छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का सामाजिक संदर्भ

 


लोकसंस्कृति को जानने-समझने का प्रमुख जरिया लोकसाहित्य  है। लोकसाहित्य का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितनी कि मानवजाति। लोक मानस की अभिव्यक्ति का एक माध्यम वह गेय रचना-साहित्य है जिसमें लोक जीवन के अनुभूत चित्र अपने सरलतम और नैसर्गिक रूप में मिलते हैं। लोक के लिए, लोक में प्रचलित, लोक मन के द्वारा सृजित गीत ‘लोकगीत’ कहलाते हैं। लोकमन के हृदय से प्रस्फुटित होकर स्मृति के सहारे जीवित रहने वाला लोकसाहित्य अनेक कण्ठों से गुजरता हुआ सर्वमान्य लोक-स्वीकृत, लोक-व्यवहृत रूप पा लेता है। अनेकानेक के सान्निध्य से गुज़रते हुए भी सामाजिक एकता की भावना से ओत-प्रोत लोक-साहित्य जन-जन को जोड़ने की क्षमता रखता है। कहा जाता है कि लोक संस्कृति की आत्मा लोकगीतों में बसती है इसलिये लोकगीत लोक संस्कृति के सच्चे संवाहक माने जाते है और इसी कारण लोक गीतों को सामाजिक चेतना का प्रहरी कहा जा सकता है। लोकसाहित्य का सामाजिक मूल्यों के पोषण में सदैव ही अविस्मरणीय योगदान रहा है। लोकसाहित्य के प्राणतत्त्व ‘लोकगीत’ का इस क्षेत्र में विशिष्ट योगदान रहा है। लोकगीतों की इन
विशिष्टताओं के संदर्भ में छत्तीसगढ़ के लोकगीत भी समृद्ध हैं ।
 


छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में जन-मानस विविध रंगों में प्रतिबिंबित होता है। इन लोकगीतों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि गीत लोक द्वारा निर्मित होने पर भी इसे किसी व्यक्ति विशेष से जोड़ा नहीं जाता है इन में वसुधैव कुटुम्बकम् की धारणा समाहित रहती है । खेत-खलिहानों में गाया जाने वाला ददरिया हो या उत्सवों में गाया जाने वाला पंथी हो, शिशु के जन्म के अवसर पर गाया जाने वाला सोहर हो या विवाह के अवसर पर गाया जाने वाला भड़ौनी-गीत हो, ये सभी लोकगीत सामाजिक जीवन को अपने में समेटे हुए हैं और सामाजिक मूल्यों के पोषण में विशिष्ट भूमिका निभाते हैं। आइए, छत्तीसगढ के लोकगीतों के कुछ उदाहरणों में देखें कि कैसे ये गीत लोकजीवन की परंपराएँ, प्रथाएँ, रीति-रिवाज, संस्कृति, इतिहास, दर्शन और अध्यात्म को समाहित कर, सामाजिक मूल्यों के पोषण में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं।
 

छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में विवाह संस्कार के गीतों का विशिष्ट स्थान है । विवाह एक सामाजिक उत्सव है जिसमें न केवल परिवार-जनों की बल्कि गाँव-समाज के विभिन्न वर्गों की महत्वपूर्ण सहभागिता होती है । समाज में अपनापन और एकता की भावना का चित्रण विवाह गीतों में देखा जा सकता है । विभिन्न व्यवसाय वाले लागों की सहभागिता को सम्मान देने के लिए तेल-हल्दी चढ़ाने के समय गाए जाने वाले इस विवाह गीतमें वर्णित प्रश्नोत्तर  देखिए- ऐ हल्दी, तुम्हारा जन्म कहां हुआ है और तुम्हारा अवतार कहां हुआ है ? मेरा जन्म मरार की बाड़ी में हुआ है और मेरा अवतार पंसारी की दुकान में हुआ है । ऐ पर्रा, तुम्हारा जन्म कहां हुआ है और तुम्हारा अवतार कहां हुआ है ? मेरा जन्म सिया पहाड़ में हुआ है और मेरा अवतार कँडरा के घर में हुआ है-
 

कहवाँ रे हरदी, भई तोर जनामन,
कहवाँ रे लिए अवतार ?
मरार बारी, दीदी मोर जनामन,
बनिया दुकाने दीदी लिएँव अवतार ।
कहवाँ रे पर्रा भई तोर जनामन,
कहवाँ रे पर्रा तैं लिए अवतार ?
सिया पहारे दीदी मोर जनामन,
कँड़रा के घरे मैं लिएँव अवतार ।


विवाह के अवसर पर बारातियों के स्वागत में गाए जाने वाले भड़ौनी गीत में समधी-समधिन और दूल्हे को हँसी-मजाक के लहजे में उलाहना दिया जाना वास्तव में उनके प्रति व्यक्त किया गया सम्मान ही होता है जो निश्छल  सामाजिक संबंधों को और प्रगाढ़ बनाता है- पहला उदहारण समधी, दूसरा समधिन और तीसरा दूल्हे को संबोधित है -


