होली की मान्यता लोकपर्व के रूप में अधिक है किन्तु प्राचीन संस्कृत-शास्त्रों में इस पर्व का विपुल उल्लेख मिलता है । भविष्य पुराण में तो होली को शास्त्रीय उत्सव कहा गया है । ऋतुराज वसंत में मनाए जाने वाले रंगों के इस पर्व का प्राचीनतम सांकेतिक उल्लेख यजुर्वेद के तैत्तिरीय आरण्यक (1.3.5) में मिलता है- भाष्यकार सायण लिखते हैं- “वसंत ऋतु में देवता के वस्त्र हल्दी से रँगे हुए हैं ।" होली शब्द की उत्पत्ति ‘होलाका’ शब्द से हुई है । अथर्व वेद के परिशिष्ट (18,12.1) में फाल्गुन पूर्णिमा की रात्रि को होलाका कहा गया है- “फाल्गुनां पौर्णिमास्यां रात्रौ होलाका” । प्राचीन संस्कृत साहित्य में वसंतोत्सव का विस्तृत वर्णन है । यह उत्सव वसंत पंचमी से प्रारंभ हो कर चैत्र कृष्ण त्रयोदशी तक संपन्न होता था । होली इसी वसंतोत्सव के अंतर्गत एक विशेष पर्व है जिसका उल्लेख प्राचीन संस्कृत साहित्य में विभिन्न नामों से मिलता है, यथा- फाल्गुनोत्सव, मधूत्सव, मदनोत्सव, चैत्रोत्सव, सुवसंतक, दोलोत्सव, रथोत्सव, मृगयोत्सव, अनंगोत्सव, कामोत्सव, फग्गु (प्राकृत) ।
पहली ईस्वी शती में कवि हाल द्वारा संकलित प्राकृत ग्रन्थ ‘गाथा सप्तशती’ में होली में एक-दूसरे पर रंगीन चूर्ण और कीचड़ फेंके जाने का वर्णन है- “नायिका अपनी हथेलियों में गुलाल ले कर खड़ी ही रह गई, नायक पर रंग डालने की उसकी योजना असफल हो गई (4.12) । किसी ने फाल्गुनोत्सव में तुम पर बिना विचारे जो कीचड़ डाल दिया है उसे धो क्यों रही हो (4.69) ।’’ चौथी-पाँचवीं शताब्दी के महाकवि कालिदास की कृति ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ में दो दासियों के वार्तालाप में वसंतोत्सव की चर्चा है- “कृपा कर बताइए कि राजा ने वसंतोत्सव मनाए जाने पर प्रतिबन्ध क्यों लगाया है ? मनुष्यों को राग-रंग सदा से प्रिय है इसलिए कोई बड़ा ही कारण होगा ।’’ कालिदास की ही रचना ‘मालविकाग्निमित्र’ के अंक 3 में विदूषक राजा से कहता है- “रानी इरावती जी ने वसंत के आरम्भ की सूचना देने वाली रक्ताशोक की कलियों की पहले-पहल भेंट भेज कर नए वसंतोत्सव के बहाने निवेदन किया है कि आर्यपुत्र के साथ मैं झूला झूलने का आनंद लेना चाहती हूँ ।" 7 वीं शती के कवि दंडी रचित 'दशकुमारचरित' में होली का उल्लेख 'मदनोत्सव' के रूप में किया गया है। इसी काल में हर्ष ने ‘रत्नावली’ नाटक लिखा । इस के पहले अंक में विदूषक राजा से होली की चर्चा इस प्रकार करता है- “इस मदनोत्सव की शोभा तो देखिए, युवतियाँ अपने हाथों में पिचकारी ले कर नागर पुरुषों पर रंग डाल रहीं हैं और वे पुरुषगण कौतूहल से नाच रहे हैं । उडाए गए गुलाल से दसों दिशाओं के मुख पीत वर्ण के हो रहे हैं ।“
कतिपय पुराणों में भी होली या फाल्गुनोत्सव का वर्णन है । माना जाता है कि पुराणों की रचना पहली से दसवीं शताब्दी तक होती रही है । भविष्य पुराण के फाल्गुनोत्सव नामक अध्याय 132 में होली के संबंध में श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का रोचक संवाद देखिए- युधिष्ठिर पूछते हैं- “जनार्दन, फाल्गुन मास के अंत में पूर्णिमा के दिन गाँव-गाँव में प्रत्येक घर में जिस समय उत्सव मनाया जाता है, लड़के लोग क्यों प्रलाप करते हैं, होली क्यों और कैसे जलाई जाती है ? इसके संबंध में विस्तार से बताइए ।" उत्तर में श्रीकृष्ण होली पर्व के प्रारंभ होने की कथा सुनाते हैं । कथा के अंतर्गत शिव जी और वशिष्ठ का संवाद है । अंत में शिव जी कहते हैं- “आज फाल्गुन मास की पूर्णिमा है, शीतकाल की समाप्ति और ग्रीष्म का आरंभ हो रहा है । अतः आप लोक को अभय प्रदान करें जिससे सशंकित मानव पूर्व की भांति हास्य-विनोद से पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकें । बालकवृन्द हाथ में डंडे लिए समर के लिए लालायित योद्धा की भांति हँसी-खेल करते हुए बाहर जाकर सूखे लकड़ियाँ और ऊपले एकत्र करें तथा उसे जलाएँ तत्पश्चात राक्षस नाशक मन्त्रों के साथ सविधान उस में आहुति डाल कर हर्सोल्लास से सिंहनाद करते और मनोहर ताली बजाते हुए उस अग्नि की तीन परिक्रमा करें । सभी लोग वहाँ एकत्रित हों और निःशंक हो कर यथेच्छ गायन, हास्य और मनोनुकूल प्रलाप करें ।‘’
