ना मैं मुल्ला ना मैं काजी
लाहौर जिले के पंडील गांव में विक्रम संवत 1737 में संत बुल्लेशाह का जन्म हुआ। इनके पिता शाह मुहम्मद दरवेश अरबी तथा फारसी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। बुल्लेशाह पहले साधु दर्शनीनाथ के संपर्क में रहे और फिर इनायत शाह के संपर्क में आ गए। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे और कुसूर नामक स्थान में निवास करते हुए सदैव अपनी साधना में लीन रहे। इस्लाम और सूफी धर्म -शिक्षा, धर्म-ग्रंथों के व्यापक और गहन अध्ययन से बुल्लेशाह में जहां गहन संस्कारों का प्रभाव पड़ा, वहां परमात्मा को पाने की अपूर्व लौ भी लग गई।
संत बुल्लेशाह की विचारधारा, सूफीमत की ही भांति, वेदांत से भी बहुत कुछ प्रभावित थी। कबीर साहब के समान विचार की स्वतंत्रता में इनकी आस्था थी। उन्ही की भांति ये बाह्याडंबर के कट्टर विरोधी थे। इनकी धारणा थी कि मंदिर -मस्जिद में प्रेमरूपी परमात्मा का निवास होना असंभव है। इनके अनुसार सरलहृदय होना तथा अहंकार का परित्याग सबसे अधिक आवश्यक है। ये अपना काफिर होना स्वीकार करते थे। इनका देहावसान विक्रम संवत 1810 में हुआ। कसूर के निकट पांडोके नामक गांव में इनकी मजार है जहां प्रतिवर्ष उर्स लगता है।
प्रस्तुत है, संत बुल्लेशाह का एक पद-
टुक बूझ कौन छप आया है।
इक नुकते में जो फेर पड़ा, तब ऐन गैन का नाम धरा।
जब मुरसिद नुकता दूर कियो, तब ऐनो ऐन कहाया है।
तुसीं इल्म किताबा पढ़दे हो, केहे उलटे माने करते हो।
वे मुजब ऐबें लड़दे हो, केहा उलटा बेद पढ़ाया है।
दुइ दूर करो कोई सोर नहीं, हिंदू तुरक कोई होर नहीं।
सब साधु लखो कोइ चोर नहीं, घट घट में आप समाया है।
ना मैं मुल्ला ना मैं काजी, ना मैं सुन्नी ना मैं हाजी।
बुल्लेशाह नाल जाइ बाजे, अनहद सबद बजाया है।
भावार्थ-
जरा देखो, अगोचर वेश में कौन आया है। जिस प्रकार अरबी के एक अक्षर ऐन में एक नुकता या बिंदु लगा देने से वह गैन बन जाता है, उसी प्रकार पूर्ण परमात्मा भी केवल नाम-रूप की उपाधि के कारण सीमित जान पड़ता है। सतगुरु ने यह भ्रम दूर किया। तुम ज्ञान और धर्मशास्त्र की किताबें पढ़ते हो और उलटे अर्थ लगाकर आपस में लड़ते हो। हिंदू और तुर्क भिन्न नहीं हैं, दोनों में परमात्मा का वास है। इसलिए सभी साधु हैं। मैं मुल्ला, काजी, सुन्नी या हाजी नहीं हूं। बुल्लेशाह कहते हैं कि मेरे निकट तो केवल उस परमात्मा का अनहद नाद ही सुनाई देता है।
बुल्ले शाह के बारे में जानकारी बहुत ही अच्छी लगी.
ReplyDeleteचल बुल्लिया चल ओथे चलिए जित्थे सारे अन्ने,
न कोई साडी ज़ात पछाने न कोई सानू मन्ने,
और
रंगड़ नालों खंगड़ चंगा जिस्ते पैर घसाईदा,
बुल्ले नालों चुल्ला चंगा जिस्ते ताम पकाईदा .
बुल्ले शाह का कोई जवाब नहीं.बेमिसाल है बुल्ला.
मन खुश हो गया आपकी पोस्ट पद कर ..!!
ReplyDeleteआपका आभार बुल्ले शाह को पढवाने के लिए -
और साथ ही अर्थ भी देने के लिए ...!!
आभार वर्मा साहब!
ReplyDeleteएक महान संत कवि का परिचय और इतना सुन्दर ज्ञान!!
अहा! हा हा!
ReplyDeleteइस तरह की रचना और इस तरह की पोस्ट से मन को तृप्ति मिलती है। आभार आपका वर्मा साहब।
मशहूर सूफी संत बुल्ले शाह के बारे में जानकार अच्छा लगा...
