सावन शेष रहे ।
सूरज अवसादित हो बैठा
ऋतुओं में अनबन,
नदिया पर्वत सागर रूठे
पवनों में जकड़न,
जो हो, बस आशा.ऊर्जा का
दामन शेष रहे ।
मौन हुए सब पंख पखेरू
झरनों का कलकल,
नीरवता को भंग कर रहा
कोई कोलाहल,
जो हो, संवादी सुर में अब
गायन शेष रहे ।
-महेन्द्र वर्मा
पहली बार आपके ब्लॉग पर, आपका नवगीत पढने का सुयोग हुआ. नवभावों के साठ यह नवगीत एक नूतन आनन्द प्रदान कर रहा है!बहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अनुभूति देता है ये नवगीत ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभियक्ति
ReplyDeleteबहुत सुंदर गीत. जो सुंदर है सो रहे, ऊर्जा-आशा का संचार होता रहे.
ReplyDeleteसात्विक सार्थक सन्देश से परिपूर्ण नवगीत आदरणीय बहुत सुन्दर
ReplyDeleteएकदम छायावादी कविता है महेंद्र जी. ऐसी कविताएँ शायद ही लिखी जाती हों. आपकी कविता पढ़ कर छायावादी कवियों की याद हो आई.
ReplyDeleteशेष रहे ये गायन सदैव ...
ReplyDeleteसंवादी सुरों का गायन शेष रहे बहुत सुन्दर
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