समर भूमि संसार है, विजयी होते वीर,
मारे जाते हैं सदा, निर्बल-कायर-भीर।
मुँह पर ढकना दीजिए, वक्ता होए शांत,
मन के मुँह को ढाँकना, कारज कठिन नितांत।
दुख के भीतर ही छुपा, सुख का सुमधुर स्वाद,
लगता है फल, फूल के, मुरझाने के बाद।
भाँति-भाँति के सर्प हैं, मन जाता है काँप,
सबसे जहरीला मगर, आस्तीन का साँप।
हो अतीत चाहे विकट, दुखदायी संजाल,
पर उसकी यादें बहुत, होतीं मधुर रसाल।
विपदा को मत कोसिए, करती यह उपकार,
बिन खरचे मिलता विपुल, अनुभव का उपहार।
प्राकृत चीजों का सदा, कर सम्मान सुमीत,
ईश्वर पूजा की यही, सबसे उत्तम रीत।
-महेन्द्र वर्मा
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ReplyDeleteसरल, सरस और शाश्वत सत्य----
ReplyDeleteप्राकृत चीजों का सदा, कर सम्मान सुमीत,
ईश्वर पूजा की यही, सबसे उत्तम रीत।
वाह! क्या बात है महेंद्र जी.
वाह ...सहज और अर्थपूर्ण बातें लिए पंक्तियाँ
ReplyDeleteभाँति-भाँति के सर्प हैं, मन जाता है काँप,
ReplyDeleteसबसे जहरीला मगर, आस्तीन का साँप। ... बड़ी सच्ची बात
हर बार की तरह प्रेरक दोहे.
ReplyDeleteबहुत खूब ... लाजवाब शिक्षाप्रद दोहे ...
ReplyDeleteगहरी बात कहता हुआ हर दोहा ...
बहुत सुन्दर और सार्थक दोहे....
ReplyDeleteआदरणीय महेन्दर जी
ReplyDeleteआपके दोहे जब भी पढ़े हमेशा ही कुछ नया सिखने को मिला .....शिक्षाप्रद दोहे पढ़वाने के लिए आभार आपका
badhiya ...
ReplyDeletebahut sundar dohe hain sir.
ReplyDeletewaah bahut khoob behtareen rachna
ReplyDeletesunder vichar.
ReplyDeleteदर्पण समान ।
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