बंगाल में होली के अवसर पर दोलोत्सव मनाया जाता है । इस का उल्लेख भी भविष्य पुराण के अध्याय 133 में है । पार्वती शिव जी से कहती है- “प्रभो ! झूला झूलती हुई इन स्त्रियों को देखिए । इन को देख कर मेरे मन में कौतूहल उत्पन्न हो गया है । अतः मेरे लिए भी एक सुसज्जित हिंडोला बनाने की कृपा करें । त्रिलोचन ! इन स्त्रियों की भाँति मैं भी आपके साथ हिंडोला झूलना चाहती हूँ ।‘’ तब शिव जी ने देवों को बुला कर हिंडोला बनवाया और पार्वती की मनोकामना पूर्ण हुई । इस के बाद हिंडोला बनाने-सजाने और दोलयात्रा की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन है । भविष्य पुराण में दोलोत्सव की तिथि चैत्र शुक्ल चतुर्दशी दी गई है किन्तु आजकल यह उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा और चैत्र शुक्ल द्वादशी को मनाया जाता है । इस के अतिरिक्त अध्याय 135 में मदन महोत्सव का भी वर्णन है ।
नारद पुराण (1.124) में फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका-पूजन और दहन का उल्लेख है । साथ ही यह भी कहा गया है कि इस पर्व को संवत्सर दहन या मतान्तर से कामदहन के रूप में भी मनाया जाता है- “संवत्सरस्य दाहोsयम, कामदाहो मतान्तरे ।’’ संवत्सर दहन का आशय ‘बीत रहे वर्ष की विदाई और नए वर्ष का स्वागत’ है । नील मुनि द्वारा रचित ‘नीलमत पुराण’ के श्लोक संख्या 647 से 650 में होली मानाने की विधि का वर्णन इस प्रकार है- “फाल्गुन पूर्णिमा को उदय होते पूर्णचंद्र की पूजा करनी चाहिए । रात्रि के समय गायन, वादन, नृत्य और अभिनय का आयोजन किया जाना चाहिए जो चैत्र कृष्ण पंचमी तक निरंतर रहे । पाँच दिनों तक पर्पट नामक औषधीय पौधे के रस का सेवन करना चाहिए ।’’
भोजदेव की 11 वीं शताब्दी की रचना ‘सरस्वती कंठाभरणम’ में लिखा है कि सुवसंतक वसंतावतार के दिन को कहते हैं। वसंतावतार अर्थात बसंत का आगमन, यह दिन वसंत पंचमी का ही है। दक्षिण भारत के संस्कृत कवि अहोबल ने 15 वीं शताब्दी में ‘विरूपाक्ष वसंतोत्सव चम्पू’ नामक ग्रन्थ की रचना की । इस में वसंतोत्सव की विस्तार से चर्चा की गई है । इन सब के अतिरिक्त भारवि, राजगुरु मदन, वात्स्यायन, माघ, भवभूति आदि की कृतियों में भी वसंतोत्सव का उल्लेख मिलता है ।
उपर्युक्त विवेचन से यह निश्चित होता है कि होली का पर्व प्राचीन काल से ही सम्पूर्ण भारतीय समाज में उल्लास और उमंग का महत्वपूर्ण उत्सव रहा है । परम्पराओं का निर्माण पहले लोक के द्वारा लोक में होता है तत्पश्चात वह शास्त्रों में अंकित हो कर सांस्कृतिक विरासत का रूप ले लेती हैं । आज भी हमारी यह गरिमामयी सांस्कृतिक विरासत भारतीय जन-मानस को सद्भाव, एकता और समानता का सन्देश दे रही है ।
-महेन्द्र वर्मा
ज्ञानवर्धक,रोचक और सराहनीय लेख।
ReplyDeleteप्रणाम।
सादर।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteरंगों के महापर्व होली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (30-3-21) को "कली केसरी पिचकारी"(चर्चा अंक-4021) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
बहुत सुंदर रचना। होली की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteज्ञानवर्धक लेख .... हमें तो आपकी ग़ज़लें ही याद हैं :)
ReplyDeleteबढ़िया लेख
ReplyDeleteउत्तम जानकारी ...
बढ़िया लेख
ReplyDeleteउत्तम जानकारी ...
बढ़िया लेख
ReplyDeleteउत्तम जानकारी ...
रोचक, ज्ञानवर्धक और सर्वथा नवीन जानकारी इस पावन पर्व के विषय में। धन्यवाद महेंद्र सा.
ReplyDeleteज्ञानवर्धक लेख।
ReplyDelete