बने बने तोला जानेंव समधी, मड़वा में डारेंव बाँस रे,
झालापाला लुगरा लाने, जरय तुँहर नाक रे ।
लाम लाम तोर मेंछा हावय, मुँहू हावय करिया रे,
समधी बिचारा का करय, पहिरे हावय फरिया रे ।

बरा खाहूँ कहिथव समधिन, कहाँ के बरा पाबे रे,
हात गोड़ के बरा बना ले, टोर टोर के खाबे रे ।
पातर पातर मुनगा फरय, पातर लुरय डार रे,
पातर हावय समधिन छिनारी, ओकर नइये जात रे ।

सुंदर हाबस कहिके दुलरवा, हम-ला दियेव दगा रे,
बिलवा हावय मुँहू तुँहर, नोहव हमर सगा रे ।
आमा पान के पुतरी, लिमउआ छू छू जाय रे
दुल्हा डउका दुबर होगे, सीथा बिन बिन खाये रे

 

छत्तीसगढ़ियों में सामाजिक बुराई दहेज प्रथा प्रचलित नहीं है किंतु बेटी को घर-गृहस्थी के कुछ सामान भेंट किए जाते हैं । एक गीत में दर्शाया  गया है कि इस भेंट से दूल्हा प्रसन्न नहीं है-

गाय अउ भइँस ले नोनी कोठा तोर भरगे
दुलरू के मन नहीं आय
कि ए वो नोनी सीता ल बिहावय सिरी राम
पइसा अउ कउड़ी ले नोनी सन्दुक भरगे
दुलरू के मन नहीं आय
कि ए वो नोनी सीता ल बिहावय सिरी राम
टठिया अउ लोटा ले नोनी झंपिया तोर भरगे
दुलरू के मन नहीं आय


श्रम के प्रति समर्पण और आलस्य के प्रति तिरस्कार छत्तीसगढ़ का मूल संस्कार है । बाँस गीत के इस उदाहरण में पति-पत्नी के संवाद के माध्यम से श्रम के महत्व के साथ-साथ पारिवारिक और सामाजिक दायित्व के निर्वहन के प्रति समर्पण को इस तरह अभिव्यक्त किया गया है-
 
छेरी ला बेचव, भेंड़ी ला बेचव, बेचव करिया धन,
गाय गोठान ल बेचव धनी मोर, सोवव गोड़ लमाय ।
छेरी ला बेचँव, न भेड़ी ला बेचँव, नइ बेचँव करिया धन,
जादा कहिबे तो तोला बेचँव, एक कोरी खन खन ।
कोन करही तौर राम रसोइया, कोन करही जेवनास,
कोन करही तौर पलंग बिछौना, कोन जोहही तोर बाट ।
दाई करही राम रसोइया, बहिनी हा जेवनास,
सुलखी छेरिया पंलग बिछाही, बंसी जोहही बाट ।
दाई बेचारी तौर मर हर जाही, बहिनी पठोहू ससुरार,
सुलखी छेरिया ल हाट मा बेचँव, बंसी ढीलवँ मँझधार ।
दाई राखेंव अमर खवा के बहिनी राखेंव छै मास,
सुलखी छेरिया ल छाँद के राखेंव, बंसी जीव के साथ ।


छत्तीसगढ के लोकगीतों के निर्माण में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का योगदान अधिक रहा है। लोकगीतों में सदियों से झरते स्त्री मन के अथाह दर्द, पीड़ा, प्रेम, आशा, आकांक्षा, प्रताड़ना आदि को साफ महसूस किया जा सकता है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में नारी के कंठ से उसके अपने भाव और अभाव के उद्गार प्रकट होते रहे हैं । सुवागीत इसी भावभूमि में सिरजा गया गीत है । प्रस्तुत सुवा गीत मेंं वर्णन है कि एक नववधू का पति रणक्षेत्र में गया है जो अब तक नहीं लौटा । नववधू सुग्गे से अपने मन की व्यथा को व्यक्त करती है और सुग्गा उत्तर देता है । परिवार-समाज के अनुशासन के साथ-साथ इस गीत में अध्यात्म के स्वर भी मुखरित हैं-

पहिली गवन के मोला देहरी बैठाये,
न रे सुआ हो छाँडि चले बनिजार ।
काकर संग खेलहूँ, काकर संग खाहूँ
काला राखों मन बाँध, न रे सुआ हो छाँडि चले बनिजार ।
खेलबे ननद संग, सास संग खाबे,
छोटका देवर मन बाँध, न रे सुआ हो छाँडि चले बनिजार
पीवरा पात सन सासे डोकरिया, नन्द पठोहूँ ससुरार,
छोटका देवर मोर बेटवा सरीखे
कइसे राखों मन बाँध, न रे सुआ हो छाँडि चले बनिजार ।
तोर अँगना म चौरा बँधा ले, कि तुलसा ल देबे लगाय,
नित नित छुइबे नित नित लीपबे, कि नित नित दियना जलाय
तुलसा के पेड़ ह हरियर हरियर, कि मोर नायक करथे बनिजार
जब मोर तुलसा के पेड़ झुरमुर जाही
कि मोर नायक गये रन जूझ न रे सुआ हो छाँडि चले बनिजार ।