ReplyDeleteमंदिर -मस्जिद में प्रेमरूपी परमात्मा का निवास होना असंभव है भुल्ले शाह जी की इस बात से तो हम सहमत हे ही वेसे भी हम भुल्ले शाह के मुरीद हे जी, आप का धन्यवाद
ReplyDeleteबुल्ले शाह जी की तो गल बात ही दूजी है :-
ReplyDeleteबेशक मन्दिर मस्जिद ढाए,बुल्ले शाह ये कहंदा
पर प्यार भरा दिल कड़ी न तोड़ो ,
जिसमे दिलबर रहंदा --
नारायण स्वामी जी के बाद संत बुल्लेशाह पर या उनके बारे में दी गयी ज्ञानवर्धक जानकारी बहुत अच्छी और नयी पीढ़ी के लिए यह जरूरी है कि वह अपनी संस्कृति और परम्परा को आधुनिकता से जोड़कर देखे और पढ़ें |भाई महेंद्र जी आपका शोध कामयाब हो |शुभकामनाएं |
ReplyDeleteनवीन जानकारी के लिए शुक्रिया . हम इंतजार करते है अगले संत कवि की रचना का .
ReplyDeleteएक महान संत कवि का परिचय देने के लिए आपका आभार और उनकी रचना पढ़ कर तो बस ..और कुछ नहीं .......
ReplyDeleteसंत बुल्ले शाह जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को आपकी सुन्दर पोस्ट के द्वारा जानने का मौका मिला.बहुत बहुत आभार आपका.
ReplyDeleteआदरणीय महेन्द्र वर्मा जी
ReplyDeleteनमस्कार !
एक महान संत कवि का परिचय देने के लिए आपका आभार
बुल्ले शाह जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को समेटे बेहतरीन पोस्ट के लिए आभार आपका ......
ReplyDeleteविशालजी के कमेंट का उत्तरार्ध मैं लिखने वाला था, अब क्या करूं सर?
ReplyDeleteकभी अवसर मिलने पर इनके पीरो मुर्शिद साईं इनायत शाह और बुल्ले शाह के आपसी संवाद पर भी रोशनी डालिये, रोचक हैं।
दुइ दूर करो कोई सोर नहीं, हिंदू तुरक कोई होर नहीं।
ReplyDeleteसब साधु लखो कोइ चोर नहीं, घट घट में आप समाया है।
ना मैं मुल्ला ना मैं काजी, ना मैं सुन्नी ना मैं हाजी।
बुल्लेशाह नाल जाइ बाजे, अनहद सबद बजाया है।
बुल्ले शाह तो बुल्ले शाह है, उनके लिए हम लोग क्या लिखें, छोटा मुंह और बड़ी बात, लेकिन ऐसी लगन ऐसा प्रेम तो युगों युगों में एक ही होता है
संत कवि का परिचय देने के लिए आपका आभार और उनकी रचना पढ़ कर अच्छा लगा.
ReplyDeleteअत्यंत प्रेरणादायी प्रसंग। रचना को सही अर्थों में ग्रहण करना बेहद जरूरी है।
ReplyDeleteकवि परिचय के लिए आभार।
बेशक मन्दिर मस्जिद तोड़ो,बुल्लेशाह ये कहंदा
ReplyDeleteपर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो ,
जिस दिल में दिलबर रहंदा .......
आपने संत बुल्लेशाह के बारे में बहुत दुर्लभ तथा अच्छी जानकारी दी इनका नाम मैंने बचपन में सुना तो था लेकिन अधिक जानकारी नहीं थी बहुत बहुत धन्यवाद आपका !!
वाह .. दिल खुश हो गया ... आपने तो अर्थ भी साथ दे दिया ... सोने पे सुहागा ... बहुत ही लाजवाब ....
ReplyDeleteBulleh Shah ke darshan karane ke liye dhanyawad!
ReplyDeleteबुल्ले शाह जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को समेटे बेहतरीन पोस्ट के लिए आभार आपका ..
ReplyDeleteसंत बुल्लेशाह जी के बारे में सार्थक जानकारी देने और उनका सुन्दर पद प्रस्तुत करने का...बहुत-बहुत
ReplyDeleteआभार महेंद्र जी !
बुल्ला की जानां मैं कौन...इसतरह जानना अच्छा लगा ...बेहतरीन पोस्ट के लिए आभार
ReplyDeleteबुल्लेशाह जी के बारे में इतनी सुन्दर जानकारी मिली बहुत अच्छा लगा |
ReplyDeleteबहुत - बहुत शुक्रिया |
आज गुड फ्राई डे क अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं आपको !!
ReplyDeleteबुल्लेशाह मैंने पढ़ा था. आपने उनका बहुत अच्छा पद चुना है. वे फकीरी की एक मिसाल धे.
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