बेवजह







मुश्किलों को क्यों हवा दी बेवजह,
इल्म की क्यों बंदगी की बेवजह ।

हाथ   में   गहरी  लकीरें  दर्ज  थीं,
छल किया तक़़दीर ने ही बेवजह ।

सुबह ही थी शाम कैसे यक.ब.यक,
वक़्त  ने   की  दुश्मनी.सी बेवजह ।

वो  नहीं  पीछे   कभी  भी  देखता,
आपने  आवाज़  क्यों  दी बेवजह ।

धूप  थी, मैं  था  मगर साया न था,
देखता  हूँ  राह  किस की बेवजह ।


-महेन्द्र वर्मा

11 comments:

  1. ओह ये बेवजह कितना कुछ हो जाता है ... खूबसूरत ग़ज़ल

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  2. ये जो "बेवज़ह" है न, वर्मा सा., यही तो ज़िंदगी में नमक लाती हैं, जीने की वज़ह पैदा करती हैं. आपकी गज़लें इतनी प्यारी होती हैं और लफ्जों को बरतना इतना ख़ूबसूरत होता है मानो हीरे जड़ दिए हों. दिल खुश हो गया. बस शिकायत यही है कि आपकी आमद बड़े दिनों पर होती है!

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  3. बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल. क्या कहने!

    धूप थी, मैं था मगर साया न था,
    देखता हूँ राह किस की बेवजह।

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  4. इशारते बेवजह .... क्या कहना । बहुत अच्छा ।

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  5. हाथ में गहरी लकीरें दर्ज थीं,
    छल किया तक़़दीर ने ही बेवजह ।

    ...वाह...बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...

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  6. वाह बहुत खूबसूरत गजल।

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  7. बहुत खूब

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  8. धूप थी, मैं था मगर साया न था,
    देखता हूँ राह किस की बेवजह ।

    ....प्रभावित करनेवाली ख़ूबसूरत ग़ज़ल

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  9. बहुत खूब .... हर शेर लाजवाब ... और आखरी शेर तो सुभान अल्ला ....

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  10. baat to yahi hai jo bevajah hota hai
    aksar usi mein koi vajah hoti hai
    very nice!

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  11. बहुत ही उम्दा ..... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)

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