कितनी लिखी गई किताब सोचिए ज़रा,
क्या मिल गए सभी जवाब सोचिए ज़रा।
काँटों बग़ैर ज़िंदगी कितनी अजीब हो,
अब खिलखिला रहे गुलाब सोचिए ज़रा।
ज़र्रा है तू अहम विराट कायनात का,
भीतर उबाल आफ़ताब सोचिए ज़रा।
चले उकेर के हथेलियों पे हम लकीर,
तकदीर माँगता हिसाब सोचिए ज़रा।
दरपन दिखा रहा तमाम शक्ल इसलिए,
उसने पहन रखा नक़ाब सोचिए ज़रा ।
-महेन्द्र वर्मा
वाह...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
सादर
अनु
कहाँ से लफ़्ज़ लाऊँ महेन्द्र जी इस लाजवाब अभिव्यक्ति के लिये ……………शानदार
ReplyDeleteचले उकेर के हथेलियों पे हम लकीर,
ReplyDeleteतकदीर माँगता हिसाब सोचिए ज़रा।
दरपन दिखा रहा तमाम शक्ल इसलिए,
उसने पहन रखा नक़ाब सोचिए ज़रा ।
वाकई सोचनेपर मजबूर करती गज़ल
चले उकेर के हथेलियों पे हम लकीर,
ReplyDeleteतकदीर माँगता हिसाब सोचिए ज़रा।
बहुत सुन्दर....
सोचने के लिए प्रेरित करती |
ReplyDeleteआभार ||
सोचने को विवश करती हुई ...
ReplyDeleteसुंदर सी कविता !!
आत्मा के दर्पण में सारे बेनकाब..लाजवाब... आभार
ReplyDeleteदरपन दिखा रहा तमाम शक्ल इसलिए,
ReplyDeleteउसने पहन रखा नक़ाब सोचिए ज़रा ।
नक़ाब पहन कर दरपन देखने वाले भी दरपन के सच्चे प्रतिबिंब से नहीं बच सकते. बहुत खूब लिखा है महेंद्र जी. गजल की सादगी भा गई.
गहरे अर्थ लिए अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबेहतरीन :-)
दरपन दिखा रहा तमाम शक्ल इसलिए,
ReplyDeleteउसने पहन रखा नक़ाब सोचिए ज़रा ।
गहन अभिव्यक्ति ...बहुत अच्छी रचना ...!!
काँटों बगैर जिंदगी कितनी अजीब हो,
ReplyDeleteअब खिलखिला रहे गुलाब सोचिये ज़रा.
बहुत सुन्दर गजल सर....
सादर बधाई.
चले उकेर के हथेलियों पे हम लकीर,
ReplyDeleteतकदीर माँगता हिसाब सोचिए ज़रा।
बहुत ही सुन्दर जीवन से जुडी बातें खुबसूरत ...
शानदार...इसके आगे क्या कहूँ सोचती हूँ जरा :)
ReplyDeleteसोचूं तो...उम्दा गजल.. . वाह! बहुत खूब..
ReplyDeleteज़र्रा है तू अहम विराट कायनात का,
ReplyDeleteभीतर उबाल आफ़ताब सोचिए ज़रा।
कॉफ़ी इंतजारी के बाद बड़ी सशक्त गजल पढवाई आपने ,लिखी आपने .
दरपन दिखा रहा तमाम शक्ल इसलिए,
ReplyDeleteउसने पहन रखा नक़ाब सोचिए ज़रा ।
वाह,,, बहुत सुंदर गजल,,,के लिए बधाई,,महेंद्र जी
RECENT POST...: राजनीति,तेरे रूप अनेक,...
महेंद्र जी, सोचना पड़ेगा...
ReplyDeleteकाँटों बग़ैर ज़िंदगी कितनी अजीब हो,
ReplyDeleteअब खिलखिला रहे गुलाब सोचिए ज़रा।
कांटों की सुरक्षा नहो तो गुलाब की हँसी खिल ही न सके - तत्वपूर्ण बात कही है !
दरपन का नकाब- अनूठा प्रयोग.
ReplyDeleteसोचने को मजबूर करती अद्भुत रचना , आभार
ReplyDeleteबहुत ही विचारनीय पंक्तियाँ... सोंचने को मजबूर करती हुई. सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteदूर हमसे न जाने क्यों हो गए,
ReplyDeleteदिल पे हाथ रखके सोचिये ज़रा !!
बढ़िया गज़ल !
दूर हमसे न जाने क्यों हो गए,
ReplyDeleteदिल पे हाथ रखके सोचिये ज़रा !!
बढ़िया गज़ल !
काँटों बग़ैर ज़िंदगी कितनी अजीब हो,
ReplyDeleteअब खिलखिला रहे गुलाब सोचिए ज़रा ...
बहुत खूब ... मुमकिन नहीं ऐसा जीवन सोचना ,... क्या जुस्तजू रह जायगी जिंदगी में जो ऐसा हो गया ,... सच है सोचने की जरूरत है ... लाजवाब गज़ल ...
बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteHello
ReplyDeleteI adore this writing. You definitely know how to bring an issue to light and make it important.
बहुत खूब!
ReplyDeleteबहुत ख़ूब!
ReplyDeleteआपकी यह सुन्दर प्रवृष्टि कल दिनांक 16-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-942 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
कितनी लिखी गई किताब सोचिए ज़रा,
ReplyDeleteक्या मिल गए सभी जवाब सोचिए ज़रा।
सोच ही तो रहे हैँ पर क्या करें ?
बहुत खूब !
सोच-सोच में हो गई, अपनी उम्र तमाम।
ReplyDeleteअब पछताए होत क्या, किए नहीं कुछ काम।।
कितनी लिखी गई किताब सोचिए ज़रा,
ReplyDeleteक्या मिल गए सभी जवाब सोचिए ज़रा।
वाह ... बहुत खूब
इस ग़ज़ल का तेवर हमें सोचने पर विवश करता है।
ReplyDeleteचले उकेर के हथेलियों पे हम लकीर,
ReplyDeleteतकदीर माँगता हिसाब सोचिए ज़रा।
..... सुंदर गजल के लिए बधाई महेंद्र जी
चले उकेर के हथेलियों पे हम लकीर,
ReplyDeleteतकदीर माँगता हिसाब सोचिए ज़रा।
...वाह! लाज़वाब गज़ल...हरेक शेर गहन अर्थ छुपाये..
काँटों बग़ैर ज़िंदगी कितनी अजीब हो,
ReplyDeleteअब खिलखिला रहे गुलाब सोचिए ज़रा।
गज़ब का लिखते हैं आप !
बधाई !
एक सप्ताह खाली गया. जल्द लौटिए.
ReplyDeleteचले उकेर के हथेलियों पे हम लकीर,
ReplyDeleteतकदीर माँगता हिसाब सोचिए ज़रा..
Excellent creation..
.
सोचने के लिए इतने सारे विषय, और सभी जीवन से जुड़े हुए, पर जवाब नदारद. अच्छी रचना, बधाई.
ReplyDelete"दरपन दिखा रहा तमाम शक्ल इसलिए,
ReplyDeleteउसने पहन रखा नक़ाब सोचिए ज़रा ।"
ग़ज़ब की कल्पना...
लाजवाब ग़ज़ल