अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
शीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।
दरवाजे पर देख मुझे मायूस हुए वो,
शायद उनको इंतज़ार था किसी और का।
बहुत दिनों के बाद कहीं से ख़त इक आया,
नाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।
यादों का इक रेला मन को तरल कर गया,
आंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।
दोस्त हमारे कतरा कर यूं निकल गए,
मेरा चेहरा समझा होगा किसी और का।
जब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।
सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।
-महेन्द्र वर्मा
ग़ज़ल
उतना ही सबको मिलना है,
जिसके हिस्से में जितना है।
क्यूं ईमान सजा कर रक्खा,
उसको तो यूं ही लुटना है।
ढोते रहें सलीबें अपनी,
जिनको सूली पर चढ़ना है।
मुड़ कर नहीं देखता कोई,
व्यर्थ किसी से कुछ कहना है।
जंग आज की जीत चुका हूं,
कल जीवन से फिर लड़ना है।
सूरज हूं जलता रहता हूं,
दुनिया को ज़िंदा रखना है।
बोल सभी लेते हैं लेकिन,
किसने सीखा चुप रहना है।
-महेन्द्र वर्मा
एक दिया तो जल जाने दे,
सूरज को कुछ सुस्ताने दे।
पलट रहा क्यूं आईने को,
जो सच है वो दिखलाने दे।
एक सिरा तो थामो तुम भी,
उलझा है जो सुलझाने दे।
चिंगारी रख ऐसी दिल में,
अंगारों को शरमाने दे।
कैद न कर पंछी पिंजरे में,
उसे मुक्ति का सुर गाने दे।
यादें, इतनी जल्दी न जा,
आंखों को तो भर जाने दे।
बादल हूं बरसूंगा, पहले
परवत से तो टकराने दे।
-महेन्द्र वर्मा
गीत मैं गाने लगा हूं,
स्वप्न फिर बुनने लगा हूं।
तमस से मैं जूझता था,
कुछ न मन को सूझता था,
हृदय के सूने गगन में,
सूर्य सा जलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।
आंसुओं के साथ जीते,
वर्ष कितने आज बीते,
भूल कर सारी व्यथाएं,
स्वयं को छलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।
भावनाओं ने उकेरे,
चित्र सुधियों के घनेरे,
कंटकों के बीच सुरभित-
सुमन सा खिलने लगा हूं,
गीत मैं गाने लगा हूं।
-महेन्द्र वर्मा