बच्चों के जन्म के समय सोहर गीत गाया जाता है । परिजनों के लिए शिशु  का जन्म खुशी का अवसर होता है । इस सोहर गीत में वर्णित  है कि बच्चे का जन्म माता के मायके में हुआ है । माता के ससुराल से कोई नहीं आया है इसलिए सभी रस्म मायके के लोग ही पूरी करेंगे । परिवार के विविध संबंधियों का उल्लेख यह भी दर्शाता  है कि इनमें परस्पर प्रेम ही सुखी परिवार और स्नेही समाज की बुनियाद है-

ननदी बोलयेंव उहू नइ आइस
ननदी हो हमार का करि लेहव,
बहिनी बलाके काँके मढ़ई बोन
हम छबीली सबे के काम पड़बोन।
ननदोइ बोलयेंव उहू नइ आइस
भाँटो बला के नरियर फोरा ले बोन
हम छबीली सबे के काम पड़बोन।
जेठानी बोलायेंव उहू नइ आइस
जेठानी हो हमार का करि लेहव,
भौजी बला के, सोंहर गवाबोन
हम छबीली सबे के काम पड़बोन।।
जेठ जी बोलायेंव उहू नइ आइस
जेठ हो हमार का करिलेहव,
भाई बला के बन्दुक छुटबई लेबोन
हम छबीली सबे के काम पड़बोन।
ससुर बोलायेंव उहू नइ आइस
ससुर हो हमार का करिलेहव,
बापे बला के नाम धरइ ले बोन
हम छबीली सबे के काम पड़बोन।
सासे बोलायेंव उहू नइ आइस
सासे हो हमार का करिलेहव,
दाई बला के डुठू बँधवइबोन
हम छबीली सबे के काम पड़िबोन।।


पंथी गीत में समाज को सही मार्ग दिखाने वाले गुरु बाबा के उपदेशों  का सुंदर वर्णन मिलता है। एक पंथी गीत में कहा गया है कि मूढ़ के आँगन में दीपक नहीं जलता जबकि ज्ञानवान के आंगन में दीपक जलता रहता है । अंधकार और दीये की तुलना मूर्ख और ज्ञानवान से की गई है-

काकर घर परे निस अँधयरिया
काकर अँगना दियना बरय हो,
मुरख अँगना निस अँधयरिया
ज्ञानी के अँगना दियना बरय हो ।


जात-पात  के संदर्भ में भेदभाव करना एक बड़ी सामाजिक बुराई है । पंथी गीत की इन पंक्तियों में एक सुंदर संदेश  है कि पक्षी भी विविध जाति के होते हैं किंतु वे तो एक ही वृक्ष में अपना नीड़ बनाते हैं । अरे मूर्ख मानव, तुम जात-पात में ही उलझे हुए हो-

तैं तो जात-पात के जाल में अरझ गये रे
जात पंछी म जरूर
सोल्हाई, कोकड़ा अउ मंजूर
ओमन एके पेड़  में खोंधरा बना डरिन रे मानुस मुरख गँवार ।



उपर्युक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों का संवर्धन और नैतिकता के स्वर भी गुंजित हैं। विभिन्न प्रकार के छत्तीसगढ़ी लोकगीतों में यहाँ के सामाजिक-आर्थिक व सांस्कृतिक रूप के साक्षात दर्शन होते हैं। ये लोकगीत आज हमारे जीवन के अभिन्न अंग हैं। मनुष्य जन्म से मृत्युपर्यंत लोकगीतों के इर्दगिर्द ही जीता है। सारे संस्कार लोकगीतों के साथ-साथ चलते हैं। मनुष्य के संपूर्ण जीवन को लोकगीत ही तो आच्छादित किए हुए हैं। लोकगीत हमारे सामाजिक जीवन का एक अभिन्न अंग है। इन गीतों का उद्देश्य केवल हमारा मनोरंजन करना ही नहीं बल्कि समाज को एक सूत्र में पिरोए रखना भी है।

-महेन्द्र वर्मा
                    





4 comments:

  1. महेंद्र सा.
    लोकगीतों का महत्व इससे बेहतर ढंग से आप ही समझा सकते हैं। और आपने बिल्कुल सही कहा कि लोकगीत जन्म्स एलेकर मृत्यु तक की यात्रा के साक्षी हैं। मैं तो हमेशा से इन्हें बेसुरे कण्ठों का सुरीला संगीत कहता हूँ। एक बहुमूल्य आलेख!

    ReplyDelete
  2. बहुत ही सुन्दर और रोचक आलेख लोकगीत पर

    ReplyDelete