नवगीत



कुछ दाने, कुछ मिट्टी किंचित
सावन शेष रहे ।

सूरज अवसादित हो बैठा
ऋतुओं में अनबन,
नदिया पर्वत सागर रूठे
पवनों में जकड़न,

जो हो, बस आशा.ऊर्जा का
दामन शेष रहे ।

मौन हुए सब पंख पखेरू
झरनों का कलकल,
नीरवता को भंग कर रहा
कोई कोलाहल,

जो हो, संवादी सुर में अब
गायन शेष रहे । 

-
महेन्द्र वर्मा

8 comments:

  1. पहली बार आपके ब्लॉग पर, आपका नवगीत पढने का सुयोग हुआ. नवभावों के साठ यह नवगीत एक नूतन आनन्द प्रदान कर रहा है!बहुत सुन्दर!!

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  2. बहुत सुन्दर अनुभूति देता है ये नवगीत ...

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  3. बहुत सुन्दर अभियक्ति

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  4. बहुत सुंदर गीत. जो सुंदर है सो रहे, ऊर्जा-आशा का संचार होता रहे.

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  5. सात्विक सार्थक सन्देश से परिपूर्ण नवगीत आदरणीय बहुत सुन्दर

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  6. एकदम छायावादी कविता है महेंद्र जी. ऐसी कविताएँ शायद ही लिखी जाती हों. आपकी कविता पढ़ कर छायावादी कवियों की याद हो आई.

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  7. शेष रहे ये गायन सदैव ...

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  8. संवादी सुरों का गायन शेष रहे बहुत सुन्दर

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