही भलाई होती है ... नहीं तो विनाश झेला नहीं जाता ...

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